बाघों का आतंक
रमेश पाण्डेय कृषक
पहला सवाल कि इन बीस सालों में उत्तराखंड के पहाड़ों पर जंगलों के अन्दर हिंसक बाघों ने कुल कितने लोगों को मार कर खाया। दूसरा सवाल कि इन बीस सालों में हिंसक बाघों ने गांवों के अन्दर या गांवों के समीप कितने मनुष्यों को मार कर खाया। तीसरा सवाल कि इन बीस सालों में खूंखार बाघों ने कितने मनुष्यों को घरों के अन्दर घुस कर अपना शिकार बनाया और घसीटते हुए ले गया। पहले सवाल का सायद ही कोई उत्तर मिले पर शेष सवालों के सिहरन फैला देने वाले जवाब हर पट्टी मिल सकते हैं। सीधा सा तर्क कि हिंसक बाघों द्वारा बड़ी मात्रा में गांवों में घुस कर आक्रमण किए जा रहे हैैं।
एक सवाल और कि उत्तराखंड के पहाड़ों पर कुल भूमि का कितना प्रतिशत भाग यहां के मूल निवासियों के स्वामित्व में है और शेष भूमि किसके कब्जे में है। सपाट सा जवाब मिलेगा कि कुल भूमि का छः प्रतिशत भूमि पर ही यहां के मूल निवासियों का स्वामित्व है और शेष भूमि किसी ना किसी रूप में सरकार के कब्जे में है। सरकारी कब्जे की भूमि का हिस्सा बंटवारा करो तो उस कब्जे की करीब नब्बे प्रतिशत भूमि वन विभाग के कब्जे में मिलेगी जिस पर बहुत बड़ी मात्रा में चीड़ के वे रूखे जंगल मिलेंगे। रूखे सूखे चीड़ के जंगलों में जंगली जानवरों के लिए चारे का पारिस्थितिकी तंत्र बन ही नहीं सकता है यह सर्व विज्ञ सर्व मान्य है । यहां मूल निवासियों को गम्भीरता से मनन करना होगा कि जब वन विभाग/सरकार वनों का पारिस्थितिकी तंत्र बनाने में पूरी तरह से नाकाम रही हैं तब हिंसक आदमखोरों के संरक्षण का कठोर कानून बनाने के पीछे सरकार की मंशा है क्या?
सिर्फ पचास साल पहले तक हमारी सांस्कृतिक परंपरा में बाघों को मारने वाले लोगों को वीर कहा जाता था और सम्मानित स्थानों, सामाजिक स्थानों और समारोहों में इन वीरों को वह सम्मान मिलता था जिसके वे हकदार होते थे। हमारे पारम्परिक वीर आज कानून की धाराओं में अपराधी हैं और हम बाघों के आतंक से त्रस्त हो कर अपनी थात से भागने को विवश हैं। सावधान गांवों के मूल निवासियों सावधान।