November 23, 2024



नंदा के साथ यात्रा

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


हिमालय सदियों से पूरी दुनियाॅ के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है।


इसी हिमालय की खूबसूरत वादियों में यहाॅ की अधिष्ठात्री देवी नन्दा और देवों में महादेव शिव निवास करते हैं। महादेवी नन्दा और शिव को देवों में प्रतिनिधि देव होने का गौरव हासिल है। विशेषकर उत्तराखण्ड को इन्हीं रहस्यों,आध्यात्मिकता व कदम-कदम पर स्थित देवालयों के कारण देव भूमि के रूप् में जाना पहचाना जाता है। वैसे तो हिमालय की और आने वाले विश्व भर के पर्यटकों का यहाॅ आने के कई मकसद, उ़द्देश्य व इच्छायें होती है,कोई अध्ययन के लिए कोई रोमांच के लिए, कोई प्रकृति दर्शन, कोई अध्यात्म तो कोई हिमालय के गूढ़ रहस्यों को जानने समझने के लिए। दुनियाॅ के कई प्रसिद्व लेखकों, फोटोग्राफरों, कलाकारों, फिल्म निर्माताओं ने अपने-अपने तरीके से हिमालय को देखा है,उसे भोगा है और हिमालय की ख्याति को जन-जन तक पहॅुचाया है। हिमालय के इसी खूबसूरत हिस्से जिसे उत्तराखण्ड के नाम से जानते हैं, अनेकों रहस्यों, कहानियों को अपने आप में समेटे हुये है। विशेषकर नन्दा राज जात और रूपकुण्ड की कहानी व रहस्य एक दूसरे से गुॅथे हुए हैं। नन्दा राज जात-जन श्रुतियों के अनुसार हिमालय की ऐतिहासिक नन्दा राज जात का प्रारम्भिक आयोजन 9 वीं शताब्दी में राजा करकपाल के शासन में हुआ था, जिसकी शुरूआव उत्तराखण्ड के चमोली जनपद स्थित पंवार वंशीय राजाओं की राजधानी चाॅदपुर गढ़ी से हुई। चाॅदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप भगवान बद्रीनाथ के परम् उपासक थे, उनकी पुत्रियाॅ थी लेकिन पुत्र नहीं हो पाये, लिहाजा राजपाठ को आगे बढ़ाने की उनकी चिन्ता जायज थी। उन्हीं दिनों धार मालवा के पंवार वंशी राजकुमार कनकपाल बद्रीनाथ की यात्रा पर आये हुए थे। संयोग ऐसा बना कि भानुप्रताप की पुत्री से कनकपाल का विवाह हो गया, इसी के साथ भानुप्रताप ने अपना राजपाट भी राजकुमार कनकपाल को सौप दिया। कुछ समय पश्चात कनकपाल की एक पुत्री हुई जिसका नाम बड़े प्यार से नंदा रखा गया। कनकपाल ने शासन सत्ता को मजबूती दी व अपने भाईयों को भी चाॅदपुर गढ़ी के आस-पास बसा दिया। अपने छोटे भाई को उन्होंने काॅसुवा गाॅव की जागीर दे दी जहाॅ आज भी राजवंशी कॅुवर व उनकी पीढ़ी निवास करती है। वर्तमान नन्दा राजजात के आयोजन की जिम्मेदारी भी राजकॅुवर ही संभालते है, क्योकि पंवार राजवंश ने अपनी नयी राजधानी श्रीनगर गढ़वाल बना दी थी लिहाजा राजजात की जिम्मेदारी राजवंशी कुॅवरों को सौंप दी गई थी। 9 वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई नन्दा राज जात हर बारह वर्ष के अन्तराल में होती रही है ऐसी मान्यता है। 1804 में गोरखा आक्रमण व गोरखा शासन के दौरान राज जात यात्रा स्थगित रही लेकिन 1815 में ब्रिटिश शासन के साथ सिगोली की संधि के पश्चात गढ़वाल के राजा सुदर्शन साह पुनः अपना खोया राज्य वापस पा सके थे, उन्होंने पुनः नन्दा राज जात का आयोजन शुरू किया और इस प्रकार 1820, 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1987, 2000 व पुनः2014 में इस यात्रा का आयोजन किया गया। यह यात्रा 19 पड़ावों से होकर 280 कि0मी0 की यात्रा तय करती है।


राज जात क्यो?


विश्व प्रसिद्व नन्दा राज जात के आयोजन की पृष्ठभूमि में कई तरह की मान्यताये व कहाॅनियाॅ छुपी हुई है लेकिन सबसे प्रचलित कहानी के अनुसार चाॅदपुर गढ़ी गढ़ नरेश की पुत्री का विवाह कन्नौज के नरेश यशोधवल के साथ हुआ जिसका नाम राजकुमारी वल्लमा था। लोक गाथाओं में वल्लमा को हिमालय की ईष्ट देवी नन्दा की छोटी बहिन भी बताया जाता है। कन्नौज के महाराज यशोधवल अपनी महारानी वल्लमा पुत्र जडील व पुत्री जडीली के साथ सुख पूर्वक राज-पाठ का संचालन कर रहे थे। लोक कथा के अनुसार महादेव शिव रूपकुण्ड की शिखर चोटी त्रिशूली में लम्बे समय तक के लिए ध्यानावस्था में थे। शिव के एकान्तवास के कारण नन्दा ऊब गई व उसने विचरण करने का विचार किया। नन्दा अपने पुष्पक विमान से विचरण कर ही रही थी कि वह कन्नौज के आकाश मार्ग से होकर आगे बढ़ी, नन्दा को याद आया कि कन्नौज की महाॅरानी तो उन्हीं के इलाके की है लिहाजा नंदा का मन महारानी बल्लभा से मिलने को आतुर हो उठा। रानी बल्लभा ने अचानक आयी नन्दा से आने का कारण पूछा तो वह शसंकित हो उठी। नन्दा ने रानी बल्लभा को एक दिन के लिए कन्नौज का राज पाठ माॅगा जिसे रानी बल्लभा ने ठुकरा दिया। नन्दा को इसकी आशा बिल्कुल नहीं थी। कन्नौज पर नन्दा की नाराजगी की वजह से मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़। राज्य में अकाल, सूखा, बीमारियाॅ, अनावृष्टि होने लगी। राजपुरोहितों ने इसे नन्दा का शाप बताया व इसके उपाय स्वरूप नन्दा की पूजा,यात्रा व उसको मनाने के लिए प्रयास शुरू किये। महाराजा यशोधवल ने इस हेतु तत्कालीन चाॅदपुर गढ़ नरेश से इस पूजा यात्रा के कार्य हेतु सहयोग माॅगा। राजा यशोधवल अपने दल -बल के साथ नन्दा राज जात के लिए तैयार हो गया। राजा के पुत्र व पुत्री छोटी उम्र के थे लिहाजा यशोधवल ने महाॅरानी बल्लभा को कन्नौज में ही रहने के लिए कहा, लेकिन बल्लभा को अपने मायके की याद सताने लगी, वह रोयी व आख़िरकार उसे बच्चों सहित यात्रा में आने की अनुमति मिल गयी। यशोधवल बड़ी शानो शौकत वाला राजा था वह अपने राजषी ठाठ-बाट के साथ यात्रा में शामिल हुआ, उसने अपने राजपुरोहितों की बात को अनदेखा किया व सरल रूप से यात्रा पर जाने के बजाय तड़क-भड़क से गया। यशोधवल को नन्दा के हिमालय की पवित्रता, सौम्यता, सरलता, आध्यात्मिकता, का कतई भी ज्ञान नहीं था। जबकि देवी के दोष से मुक्त होने के लिए राजा यशोधवल का ओछापन ठीक नहीं था, लेकिन जब मति मारी जाती है तो अनहोनी निश्चित हो गयी थी। तय कार्यक्रम के अनुसार चाॅदपुर गढ़ी के राजा का दल वाण गाॅव में यशोधवल की अगवानी व स्वागत के लिए पहॅूच गया था। नन्दा की हिमालय की यात्रा की सुरुआत लोहाजंग व वाण गाॅव से ही प्रारम्भ होती है,  मान्यताओं के अनुसार वाण गाॅव से आगे की यात्राओं में महिलाओं को शामिल होने की प्रथा नहीं थी, जूते, चप्पल, विलासिता को यहीं त्यागना पड़ता था, लेकिन राजा यशोधवल एक के बाद एक गलती करता जा रहा था। प्रकृति की असीम सुन्दरता को देखते हुये उसमें भोग विलास की इच्छा भी जागृत होने लगी थी। उसके दल में नर्तकियाॅ भी शामिल थी। सुरा, शराब, शबाव सब अपने परवान पर था। वह गर्भवती यानि बल्लभा, नर्तकियाॅ को यात्रा पर ले जाने लगा उसे राजनुरोहितों ने काफी समझााया, परन्तु यशोधवल को नहीं समझना था और न वो समझाा। वह अपनी जिद पर अड़ा रहा, जात यात्रा प्रारम्भ हो गई। यात्रा सुन्दर भब्य मखमली बेदनी बुग्याल 3354 मी0 से ऊपर निरालीधार, स्थानीय भाषा में पातर नचैंणिया वैश्याओं का नृत्य स्थल 3550 मी0 पहॅूचकर प्रकृति की सुन्दरता अपने चरम पर थी। राजा यशोधवल ने यहाॅ नृत्य के आयोजन की घोषणा की। इस पर माॅ भगवती नन्दा रूष्ट हो गई, उसने तुरन्त सभी नर्तकियों को पत्थर की शिला में बदल दिया। इस पर भी राजा यशोधवल नहीं चेता। गर्भवती रानी को लेकर राजा की यात्रा आगे बढ़ गई, लेकिन इसी बीच रानी बल्लभा को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। दल में शामिल रानी की अनुभवी सेविकाओं ने गंगताली नामक गुफा में एक कन्या को जन्म दिया, पूरा क्षेत्र प्रसव हो जाने के सूतक दोष के चलते दूषित हो गया। फिर भी राजा ने अपने दल-बल को आगे बढ़़ने का आदेश दिया।यशोधवल का दल जब रूपकुण्ड के निकट ज्यूॅरागली मौत की गली 4620 मी0 से गुजर रहा था तभी माॅ नन्दा रूष्ट हो गई, अचानक ओलावृष्टि व जोरदार हिमपात हो गया, बर्फीले तूफान की चपेट में आकर यशोधवल व सारा दल मृत्यु को प्राप्त हो गया व सारे मृत शरीर रूपकुण्ड में एक विशाल ढ़ेर के रूप में जमा हो गये। जिसके प्रमाण स्वरूप् आज भी सैकड़ौ मानव अस्थियाॅ रूपकुण्ड में यथास्थिति में मिल जाते है।




रूपकुण्ड

नन्दा राज जात मूलतःबेटी की विदाई के मार्मिक आख्यानों से भरी पड़ी है। यह एक भावनात्मक यात्रा है। लेकिन रूपकुण्ड4501मी0 में आज भी पायी जाने वाली मानव अस्थियों के वैज्ञानिक निष्कर्षो पर अनेक मत प्रचलित है। इतिहास कार मानते हैं कि रूपकुण्ड में कन्नौज के राजा यशोधवल के दल में शामिल लोगों की ही अस्थियाॅ है लेकिन अनेक वैज्ञानिक मानते हैं कि इनमें हूॅण जाति जो कि तिब्बत के मूल निवासी थे उनकी भी अस्थियाॅ शामिल हैं। मानव वैज्ञानिकों के लिए तो रूपकुण्ड एक प्रयोगशाला की तरह है। मेरे प्रिय गुरू प्रसिद्व मानव विज्ञान विभाग हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर/ भूतपूर्व निदेशक, इन्दिरा गाॅधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल डा0 आर0एस0नेगी की ही प्रेरणा थी कि मैने रूपकुण्ड की दो बार यात्रायें की व काफी मटीरियल कल्चर, हड्डियाॅ व मानव वैज्ञानिक महत्व की वस्तुयें अपने विभाग के संग्रहालय में लाने में सफल हुआ। प्रो0 आर0एस0 नेगी स्वयं 57-58 वर्ष पूर्व लखनऊ विश्वविद्यालय के दल के साथ रूपकुण्ड का अध्ययन कर चुके थे, उस वक्त उन्हें 10 फीट लम्बे मानव कंकाल मिले थे। 11 सौ से 12 सौ वर्ष पुराने नर कंकालों की उम्र का पता लगाने की उस वक्त वैज्ञानिक विधि उपलब्ध नहीं थी लेकिन बाद में इन अस्थियों का डी0एन0ए0 विष्लेषण व रेडियो कार्बन अध्ययन से पता चला कि इन नर कंकालों की उम्र 650 वर्ष के आस-पास है। राजा यशोधवल के दल हुणियाॅ ब्यापारी जो इस रास्ते से होकर तिब्बत जाते थे, कश्मीर के सेनापति जोरावर सिंह व स्थानीय लोग जो आत्मघात के लिए ज्यूॅरागली से रूपकुण्ड में कूदकर मौत को गले लगा देते थे, ऐसी अनेक कहानियाॅ रूपकुण्ड से जुड़ी हुई हैं। एक बार जब नन्दा को प्यास लगी तो भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से याहॅ एक कुण्ड तैयार किया जिससे नन्दा ने न सिर्फ अपनी प्यास बुझायी बल्कि अपना सौन्दर्य भी निहारा जिसे देखकर वह स्वयं में सम्मोहित हो गयी थी, इसलिए भी इसे रूपकुण्ड कहा जाता है। अनेकों रहस्यों को समेटे रूपकुण्ड पूरी दुनियाॅ के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। यहाॅ अनेक लेखकों, घुमक्कड़ो, प्रकृति प्रेमियों, साहसिक यात्रा के शौकीनों, फोटोग्राफरों व फिल्मकारों ने आकर इस स्थान की अपने-अपने ढ़ंग से विवेचना की है। तो देर किस बात की है, तो आप भी चलिए  इस अनोखी यात्रा पर।

फ़ोटो सौजन्य – गूगल