उत्तराखंड में मलिन बस्ती नीति
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
उत्तराखंड में मलिन बस्ती अतिक्रमणों के लिए कोई नीति भी है कि या केवल राजनीति ही है। सपनों के उत्तराखंड को पाने के लिए मलिन बस्तियों के संदर्भ में क्या होना चाहिए इस पर सरकार को चेताने की जरूरत महसूस हो रही है।
सरकार न्यायालयों के निर्णयों को निष्प्रभावी करने के मुख्यतया वोट बैंक की अनिवार्यता के कारण नये नये तरीके ढूंढ रही है। ऐसे में नदी नालों के हित की बात क्या करना। परन्तु आम उत्तराखंडी व नेताओं को भी जो पहाड़ी मूल के हैं व उत्तराखंडी व उत्तराखंड आन्दोलन के भागीदार या दर्शक थे उन्हे स्वयं शांत भाव से निष्पक्ष होकर अपने से ही पूछना चाहिए कि पहाडों से भी तो मूल निवासी राज्य के महानगरों नगरों में आते होंगे, गांवों का खाली होना तो हो ही रहा है तो फिर क्यों नहीं देहरादून जैसे शहरों में अतिक्रमित जमीन पर बनी मलिन बस्तियों में बने घरों के मालिक दिखते हैं। इन बस्तियो में वे किरायेदार होंगे परन्तु मालिक बहुत ही कम होंगे। पहाड़ी दूरस्थ शहरों और कस्बों में भी अब अवैद्य मलिन बस्तियां बसने लगी हैं किन्तु यहां भी इन बस्तियों में मूल उत्तराखंडी शायद ही दिखे। ऐसी पहाड़ी या तराई की कस्बाई बस्तियों का भी वोट बैंक की राजनीति के चलते देर सबेर यदि नियमितिकरण हुआ तो उसका लाभ भी स्थानीय जन को कम ही मिलेगा। तो आत्म विश्लेषण से संदर्भित सवाल का जो भी जबाब आपको मिला होगा उसे अपने अंतरात्मा की आवाज मानें। अब अनुभव करें कि आप कैसा अनुभव करते है। ऐसे पैसे वाले भी हैं जो खुद तो मलिन बस्तियों में नहीं रहते हैं उनको जरूरत भी नहीं है किन्तु वे मलिन बस्तियों में भी जमीनों को कब्जाते हैं जिससे वे अपने कब्जे वा अवैद्य निर्माण दूसरों को सौंप कर कमाते हैं। यदि सरकारों के पास मलिन बस्तियों के लिए इतनी ही सरकारी जमीनों की अधिकता है कि उन्हे अवैद्य कब्जाधारियों को भेंट करने में कोई गुरेज नहीं है तो जो पहाड़ों के 400 से ज्यादा गांव भीषण खतरों के जर्द में होने के कारण वर्षों से पुनर्वासन के लिए चिन्हित किया गये है उनके वाशिन्दों को भी ऐसी ही शहरी सरकारी जमीन देने में क्यों नहीं सरकारी तत्परता दिखती है।
वर्तमान सरकार के नजरों में नगर निकाय व लोक सभा चुनाव में जहां जहां हो सके मलिन बस्तियों में वोट बैंक बनाना मुख्य लक्ष्य है। उदाहरण के लिए समाचार है कि इसी सितम्बर माह में रूद्रपुर में नजूल भूमि अतिक्रमण को हटाने के हाइकोर्ट के फेसले लागू करने के लिए सरकार के एक साल के समय की मांग को हाईकोर्ट के व्दारा अस्वीकार किये जाने के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाने का भी मन बना दिया था। इसके पहले भी जब हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका के निष्पादन के दौरान नदी किनारे आबंटन को रदद करने का आदेश दिया तो नदी किनारे अतिक्रमणों में बनी मलिन बस्तियों को बचाने के लिए त्रिवेन्द्र सरकार अध्यादेश तक ले आई है। हाई कोर्ट इन चालों को बहुत अच्छी तरह से जानता है। उसने परोक्ष रूप से इस पर एक अन्य वन भूमि अतिक्रमण के मामले पर आदेश देते हुए परोक्ष रूप से सरकार के अध्यादेश की राह अपनाने पर टिप्पणी भी की है। संभवतया 17 अगस्त 2018 को ही नैनीताल उच्च न्यायालय ने कहा था कि उच्च न्यायालय के लगातार के निर्देशों के बावजूद राज्य सरकार ने निर्माण अतिक्रमण को हटाकर राष्ट्रीय पार्कों में टाइगर और वन्य जीवों को बचाने संरक्षण के लिए तो कुछ नहीं किया किन्तु उन लोगों के संरक्षण के लिए आनन फानन में निर्णय ले लिए जिन्होने नदी किनारों व नदी तटों पर अतिक्रमण किया हुआ है । इशारा शायद अध्यादेश की ओर ही था।
चूकि नैनीताल हाईकांर्ट के सरकार को नदियों के किनारों के जमीन के सभी पट्टों को निरस्त करने के आदेश अभी भी बने हुए हैं,अतः अध्यादेश को चुनौती दी जा सकती है। इससे रिस्पना व बिंदाल जैसे नदियों के किनारे हुए निर्माणों पर भी असर पड़ेगा। असल में गलत शुरूआत तो सरकारों ने ही की है । नदी किनारे की जमीनों पर अस्थाई राजधानी देहरादून में भी कई सरकारी बड़े बड़े निर्माण हो चुके हैं। इससे नदी किनारे के कब्जे धारकों के भी हौसले बुलन्द हुए है। नेता लोग भी तब कई लोगों को सरकारी जमीन पर पटटे भी दिलवा देते हैं। यहां न भूलना होगा कि नदी किनारों के जमीन के खरीद फरोख्त पर कोर्ट की रोक लगी हुई है। तथ्य यह भी है कि रिस्पना नदी को पुनर्जीवित करने की घोषणा करने वाली सरकर ने नदी किनारे की बस्तियों को खाली करवाने के लिए पहले स्वयं ही फरवरी 2018 में लाल निशान लगवा दिये थे। वह अब उनकी अनदेखी कर रही है। 2008 के रिस्पना व बिंदाल के नदी किनारे के सर्वे में ही लगभग पांच हजार अवैद्य निर्माणों की पहचान हुई थी। आज यह संख्या कई गुणा हो गई है। रिस्पना नदी को पुनर्जीवित करने उसके किनारों के विकास करने के नाम पर तथाकथित अध्ययन भ्रमण टूरों पर अब तक लाखें रूपयों की बर्बादी हो चुकी है। ऐसे खर्चे राज्य भाजपा व कांग्रेस सरकार के दौरान भी हुए थे। ऐसे लोगों को आत्मग्लानी तो होनी ही चाहिए कि उन्होने यह सब जानते हुए भी कि वोट बैंक के चलते मलिन बस्तियों को नदी किनारे से हटाना संभव नहीं है अपने भ्रमणों में जनता के धन को बर्बाद किया। स्वयं सरकारों ने जो कानून बनाये थे और उनके नियमित करण के जो तारीख की व अन्य शर्तें लगाईं थी उसके अनुसार भी 129 से ज्यदा देहरादून की मलिन बस्तियों में से कुछेक का ही नियमितीकरण हो सकता था।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि सितम्बर 2017 के सरकार ने रिसपना नदी को पुनर्जीवित करने को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताया था। इस स्वप्निल परियोजना को जमीन पर उतारने के लिए जब अवैद्य अतिकमणों पर लाल निशान लगाये गये थे उस समय भी जनता के आरोप थे कि फलाने फलाने नेता ने प्रधान ने उन्हे पटटे दिलवाये हैं ।अवैद्य बस्तियों वाले भी जानते हैं कि वोट बैंक के तौर पर ही नेताओं के सामने उनकी कीमत है। अतः इस अध्यादेश के बाद भी वे संशकित ही हैं। उसी वक्त जगह जगह कहा जाने लगा था कि ये सब तोड़ फोड़ नगर निगम चुनावों और बाद के सन्निकट लोकसभा चुनावों के कारण रोके गये हैं। देहरादून की बद से बदतर होती स्थितियों से चिन्तित नागरिक इस अघ्यादेश को उच्च न्यायालय में चुनौती देने को तैयार हैं। इस 20 सितम्बर 2018 को नैनीताल उच्च न्यायालय परिसर से मुझसे बात करते हुए मैड संस्था अविजित नेगी ने कि बताया कि वहां वह सरकार के अध्यादेश को चुनौती देने के लिए पहुंचे हैं व इसके लिए संकल्पबध्द हैं किन्तु दिक्कत यह आ रही है कि अध्यादेश उस दिन तक भी वैधानिक सार्वजनिक प्रकाशित दस्तावेज नहीं है। अतः तब की तारीख में उसे चुनौती देना संभव नहीं हो रहा है। जिस अघ्यादेश के 20 सितम्बर तक पब्लिक डोमेन में न होने की बात की जा रही थी उसे नैनीताल हाईकोर्ट के सरकारी जमीन से अतिक्रमण को हटाने का आदेश के परिपेक्ष में मलिन बस्तियों को बचाने के लिए 27 जुलाई 2018 को त्रिवेन्द्र सरकार ले आई थी। अब वह एक कदम आगे बढ़कर उनको बचाने के लिए मलिन बस्ती एक्ट बनाना चाहती है। हालांकि कांग्रेस ने भी मलिन बस्ती ऐक्ट बना दिया था। भाजपा का कहना है कि कांग्रेस का एक्ट कमजोर है इसलिए वह नया एक्ट बना रही है।
कांग्रेस तो अवैद्य मलिन बस्तियों को तात्कालिक ध्वस्तीकरण से बचाने के लिए सरकार से एक कदम और आगे ही दिखना चाहती है वह तो नदी किनारे कब्जों पर काबिजों को स्थाई मालिक बनाने की बात कर रही है। यह तो परोक्ष रूप से इसकी वकालत करनी हुई कि नदी तटों को भी कब्जा मुक्त न करो।यदि वोट बैंक के लिए यही सब दलीय नेताओं को करना था तो युवाओं विद्यार्थियों को साथ लेकर उनसे कूड़ा उठवा कर रिस्पना को पुनर्जीवित करने के बड़े बड़े बयानों को देने फोटो शूट करवाने के क्या औचित्य था। क्या उन्हे कहीं ग्लानिबोध नहीं हो रहा है। राजनैतिक लाभ लेने के लिए ऐसा नहीं है कि कांगेस ही सरकार के अध्यादेश को अपर्याप्त मान रही है। प्रेमनगर बाजार भी जब अवैद्य अतिक्रमण हटाने के बाद ध्वस्त सा हो गया तो सत्तापक्ष के लोगों ने ही जिसमें विधायक भी थे अपनी ही सरकार से सवाल कर डाला था कि देश के विभाजन के बाद शरणार्थी होकर जो लोग यहां आये और तब से ही यहां रह व्यवसाय कर रहे थे उनकी सम्पतियों को अतिक्रमण मान जोर जबरदस्ती ढहाने पर तो सरकार कोई विधेयक नहीं लाई किन्तु उत्तराखंड निर्माण के बाद या जरा सा पहले पनपी अवैद्य बस्तियों के अतिक्रमण को उच्च न्यायालय के आदेश के अनुपालन के क्रम में घ्वस्त होने से बचाने के लिए सरकार आनन फानन में अध्यादेश ले आई थी।ये सरकार की कौन सी नीति है।
निस्संदेह अवैद्य मलिन बस्तियों के संदर्भ में समस्या इसलिए भी बढी दिखती है कि यहां अमुमन मकान मालिकों के परिवारिक सदस्यों की संख्या से कई गुणा उसके किरायेदारों का संख्या होती हैं ।लगभग अमानवीय स्थितियों में एक एक कमरे में कई लोग रहते हैं। शौच पानी खाने बनाने तक की सुविधा नहीं रहती है।यदि केवल यही तर्क हो किमलिन बस्ती में मकान बनाने वाले ने मजबूरी में सिर छुपाने के लिए कच्ची पक्की छत व कमरे खड़े कर दिये का तो फिर ऐसा कैसे होता है कि ये मजबूरी में छत खड़ा करने वाले परिवार की जरूरतो को नजरअन्दाज करके किरायेदारों की भीड़ अपने घरों में जमा कर लेते हैं।यही नही अतिक्रमण के आवासों या दुकानों में रहने वाले भी पगड़ी सा पुनर्वासन योजना का फायदा उठा लेते हैं। इस बार ही अवैद्य बस्तियों के संदर्भ में देहरादून नगर निगम में नये प्रस्तावित आवासों के आंबटन के लिए हुए पंजीकरण के दौरान यह सब देखा जा सकता है।
इसमें कोई दो राय नहीं जरूरत है कि सरकारें ऐसी व्यवस्था करे जहां कामगार घ्याड़ी मजदूर सस्ते में मानवीय हालातों में रह सकें ।यह तो मलिन बस्तियों की समस्या का यह राजनैतिक करण ही होगा कि हम रह रह कर मकान मालिकों के भवन ले दे कर नियमित करते रहें और मूल कारण में न जायें। सस्ती जमीन और सस्ती किरायेदारी आर्थिक दृष्टि से कमजोरों के लिए करनी ही होगी। राज्य बनने के बाद अन्तराल तक मलिन बस्तियों का फेलाव हुआ है। प्रदेश में लगभग 600 मलिन बस्तियां हैं। पिछले सालों के अवलेखों या सैटेलाइट नक्शों की मदद लेकर जहां तक हो सके समयवार हुए अतिक्रमणों को पहचान कर व चिन्हित कर उन अधिकारियों कर्मचारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी शुरू की जानी चाहिए जिनके कार्यकाल में सम्बधित अतिक्रमण व सरकारी जमीनों पर कब्जे हुए हैं। समाचार है कि यूसेक ने कुछ इसी तरह के देहरादून के अतिक्रमण के विवरण प्रासंगिक एक सरकारी इकाई को सौंप भी दिये हैं।देखा जाना बाकी है कि अधिकारियों पर कब दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है। न्यायालय भी यही चाहते हैं। यदि मूल राज्य में वोटरं की जांच हो। इसका सख्ती से पालन हो कि वहां बिना नाम कटाये कोई यहां वोटर न बन सके या फर्जी पहचान पत्र राशन कार्ड आदि न बनवा सके तो भी वोट बैंक की राजनीति कम होगी।
अंततः हमें यह न भूलना होगा कि सभी मलिन बस्तियां अतिक्रमित क्षेत्र में नहीं होती हैं। जो अतिक्रमित क्षेत्र में हैं उनमें मुख्य मसला अतिक्रमण हटाना होता है। चर्चा में तो वे अवैद्य होने व तोड़ फोड़ से आती हैं। अन्यथा वे एक दिन में तो नहीं बन सकती हैं। सालों साल से लोग बसे होते हैं । वे वहां रहते ही नहीं हैं । काम धन्धे भी करते हैं । निस्संदेह वे अपनी बेदखली का तो विरोध करेंगे ही। ज्यादा दण्ड के भागी तो वे राजनेता व सक्षम अधिकारी हैं जिन्होने इन अवैद्या कार्यों को होना संभव बनाया। हर बार कहा जाता है कि नियमितिकरण की फलां फलां तिथि के बाद की बस्ती का नियतिकरण नहीं होगा। किन्तु फिर बस्तियां बस जाती हैं। अतिक्रमण यदि वास्तव में सिध्द है व उसे सालों साल होने दिया गया है तो सत्ता पक्ष या विपक्ष सबको उन्हे हटवाना मुश्किल हो जाता है।
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली वरिष्ठ पत्रकार व पर्वतीय चिन्तक हैं.