November 23, 2024



वसुंधरा – उत्तराखंड की आधुनिक तीलू रौतेली

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वेद विलास 


क्यों कोई वसुंधरा बने इस उत्तराखंड में, उसने तीलू रौतेली के गांव गुराड़ में ले जाकर थियेटर खडा किया ।


वीरांगना तीलू का इतिहास मंचन करके बताया। कलाकार भी भारतीय नाट्य अकादमी या बडे मंचो से नहीं जुटाए। बल्कि तीलू के लिए तीलू के गांव के आसपास से लोगों को पहले पास बिठाकर तीलू होने का मतलब समझाया , फिर रंगमच की जानकारी दी फिर उनको तालीम दी। फिर रंगमंच किया। और यह इतना आसान कब गांव के बच्चे तालीम में नहीं आए। कब क्या दिक्कत हो जाए। बस लेकिन ठान लिया तो ठान लिया। तीलू रौतेली को साकार करना हैै। पर अखबार के संपादकों को इससे क्या मतलब। उनका विज्ञापन इस तीलू से कहां आता। नेताजी ने बेटे की शादी के बाद देवी की पूजा करने की तीन कालम फोटो छापने वाले अखबार के लिए किसी लडकी का गांव में जाकर तीलू का मंचन करना खबर नहीं है। तीलू रौतेली को उत्तराखंड की रानी लक्ष्मीबाई क्यों कहते हो। तीलू ने अपने राज्य के लिए मर्दाना वेश में जो किया उसे लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लड़ते हुए कुछ सदी के बाद दोहराया। जब तक जिद नहीं होती तब तक ऐसे काम भी नहीं होते। आखिर पंडाल लोगों से भर गया तो पेडों पर चढकर लोगों ने इस मंचन को देखा। पर आप कल्पना करेंगे कि यह मंचन की खबर उत्तराखंड के अखबारों में नहीं दिखी। संभव है कहीं एक दो जगह। याद होगा आपको संस्कतकर्मी दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक बडे नाट्यकर्मी राजेंद्र धस्माना के निधन की खबर भी इन्होंने उत्तराखंड के समाज को नहीं दी। फेसबुक से इस तरह की घटनाओं का पता लगता है। बहुत कुछ बुना वसुंधरा ने। बहुत – सा संघर्ष। आप सोच रहे होंगे वसुंधरा इस मंचन को करके बहुत खुश है। उसे मन का चाहा मिल गया। गांव में अपनी कोशिश से इस मंचन ने उसे संतोष मिला, लेकिन मन उसका उदास है। हताश है। वह चुपके चुपके सुंबक रही है। अखबारों की मीडिया की निष्ठुरता ने उसे रुला दिया है।


उत्तराखंड में पत्रकारिता के लिए अब इन थियेटरों मंचनों की कोई अहमियत नहीं। तीलू का पता नहीं तो तीलू के मंचन की कौन परवाह करे। होने को तो पिछले एक दशक से दिख रहा था कि किसी भी सांस्कृतिक आयोजन की बस पांच छह पंक्तियां। मंत्रमुग्ध कर दिया, झूम कर नाचे लोग, कलाकारों ने मन मोह लिया। लेकिन अब तो इतना भी नहीं। तीलू रौतेली के इस मंचन को राज्य भर से सराहना मिलनी चाहिए थी। वसुंधरा जिसके पति बीमार हैं एक बच्चे की परवऱिश भी करनी है, आय का कोई छोटा बडा अलग जरिया नही। लेकिन उसकी जिद् उत्तराखंड की लोककला और रंगमंच को स्थापित करना है। सराहना कैसे मिले जब मीडिया इस लोकउत्सव को बताने को ही तैयार नहीं। कुछ ब्लाग और फेसबुक न होता तो रंगमंच की हर अऩुभूति गांव में ही खोकर रह जाती। और सबसे निराश हुए उत्तराखंड के वे छोटे छोटे कलाकार जो तीलू रौतेली के मंचन में पहली बार थियेटर आर्टिंस्ट बने। शायद कहीं अखबार में नाम आ जाए शायद कोई फोटो आ जाए। स्वंय उनका न सही तीलू रौतेली मंचन का।

मगर वसुंधरा से क्या कहें ,आज का मीडिया कला ममर्ज्ञ दूरदर्शन के महानिदेशक प्रसिद्ध रंगकर्मी राजेंद्र धस्माना के निधन पर उनके लिए दो शब्द नहीं प्रकाशित करता है, ज्यादातर चैनल दून तराई मैदान के नेताओं के बयानों से बाहर नहीं निकल पा रहे । फिर चौंदकौट के उस गांव आने के लिए कौन जद्दोजहद करता। धन्यवाद दो उन बलागरो को , जो रह रह कर याद दिला रहे हैं कि इस देश में एक पहाडी क्षेत्र भी है जो उत्तराखंड का हिस्सा है। लेकिन तुम रुकना नहीं ठहरना नहीं, । रंगमंच की यह भूमिका भी तुम्हारे लिए हैं। तुम्हारी ही तरह कुमाऊं में भी एक अलबेला सा पिथौरागढ में रहता है, रंगमंच को हर दिन सजाता , हर दिन एक सुंदर सा सपना देखना उसकी आदत हो गई है। प्रशंसा के हकदार वो लोग, संस्थाएं भी हैं, जो इस गांव में इस मंचन को देखने पहुंचे।


किसी को हो न हो हमें पूरा विश्वास है आप लोगों के सपने जरूर पूरा होंगे। ये उत्तराखंड हैं यहां रंगमंच लोकमंच की विधा बंगाल महाराष्ट्र से भी पहले चली आई है। लालटेन के जमाने में रंगमंच खेले गए। लालटेन भी न रही तो भरी दोपहरी में फसल कटी खेतों में रंगमंच खेले गए। उस परंपरा को आप लोग सहेज रहे हो। तुम्हारा प्रयास व्यर्थ नहीं होगा। उत्तराखंड में यह विधा भी चमकती दिखेगी। पर्वतारोहण, क्रिकेट निशानेबाजी हाकी साहित्य लोककविता लोक संगीत जैसी विधाओं के साथ साथ रगमंच भी शिखर पर होगा। वसुंधरा नींव की ईंट को तब लोग महत्व जानेंगे।

वरिष्ठ पत्रकार