January 18, 2025



15 -16 जून 2013 की उत्तराखंड आपदा

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वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली


उत्तराखंड में 16 – 17 जून 2013 की आपदा को हर समय याद किया जायेगा। इस जल प्रलय में लगभग एक हजार स्थानीय जन के साथ ही मृतकों की संख्या करीब 6 हजार थी। रामबाड़ा, तिलवाड़ा, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी में भारी नुकसान हुआ था। 4200 गांव प्रभावित हुये थे। इसके बाद जीवट वाले लोग सालों साल केदारनाथ में ही रहकर बर्फीले तूफानों में भी पुर्ननिर्माण काम करते रहे हैं। 2014 में ही ऐसी हवाई पट्टी भी बनी जहां भारतीय वायुसेना का विशालकाय भारवाहक हेलीकोप्टर उतर सकता था। किन्तु स्थानीय प्रभावित प्रकृति और पारिस्थितिक पुर्ननिर्माण के कार्य भी जो साथ होने थे वे न हुये न हो रहें हैं। उनके प्रति आपेक्षित संवेदन शीलता भी नहीं है। तभी तो 30 जून 2024 को प्रातः लगभग पांच बजे जो मंदिर परिसर से पांच किमी दूरी पर गांधी सरोवर में जो हिमस्खलन हुआ और जिसके लिये बाहरी उपस्थित श्रध्दालुओं ने कहा कि ऐसा लगा कि बर्फ का पहाड़ भरभरा रहा है उसको इस क्षेत्र के लिये सामान्य बात है कह दिया जाता है। 2022 , 2023 में भी ऐसा ही हुआ था बता दिया जाता है। किन्तु जब ऐसी अवांछित अनहोनियां होती हैं तो मनोवैज्ञानिक रूप से ही सही सहमे हुए लोग आगे फिर कुछ ऐसा ही न घट जाये कि, आशंका में जीते रहते हैं।

केदार धाम के संदर्भ में आप माने न मानें अधिकांश स्थानीय जन आज भी सांस रोके रहते है। यदि हम समस्याओं के जड़ में जाये बिना ऐसा ही होता है कहने पर ही आ जाये तो भूस्खलनों के समय, जंगल की आगों के समय, फ्लैश फ्लडों के मामलां में भी कह देंगे यह तो होता ही है। न भूलें पूरे विश्व की चिंता जलवायु बदलाव के दौर में हिमालयी ग्लेशियरों में आये संकट की है। पश्चिमोत्तर हिमालय में 1991 के बाद औसत तापमान 66 संटीग्रेड बढ़ गया है। हिमालयी ग्लशियरों की पिघलने की दर दुगुनी हो गई है। ये भी न भूलें कि भारी बरसातों में जून आपदा में करीब 7 किमी लम्बाई के चोरबाड़ी ग्लेशियर में 3865 मीटर्स की ऊंचाई पर स्थित चोराबाड़ी झील जिसे गांधी सरोवर का भी नाम दिया गया था अपनी परिधि में टूट गई थी। इसके बहते भारी मलवा व अथाह जलराशि ने केदारनाथ धाम को अपने चपेट में लिया था। चोरबाड़ी ग्लेशियर के स्नौटों से ही चोराबाड़ी झील के सा मंदाकिनी नदी का स्त्रोत भी बनता है। बढ़े हिम पिघलाव व बहाव से मंदाकिनी जगह जगह विकराल होती गई। कहीं – कहीं इसका जल स्तर 15 मीटर्स तक भी चढ़ गया था।


क्योंकि पहले आम आस्थवान व वैज्ञानिकों के नजर से केदारपुरी व समस्त केदारघाटी में 2013 की भयावह आपदा आई थी उन संदर्भों में हालात पहले से ज्यादा खराब है। लाखें की संख्या में हर सीजन में तीर्थयात्री पहुंच रहें हैं। उनकी उपस्थिती और गतिविधियां हीट आइलैंड न बनायेंगी ये भी तो नहीं कहा जा सकता है। दिन भर की सौ से ज्यादा हेली उड़ानें केदारनाथ अभयारण्य के वन्य जीवों व ग्लेशियरों की ताजा बर्फ में भी कम्पन पैदा कर देती हैं। ऐसा लगता है कि 2013 की आपदा को हम से हमने कुछ सीखा ही नहीं केवल यंत्रवत केदारपुरी को सुविधायुक्त भव्यता वाले कस्बा बना कर ही भुलाना चाहते हैं। हम में जनता और, सरकार दोनो शामिल है।


हम सामाजिक पुनर्वास और आपदाग्रस्त ग्रामीण समुदायों के पुनर्निमाणें में भी चूके। 2013 की आपदा के बाद मुझे चमोली , रूद्रप्रयाग जिलों में गहन सामाजिक फील्ड अध्ययनों व सर्वेक्षणों में उभर कर आया था कि आपदाओं के कुप्रभाव कम से कम अनुभव हों उसके लिये सरकार व आम जन को भी तब तक की कार्यशैलियों व सोच में बदलाव लाना होगा। पर ये बातें ज्यादा दिन न बनी रह पाईं। यह शमशान वैराग्य जैसा था। ये, वो बातें हैं, जिन्हे सामाजिक कार्यकर्ता या विशेषज्ञ जब पहले कहते थे, तो कोई ध्यान नहीं देता था। इन्हे मैंने स्वयं भी फील्ड में पाया था। छिन्न – भिन्न आजीविका को पटरी पर लौटाने के लिए क्या कार्यक्रम किये जायें ये जानने के लिए आज भी यदि आप आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जाये तो एक स्वर से आप ये सुनेंगे कि हम ऐसी आजीविका अपनाना चाहते हैं, जो केवल तीर्थयात्रियों के भरोसे न हो। मौसम की मार या कोरोना जैसी महामारियां स्थानीयों के नियंत्रण में तो नहीं ही हैं। यहां यात्रा काल में मौसम क्या गुल खिलायेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता है। बे मौसमी बर्फबारी होती रहीं हैं।

स्थानीय लोग पहले यात्रियों से यात्रा सीजन में ही इतना कमाने पर भरोसा करते थे, जो उन्हे बाकी के माहों के लिए पर्याप्त रहे। किन्तु 2013 की आपदाओं में खच्चरों को गंवा चुका खच्चर वाला भी फिर से खच्चर लेने के पहले इसका भी हिसाब किताब कर रहा था कि, उसके खच्चरों के लिए आस – पास में ही कितना काम मिल जायेगा। अन्यथा ,यात्रियों के भरोसे न रहकर वह अपना कोई दूसरा काम करने की सोच रहा था। चूंकि दुखद स्थिमियों में तब केदार क्षेत्र के कई परिवारों को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई थी, तो इसलिए भी तब उन्होने आजीविका के उन्ही कार्यो को अपनाना पसन्द किया था, जिनमें उन्हे बाहर न जाना पड़े। गाय भैंस पालन, टेलरिंग, बागवानी, दुकानचलाने जैसे काम उन्होने अपनाये थे। इनको दक्षता देने व इनके समूह बनाने के जो काम होने चाहिए थे, वे नहीं हुये क्योंकि वे परियोजना ओं पर निर्भर थे। आपदा राहत की तात्कालिक परियोजनायें जब खत्म हुंईं तो वो भी खत्म हो गईं।


इसी प्रकार पहले तक जब देवभूमि के आस्थावान व उत्तराखंड राज्य निर्माण के आन्दोलनकारी भोग विलास वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन व तीर्थाटन को बढ़ावा न देने के लिए चेताते थे तो कोई नहीं सुनता था, परन्तु , जून 2013 की आपदा के बाद स्थानीय लोग ही जिनमें व्यवसायी भी थे कहते हुए मिल रहे थे कि, यह तो होना ही था। क्योंकि जो कुछ तीर्थे में नहीं होना चाहिए था, उसको भी करने में यहां परहेज नहीं होता था। 2013 में खुद ही कतिपई व्यवसायी अपने व्यवसायिक आचरण को भी सवालों के घेर में रखने से नहीं हिचकिचाये थे। प्रतिबंधित पदार्थों की खेपें आज भी क्षेत्र में पकड़ी जाती हैं। तीर्थ यात्रा में पर्यटन का कोण तो आज और ही ज्यादा गिरफत में ले रहा है। पिछली आपदा ने मजबूरन लोगों को इस तथ्य को भी देखने को मजबूर किया है कि, जहां – जहां नदियों के तटों पर अतिक्रमण हुआ, और जहां जहां सड़कों व परियोजनाओं का मलवा पड़ा, वहां -वहां नदियों ने विनाश भी किया व अपनी राह भी बदली। अतः एक तरफ तो नदियों को उनकी जमीन लौटाने व उनके अविरल बहने के पक्ष में, और दूसरी तरफ मशीनों से मनमानी, पहाड़ों को अस्थिर करने वाले कटानों के विरूध्द जनमत बना था।

वैकल्पिक जंगल के रास्तों, पैदल मार्गों को ढूंढने, उनको मजबूत करने, जलस्त्रातों को पुनः संरक्षित करने, पलायन रोकने, यात्रियों की संख्या सीमित करने, उनको पंजीकृत करने, मौसम की चेतावनी पर यात्रा को सीमित करने के सरकार के आज होते काम भीः आपदा से मजबूरी में ली गई सीख ही मानी जा सकती है। किन्तु खेद है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कम से कम हवाई पटिटयों की बाढ़ लाने में सरकार परहेज नहीं कर रही है। भारी सीमेंट कंकरीट, इस्पातों के निर्माण से सरकार परहेज नहीं कर रही है। इनसे स्थानीय स्तर पर कुछ लाभ नहीं होने वाला है। उल्टे जमीन व पर्यावरण को खतरे बढ़ेंगे ही। जरूरत है कि आधुनिक तीर्थधामों को पर्यटन स्थलों को बनाने के सपने जमीन पर उतारने के सापेक्ष 2013 की केदार त्रासदी के बाद जो सततता के विकास की चाह आम प्रभावित स्थानीयों में उपजी थी उसको भी जमीन पर उतारा जाये। हिमालयी क्रंदन को अरण्य रोदन होने से बचायें।