यात्रा मध्यमहेश्वर – 2
अरुण कुकसाल
‘इस समय बज रहे हैं बारह, घड़ी में भी और हमारे मुंह पर भी’ 14 जुलाई, 2018, ‘भाई, यह मकान तो नीचे से लटक गया है और आप इस पर नया रंग-रोगन कर रहे हो’।
‘ठेकेदार ने हमसे जो कहा, वही हम कर रहे हैं’ उन दो में से एक बोला। कौन करा रहा है, ये काम। पता नहीं साहब, सरकारी है। तीखी चढ़ाई की इस धार पर पहाड़ का एक बड़ा हिस्सा नीचे के रास्ते तक धंस गया है। हमारी बात इसी भूस्खलन के ऊपरी छोर पर बने नये सरकारी भवन के बावत बात हो रही है। ‘नीचे की तरफ अगर जल्दी पुस्ता न लगा तो यह भवन गिर ही जायेगा। सरकारी काम ऐसे ही होते हैं’ चलते – चलते भूपेन्द्र का कहना है।
बणतोली के बाद का पहला पड़ाव खंडारा चट्टी (समुद्रतल से 2000 मीटर ऊंचाई) सामने है। लम्बी चढ़ाई चढ़ते हुए, जब पहले से तय हुई बैठने की जगह दिखने लगती है, तो चाल को तेज करने के लिए कितना ही जोर लगा लो पर थका शरीर आगे बढ़ने में साथ नहीं देता है। ‘आती क्या खंड़ाला’ भूपेन्द्र पस्त उमाशंकर को देखकर कहता है। ‘आ तो मैं गया हूं पर वापस जाऊंगा कैसे’ ? खंडारा चट्टी में पहाड़ की यह धार समतल फैलाव लिए है। बैठी हुई बकरी की तरह। गौंदार गांव के फते सिंह पंवार यहां आथित्य भाव लिए हमारी तरफ मुखा़तिब हैं। सीजन के 6 माह अपने सभी जानवरों के साथ वे यहीं रहते हैं। वे होटल के साथ घी का व्यवसाय भी करते हैं। ‘एक सीजन में कितना कमा लेते हो, भाई’ मैने पूछा। ‘कमाना क्या साब, पचास हजार रुपयों तक की बचत हो ही जाती है।’ दूध का पक्क (फुल) लम्बा गिलास देते हुए फतेसिंह बोला भी और मुस्कराया भी। फतेसिंह के सुपुत्र हैं संदीप सिंह, अगस्तमुनि से बीए कर रहे हैं। सीजन में अपनी पढ़ाई की किताबों के साथ पिताजी का हाथ बांटने आये हैं। सेना में भर्ती होने के लिए उन्होने ‘यूथ फाउडेशन’ का तीन माह का कोर्स भी पूरा कर लिया है। उनका मिलेट्रीकट हेयर स्टाइल रखने का कारण भी यही है। संदीप बताते हैं कि कर्नल अजय कोठियाल द्वारा संचालित ‘यूथ फाउडेशन’ की मदद से सालभर में इस इलाके के 20 लड़के मिलेट्री में भर्ती हो गए हैं।
खंडारा में जंगलात विभाग की चौकी है। वन उपजों की देखभाल उसका जिम्मा है। इस साल 28 मई से मध्यमहेश्वर आने-जाने वाले लोगों की इन्ट्री भी यहां होने लगी है। तैनात कर्मचारी हरि सिंह का कहना है कि मई-जून में 50 से 60 तो आजकल 15 से 20 लोग मध्यमहेश्वर आ-जा रहे हैं। खंडारा चट्टी से आगे का रास्ता और तीखी चढ़ाई वाला हो गया है। अब तक तो रास्ते के लम्बे-लम्बे घूम थे। पर अब तो खड़ी सीढ़ी चढ़ने वाला रास्ता दिख रहा है। रास्ते के किनारे बैठी बालिका मोबाइल पर झुकी है। ‘नेटवर्क आ रहा क्या’ मेरी जिज्ञासा हुई। ‘नहीं अंकलजी पुरानी पोस्ट पढ़ रही हूं’। एक अधखुली कोर्स की किताब भी उसके पास है। वह रुचि पंवार है और 12 वीं में ऊखीमठ में पढ़ती है। वह भी सीजन में घर की मदद में खंडारा आयी है। पूछा ‘आगे क्या करोगी’ ? मिलेट्री या फिर और फोर्स में जाने की तैयारी कर रही हूं। ‘वाह, अगर वहां नहीं जा पायी तो’। ‘फिर मैं टीचर बनूगीं। ‘पहाड़ी बच्चे फिजीकली फिट होते हैं, बस थोड़ी उन्हें ट्रैनिंग देने की जरूरत है’ सीताराम भी बातचीत में शामिल होते हैं। बालिका रुचि ने सामने के ढ़ाल पर जानवरों को चरने छोड़ा है। हमसे बात भले ही वह कर रही है, पर नजर उसकी अपने पशुओं पर भी है। कहीं उसकी बकरियां दूर और ढंगार (खाई) न चले जांए। वैसे चरते जानवरों से आगे उसका झबरा कु्त्ता पहरेदारी में मुस्तैदी से तैनात है।
अगली चट्टी आयी है, नानू। नानू जगह ऐसे लग रही है जैसे इस पहाड़ का बेवजह पेट बाहर आ गया हो। सामने लिखा है ‘नानू- रांसी से 11 किमी. और गौंडार से 5 किमी., समुद्रतल से ऊंचाई 2350 मीटर’। ‘परफैक्ट जानकारी, ऐसा ही सभी पड़ावों में लिखा हो तो कितना अच्छा हो। भाई लोगों, अभी तक रांसी से चलकर हम 11 किमी. आ चुके हैं। सुबह के छः बजे चलना शुरू किया था और इस समय बज रहे हैं बारह, घड़ी में भी और हमारे मुंह पर भी’ भूपेन्द्र आज पूरे फाम में है। बिशम्बर सिंह पंवार अपनी धर्मपत्नी आशा पंवार के साथ नानू में रेस्ट हाउस चलाते हैं। तकरीबन, 25 लोगों की रहने और खाने-पीने की सुविधा है, उनके पास। फिलहाल, मेरे साथ के भक्त लोगों की मैगी खाने की डिमाण्ड है। बिशम्बर ने बताया सामने वाले घने जंगल का नाम बिसूड़ी है। इसके ऊपरी चोटी की तलहटी में बिसूड़ी ताल है। जहां से निकले कई गधेरे और झरनों का इकसार शोर जंगल की नीरवता को भंग करते हुए यहां तक सुनाई और दिखाई दे रहा हैं। अचानक बिसूड़ी जंगल से फटाक की आवाज ने हमको चौंका दिया है। बिशम्बर ने कहा कि किसी जानवर ने कोई बड़ा पत्थर गिराया होगा। पर अनुभवी जुगराण जी ने कहा ‘जरूर शिकारी की करामात से किसी जानवर का काम तमाम हो गया है’। प्रतिक्रिया में बिशम्बर मुस्करा भर दिया है।
बिसूड़ी जंगल के एक हिस्से में कई देर से घनघोर बारिश हो रही है। ‘अब वही बारिश इधर भी होगी,’ बिशम्बर का कहना है। वाकई, नानू से चलने को हुये तो जैसे बारिश ने कहा चलो मैं भी साथ चलती हूं। अब बारिश पर हमारा क्या वश, चलो तुम भी चलो, मेरा क्या। तुम अपने रस्ते और हम अपने रस्ते। वैसे भी, दोपहर की उमस में हल्की बारिश हमारे लिए फायदेमंद ही है। पर कोई भी बात और चीज तब तक ही अच्छी लगती है, जब तक वह हमारे मन-मुताबिक हो। बारिश ने जैसे ही अपना असल रंग-रूप दिखाना शुरू किया, लगा कि हे भगवान, नानू चट्टी मैं ही क्यों न रुक गए, हम। अब पीछे जा नहीं सकते और आगे चलने में मूसलाधार बारिश की बौछारें हमसे लड़ने के मूड़ में हैं। ‘साथियों, हिम्मते मर्दां, विकल्प न हो तो संकल्प ही मनोबल बड़ाता है, इसलिए चलते चलो’। ये बात साथ चल रहे मित्रों ने सुनी हो या न सुनी हो परन्तु बादलों ने भयंकर गड़गड़ाहट करके मेरी इस बात को खुली चुनौती दे दी है। कहीं कोई ओट भी नहीं है कि उसकी शरण ले लें। पैरों से आती फच-फच और सिर पर बारिश की दणमण ही बस साथ-साथ चल रही है। मित्र लोग बीच-बीच में ‘जय मध्यमहेश्वर’ बोलकर अपना डर, खीज और थकान को बाहर फेंक रहे हैं। पर इससे कुछ होने वाला नहीं है, ये वो भी जानते हैं। ऊपर वाले रास्ते की धार पर एक उड्यार (बड़े पत्थर से बनी गुफा) नजर आया है। है तो वो काफी दूर, पर वहां तक पहुंचना तो है ही। नागदेवता सा फन फैलाया उड्यार बचपन में स्कूली किताब में कृष्ण भगवान को भरी बारिश ले जाते बासुदेवजी वाले चित्र जैसे लग रहा है। भाई बादलों, तुम खूब बरस लो, पर ये गड़गड़ाहट करके हमको डराओ मत। बारिश और बादलों की गर्जना से कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल फिर याद आने लगे हैं। मित्रों, तुम्हारी थकान मिटाने के लिए चन्द्रकुंवर की इसी घाटी पर लिखी कविता सुनाता हूं। आप लोगों को ऐतराज तो नहीं है। होगा भी तो कौन से आप चुप होने वाले हैं, चलो सुनाओ, जैसा भाव मैं सबके चेहरे पर ताड़ गया हूं। मंदाकिनी घाटी के आस-पास के मिजाज़ पर कवि चंद्रकुंवर और उनकी कविता आज फिर प्रासंगिक हो रहे हैं, तो मैं क्यों न गाऊं-
मेघ गरजा
घोर नभ में मेघ गरजा !
गिरी वर्षा
प्रलय-रव से गिरी वर्षा !
तोड़ शैलों के शिखर
बहा कर धारें प्रखर !
ले हजारों घने धुंधले निर्झरों को
कह रही है वह नदी से
उठ अरी उठ !
कई जन्मों के लिए
तू आज भर जा
मेघ गरजा !
मित्रों ने इस कविता पर न वाह ! की और आह ! की, निष्ठुरता से आगे चलने के लिए उठ खड़े हो गए हैं कि कहीं मैं दूसरी कविता न सुनाने लग जाऊं। मैं उनसे कहता हूं कि, आप लोग यात्री या पर्यटक हो सकते हो पर एक सच्चे घुम्मकड़ अभी नहीं हो। यात्री आस्था से, पर्यटक सुख-सुविधा से और शोधार्थी अपने विषय से बंधकर चलायमान होता है। एक घुम्मकड़ ही है जिस पर आस्था, सुख-सुविधा और ज्ञान का दबाव नहीं होता है। घुम्मकड़ तो जहां है, जैसा है, उसी में रम कर, उसके जैसा ही बनकर परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त करता है। इसलिए मित्रों, घुमक्कड़ी शौक नहीं साधना है। मेरे इस लम्बे वक्तव्य का यही असर हुआ कि मैं आगे चलने में सबसे काफी पीछे छूट गया हूं।
नानू के बाद आयी है मैंखम्बा चट्टी। सामने के पहाड़ अब छोटे लगने लगे हैं। नीचे की पूरी धाटी कोहरे की गिरफ्त में है तो आसमान में काले-घने बादलों का डेरा अभी छटा नहीं है। मैंखम्बा चट्टी (समुद्रतल से 6000 फीट ऊंचाई) में श्रीमती रंगोली पंवार अकेले ही एक छोटे से रेस्टहाउस को चलाती हैं। उनके पति की 10 साल पहले मृत्यु हो गई तो ये जिम्मेदारी उन पर आ गई। साथ में जानवरों के खर्क (जानवरों का अस्थाई निवास) को भी वो संभालती है। आजकल बिटिया अंकिता पवांर भी मां को मदद देने के लिए साथ है। अंकिता ने विद्यापीठ, गुप्तकाशी से आयुर्वेद में डिप्लोमा किया है और अब वो जाब की तलाश में है।
मैंखम्बा से मध्यमहेश्वर 4 किमी. दूर है। बिगड़ा मौसम इसकी इजाज़त दे नहीं रहा है, कि हम आगे चलें। पर आज मध्यमहेश्वर जाना तो है ही। बारिश की रुमुक-झुमुक मैंखम्बा से 1 किमी. दूर कनू चट्टी (समुद्रतल से 2780 मीटर ऊंचाई) में जाकर थम सी गई है। यहां से मध्यमहेश्वर 3 किमी. है। मध्यमहेश्वर जाने का यह अतिंम पड़ाव है। रास्ते के ऊपरी ओर ‘शिखर प्रिंस होटल’ हिन्दी और बंगाली में लिखा है। महेश पंवार अपनी धर्मपत्नी सीता पंवार के साथ इसका संचालन करते हैं। ‘आगे रास्ता कैसा है ? उमाशंकर नैनवाल ने पूछा। ‘वैसा ही है जैसा आप अपने मन में सोचो, बस चढ़ते जाना है।’ महेश पंवार का जबाब है। कनू चट्टी के आगे जंगल और घना है। बारिश की लुका-छुपी अभी रूकी नहीं है। बादलों की गर्जना संकेत दे रही है कि तेज बारिश के आसार हैं। भूपेन्द्र और उमाशंकर रास्ते की एक धार पर थकान से तस्त्र होकर चित्त लेट गए हैं। उन्होने ऐलान कर दिया है कि वे आगे नहीं जायेंगे। मेरा कहना है कि आगे तो जाना ही है, चाहे रो के चलो या हंस के, ये तुम्हारी मर्जी।
यात्रा के साथी- भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, उमाशंकर नैनवाल और राकेश जुगराण.
यात्रा जारी है………
डॉ. अरुण कुकसाल