November 23, 2024



देहरादून की नहरें

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विजय भट्ट


दून घाटी का प्राकृतिक सौन्दर्य सबका मन मोह लेता है। घाटी के उत्तर में मसूरी धनोल्टी कद्दूखाल काणाताल की पहाड़ियां हैं

जो हिमालय की निचली पर्वत श्रंखलाओं में आती है और दक्षिण में शिवालिक की पहाड़ियां हैं। इन पहाड़ियों में बरसने वाला पानी और जल के प्राकृतिक स्रोत इस घाटी में कई छोटी बड़ी नदियों को जन्म देती हैं। इनमं से कुछ बारहमासी नदियां हैं और कुछ बरसाती नदी नाले खाले हैं। उच्च हिमालय के ग्लेशियर से निकलने वाली उत्तर भारत की दो पवित्र नदियां भी इस जिले के दोनो छोर पर बहती हैं। देहरादून के पूर्वी छोर पर गोमुख से निकलने वाली गंगा नदी और पश्चिमी छोर पर यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना नदी बहती है। ये सभी पहाड़ियां, नदियां , जंगल, दून घाटी को प्राकृतिक वैभवता प्रदान करती हुई यहां की भूमि को हरा भरा और उपजाऊ बनाती हैं।
 
सन् 1815 में देहरा ब्रिटिश शासन के अधीन आ चुका था। ब्रितानिया हकूमत को राज काज चलाने के लिये राजस्व चाहिये था। उस समय दून में राजस्व का अधार खेती ही हो सकता था। खेती में मुनाफा बढ़ाने के लिये खेतों की सिंचाई का स्थाई इंतजाम करना जरूरी था जो काम तालाबों से नही हो सकता था। देहरा में उन्होंने रिस्पना राव से निकलने वाली प्राचीन राजपूर नहर को देख ही लिया था जो यहां के तालाबों में पानी भरती व बाग बगीचों को सींचती थी। इस नहर का पानी पीने के काम भी आता था। जिले के राजस्व को बढ़ाने के लिये यहां खेती को विकसित करना और खेती को प्रोत्साहन देने के लिये अनुदान की व्यवस्था करना जरूरी था। जो उन्होंने किया। पानी के प्राकृतिक स्रोत और नदियां तो यहां उपलब्ध थी ही लेकिन नहरों का निर्माण किये बिना इन नदियों के बहते पानी का इस्तेमाल खेती के लिये नही हो सकता था। यही कारण रहा कि 1823 में नहरें बनाने के लिये सर्वेक्षण का उत्तरदायित्व लेफिटीनेन्ट डेबुड को दिया गया। बाद में कर्नल यंग के प्रशासनिक काल के दौरान केप्टन थामस काॅटली को यह काम हस्तांतरित किया गया। थामस काॅटली एक उत्कृष्ट श्रेणी के इंजीनियर थे। रूड़की वाली गंग नहर भी इन्हीं की उपज थी। थामस काॅटली को बाद में सर की उपाघि से भी नवाजा गया था।
 
दून के पश्चिमी सीमा में बहने वाली जमुना नदी के किनारे स्थित कटापत्थर गांव से अंग्रेजों ने अपने समय की पहली नहर का निर्माण करवाया था। यह नहर कटा पत्थर से शुरू होती है इसी गांव के नाम पर इस नहर का नाम भी कटापत्थर नहर रखा गया। यह देहरादून की पहली ऐसी नहर है जिसमें उच्च हिमालयी ग्लेशियर से आने वाले यमुना नदी के पानी को नहर में डाला गया था। दून की शेष नहरें स्थानीय पहाड़ियों से निकलने वाली नदियों से शुरू होती हैं। कटापत्थर नहर का डिजाइन सर थामस काॅटली ने बनाया था जिस पर सन् 1840-41 में निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। यह नहर यमुना के पूर्वी भाग में अंबाड़ी सहसपुर सड़क के निचली तरफ और आसन नदी के उपरी भाग की भूमि को सींचती हुई हरा भरा बनाती है। इस नहर की छह उप शाखायें हैं। सन् 1896 की विनाशकारी बाढ़ मे इस नहर का हैड नष्ट हो गया था, नया हैड जमुना नदी से बिल्कुल सट कर बनाया गया था जो 1902 की दूसरी बाढ़ में बह गया। आज नहर का जो हैड है वह सन् 1903 में बनाया गया था जो मुख्य नदी से अच्छी खासी दूरी पर एक सुरक्षित स्थान पर बना है। यह एक खूबसूरत नहर है शुरूआत में जिसकी चैड़ाई लगभग दस पन्द्रह फुट है। इस पर सुरंग भी बनी हैं जहां से होकर अच्छा खासा पानी गुजरता है। लांघा से आने वाले बरसाती नदी पर यह नहर भूमिगत बनाई गयी है जहां पर नदी इस नहर के उपर बहती है। यह इंजीनियरिंग का खूबसूरत नमूना है।
 
कालसी आते जाते इस नहर को कई बार देखा तो था पर इस नहर के किनारे किनारे चल कर इसके हैड को देखने की इच्छा काफी दिनों से मन में थी। साथी इन्द्रेश नौटियाल से यहां चलने के बारे में कई बार बात हुई थी। आखिर 18 जून 2020 बृहस्पतिवार को वहां जाने का संयोग बन ही गया और हम बाईक से निकल पड़े कटा पत्थर नहर का हैड देखने के लिये। बरसात का मौसम भी बना हुआ था इसलिये साथ में बरसाती भी रख ली। देहरादून से लगभग 42 किलोमीटर की दूरी तय कर बाड़वाला के बाद कालसी की तरफ जाने वाली सड़क पर यमुना पुल से पहले इस नहर के दर्शन हो जाते हैं। यहां से उत्तर की तरफ मुड़कर नहर के किनारे किनारे तीन साढ़े तीन किलोमीटर तक पक्की सड़क है। बीच बीच में फास्ट फूड के रेस्तरां भी हैं जो आजकल कोरोना महामारी के चलते वीरान से पड़े हैं। आगें सिंचाई विभाग का एक पार्क है जो आजकल बंद है। बाईक को यहां खड़ा कर हम पैदल चल पडे़। कुछ ही समय में हम नहर के हैड पर पहुंच गये। कच्ची कूल सी बनाकर नदी के पानी को मोड़कर यहां तक लाया गया था। यह कूल नदी से एक निश्चित सी दूरी पर है।
 
हम यहां से आगे निकल गये। हमें तो वहां तक जाने की इच्छा थी जहां से नदी का पानी इस तरफ मोड़ा गया था। दो जगह नदी के छोटे पाट पार करने थे। चप्पल जूते वहां उतार कर रख दिये। आगे नंगे पांव चल पड़े। धूप से तपते पत्थरों पर पांव रखते तलुवे जलने का एहसास भी होता था साथ ही कांटे चुभने और पिकनिक मनाने वालों द्वारा फोड़ी गई बोतलों के टूटे कांच से पांव कटने का डर अलग से था। पता नही कि पिकनिक मनाने वाले अपने खाने पीने के सामान के बचे कचरे को अपने साथ वापिस क्यों नही लाते। खैर हम बचते बचाते चलते रहे। नदी में खूबसूरत रंगीन कई परतों वाले पत्थरों को अपने बैग में रखने का मोह हम नही छोड़ पा रहे थे। इसलिये पत्थर भी इकठ्ठे किये। आखिर हम अपनी मंजिल तक पहुंच ही गये। वहां के मनमोहन नजारे को देखकर मजा आ गया। एक चोड़ा सा झाल देखने में सुंदर लग रहा था तो इस नजारे को केमरे में तो कैद करना ही था। आटो मूड में केमरे को रखकर दोनों दे अपनी तस्वीर ली। फिर यहां से वापिस चल दिये। रास्ते में दो सज्जन मिले जिनके पास नदी की छोटी छोटी मछलियां थी उनसे भेंटस्वरूप मछलियां ले ली। अब इस मछलियों को बनाने का झंझट सामने आ गया। रास्ते में नहर के किनारे एक छोटे से फास्टफूड बनाने वाले से मछलियां बनाने का आग्रह किया जिसके लिये उस दुकान का नौजवान मालिक तोमर तैयार हो गया। जब तक वह मछली बना कर तैयार करता तब तक हम नहर में नहाने वाले बच्चों की कलाबाजियां देखकर अपने बचपन को याद करने लगे। कुछ ही समय में मछलियां बनकर तैयार हो गई। उस चटपुटी स्वादिष्ट मछली को खाकर हम वहां से चल दिये। आगला पडाव फतेहपुर में साथी रोशन मोर्य का घर था।
 
नहर के विषय में तथ्यात्क जानकारी का स्रोतः-’’वाल्टसन का गजेटियर आफ देहरादून’’
घुमक्क्ड- विजय भट्ट व इंन्द्रेश नौटियाल
 
लेखक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता है