यात्रा मध्यमहेश्वर – 1
अरुण कुकसाल
‘वन, टू, थ्री, तुम भी फ्री, हम भी फ्री, इसलिए चलो.
13 जुलाई, 2018, मंदाकिनी नदी के बांये छोर से सटे हुए बांसवाड़ा, भीरी, काकड़ागाड़ और उसके बाद कुण्ड गांवों को वर्षों से किसी बांध के लिए और उधड़ता हुआ देखने का मैं आदी हो गया हूं। हमेशा की तरह यहां से गुजरते हुए आज भी चंद्रकुंवर बर्त्वाल की मंदाकिनी के प्रवाह पर लिखी कविता यादों में मेरे साथ-साथ चल रही है-
नदी चली जायेगी,
यह न कभी ठहरेगी,
उठ जाएगी शोभा,
रोके यह न रुकेगी…
इसी मंदाकिनी घाटी के मालकोटी गांव में जन्में हिन्दी के यशस्वी कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल ने सन् 1940 के आस-पास यह कविता लिखी होगी। मुझे तहस-नहस होती मंदाकिनी को देखकर लगता है कि कवि चंद्रकुंवर की कविता को मंदाकिनी में ही दफ्न किया जा रहा है। कुंड से मंदाकिनी पार गुप्तकाशी और सीधी आगे वाली सड़क ऊखीमठ की ओर है। आमने-सामने के पहाड़ पर बसे गुप्तकाशी और ऊखीमठ अक्सर एक दूसरे के प्रतिबिम्ब से लगते हैं। ऊखीमठ में शिवजी ओंकारेश्वर के रूप में विराजमान हैं। शीतकाल में मध्यमहेश्वर की यात्रा बंद होने पर उनकी पूजा यहीं की जाती है।
ऊखीमठ के बाद हैं पाली थापली, मनसूना, गैड़, रावलेट, उनियाणा और उसके बाद रांसी गांव। सड़क के आजू-बाजू प्लास्टिक की कुर्सी पर निढ़ाल और अलसाये पुरुषों को देखकर उमाशंकर नैनवाल का कहना है कि ‘जैसे ये कुर्सियां इन्हीं के लिए बनी हो’। महिलायें ही घर-बाहर के कामों में चलती-फिरती दिखाई दे रही हैं। मौसम की धूप-छांव दोपहर बाद से सिमटने को है। तेज बारिश का अंदेशा है। कोशिश है कि बारिश से पहले रांसी गांव पहुंच जांय पर अनजानी सड़क पर और तेज-और तेज करके तो गाड़ी नहीं दौड़ाई जा सकती है।
‘राणा होटल’ रांसी, प्रो. श्री दिलीप सिंह राणा, फिर यही सूचना बंगाली भाषा में भी लिखी है। ‘कमरा तो मिल जायेगा पर आप लोग पीते-खाते तो नहीं हो, मल्लब, दारू नहीं चलेगी, खुल्ला बोलना ठीक रहता है, बाद में किच-किच मेरे को पंसद नहीं, साब। राणाजी ने जिस अंदाज में ये बोला, वो देखने लायक था। ‘हमारी ओर से निश्चिंत रहिए आप’ जुगराणजी भरोसा दिलाते हैं। ‘डीएम साब ने सख्ताई कर रखी है, सीधे खबर उनके मुबैल पर चली जाती है। लेने के देने पड़ जाते हैं, साब। देखा नहीं आपने, रुद्रप्रयाग के गधेरे को डीएम खुद साफ कर रहे थे, किसी ने कहा कि साब, आप रहने दो हम कर लेंगे, तो भड़क गए ऐसा है तो पैले क्यों नहीं किया आपने, गधेरा साफ, ऐसे ही अधिकारी हो जांए साब तो उत्तराखंड सुधर जाए एक ही दिन में, फिर नेताओं की क्या जरूरत है यहां, नेता लोग तो बोझ है बोझ।’ राणाजी का धाराप्रवाह बोलना आगे भी जारी है।
14 जुलाई, 2018, ‘आज मौसम पैदल चलने के लिए बिल्कुल ठीक है, हल्के बादल हैं, इसलिए घाम नहीं होगा और बारिश शाम को ही आयेगी तब तक आप मध्यमहेश्वर पहुंच जायेंगे’ सुबह की चाय देते हुए राणाजी फरमाते हैं। रांसी पहाड़ की धार का गांव है, परन्तु उसका फैलाव समतल घाटी जैसा है। बकौल राणाजी रांसी गांव में राकेश्वरी देवी (पार्वती) का प्राचीन मंदिर है। राणा, नेगी और बिष्ट लोगों के इस गांव में वर्तमान में 150 परिवार हैं, जिनकी कुल आबादी 800 के करीब है। खेती-बाड़ी और पशुपालन मुख्य पेशा है। प्रत्येक परिवार से कोई न कोई सेना में अवश्य है। गांव में सड़क आयी पर रोजगार कुछ बड़ा नहीं। नतीजन, इसी सड़क से लोग देहरादून और अन्य मैदानी शहरों की ओर सरकने लगे हैं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से इन 18 सालों में 28 परिवार यहां से पूरी तरह पलायन करके देहरादून जा बसे हैं। ये प्रवृत्ति बड़ती जा रही है। ‘सरकार मदद नहीं करती और गांव के युवा पुश्तैनी काम में मेहनत नहीं करना चाहते। हमने भी क्या करना तब, जिन्दगी भौत कट गयी थोड़ी बची है, वो भी कट ही जायेगी। आगे की आगे वाले ही जाने।’ राणाजी सुबह के नाश्ते के साथ और भी कई बातें हमें परोसते जा रहे हैं।
मोटर रोड़ रांसी से आगे 1 किमी. दूर तक गई है। उसके बाद वन विभाग का लफड़ा हो गया, तो लटक गई सड़क। यह सड़क 6 किमी. आगे गौंडार गांव तक बननी थी। परन्तु केदारनाथ वन्य सैंचुरी क्षेत्र होने के कारण आगे नहीं बड़ पायी। रांसी से गौंडार गांव तक 4 किमी. उतार और 2 किमी. सीधा रास्ता है। धीरे-धीरे घना होता जंगल और जगह-जगह पर गधेरों के स्वींसाट (शोर) का तालमेल अभी हमारे चलते कदमों के साथ हुआ नहीं है। खच्चरों की एक लम्बी पंक्ति खनखनाते हुए रांसी की ओर आ रही है। पहाड़ से चिपककर ही उनको रास्ता दिया जा सकता है। खच्चरों के साथ आने वाले सज्जन से रामा-रामी जो हुई तो भाई, गले ही पड़ गया है। हाथ पकड़कर बोला ‘वन, टू, थ्री, तुम भी फ्री हम भी फ्री, इसलिए बैठो। हमें आगे के रास्ते का भूगोल समझाने लगा। वो चौखम्भा की चारों चोटी दिख रही हैं, उसके थोड़ा नीचे ही मध्यमहेश्वर है। ‘किधर को’ मैंने पूछा तो बोला आपको दूसरे तरीके से बताता हूं। भाई साहब आप खड़े हो जाइए। मैं सकपकाते खड़ा हुआ तो मेरे सिर पर छोटा पत्थर का टुकड़ा रखकर बोला अब आप नजर सीधे सामने के पहाड पर रखें और अपनी मुंडी धीरे-धीरे पीछे करिये, बस, जैसे ही पत्थर गिरने लगे, सामने मध्यमहेश्वर नज़र आयेगा। हे भगवान, बस यही बोल पाया, मैं। आगे के रास्ते में आने वाले वणतोली गांव के ये शिवसिंह पंवार है, वहां इनका होटल है। तुरन्त मोबाइल निकाल कर हमारे खाने की व्यवस्था करने लगा, पर नेटवर्क नहीं होने से काम नहीं बन पाया।
उतार के बाद अब सीधे रास्ते में हम हैं। दायीं ओर मधु गंगा बह रही है। मधु गंगा आगे चलकर कुण्ड में मंदाकिनी नदी में मिल जाती है। गौंडार गांव आने वाला है। चलते-चलते मुझे ध्यान आ रहा है कि ‘गौंदार की रात’ साहित्यकार अशोक कण्डवाल का एक कविता संग्रह है। मोबाइल पर इस किताब को सर्च करना चाहा पर नेटवर्क गायब। रासीं से गौंदार गांव जाते हुए रास्ते का पहला घर और दुकान रमेश पंवार की है। सभी यहीं पर लमलेट हो गए हैं। अब तो खा-पी कर ही यहां से चलना होगा। खाने का आर्डर देना सीताराम बहुगुणा का अधिकार क्षेत्र है। सवति की भुज्जी (हरी सब्जी), कोदे की रोटी, पहाड़ी घी, सिलौटे का नमक और छांछ। भाई लोगों की बांछे ही खिल गई हैं। मैने देखा कि दुकान की छत के एक कोने में लटकी डलिया में दो मोबाइल रखे हैं। पूछा तो पता चला कि बस इसी 6 इंची जगह पर नेटवर्क आता है और कहीं नहीं। वाकई, कुर्सी पर सीधे चढ़कर अपना मोबाइल रखा तो लगा धड़घड़ाने। अब मोबाइल पर अशोक कण्डवाल जी का कविता संग्रह ‘गौंदार की रात’ और उनके छोटे भाई, मित्र दिनेश कण्डवाल की पिछले साल जून की मध्यमहेश्वर यात्रा मेरे सामने थी। गजब का संयोग देखिए कि मध्यमहेश्वर यात्रा में अशोक कण्डवाल सन् 1995 में और दिनेश कण्डवाल वर्ष 2017 में इन्हीं रमेश पंवार का आथित्य ग्रहण कर चुके थे।
मध्यमहेश्वर यात्रा में गौंडार आखिरी गांव है। इसके आगे की बसावत केवल यात्रा के दौरान ही रहती है। गौंडार में पवांर जाति के 50 परिवार है, जिनकी आबादी 350 के करीब है। रांसी की तरह यह भी अपने में आत्मनिर्भर गांव है। परन्तु सड़क सुविधा न होने के कारण सबसे ज्यादा स्वास्थ्य और शिक्षा की असुविधा से तस्त्र है। सड़क न बनने का गुस्सा हर ग्रामीण को है। रमेश का कहना है कि ‘आलवेदर रोड़ के लिए तो हजारों पेड़ रातों-रात कट गए और हमको पर्यावरण बचाओ का जिम्मा थोप दिया गया है। जरा कुछ दिन तो इस गांव में आकर हमारे जैसा जी कर दिखाओ ओ दिल्ली वालों। तुम्हारा पर्यावरण बचाओ का नारा हवा हो जायेगा।’
गौंडार से अब हमारे साथ चैन्नई से आये रविकुमार भी हैं। युवा आईटी इन्जीनियर रवि की मंशा अकेले ही पांचों केदार भ्रमण करने की है। वो मध्यमहेश्वर जाकर आज ही वापस रांसी आ जायेंगे और कल वहां से रुद्रनाथ के लिए रवाना होंगे। ‘अच्छा मैं तेज चलता’ कहकर रवि आगे दौड़ता नजऱ आ रहा है। कहने को हम पहाड़ी, यहीं के रहने वाले और सोच रहे हैं कि किसी तरह शाम तक कैसे मध्यमहेश्वर पहुंचेगे और अगला चैन्नई का भाई आज ही वहां जाकर वापस रांसी पहुंचने का प्रण लेकर चल रहा है।
गौंडार गांव से 1 किमी. आगे सीधे रास्ते चलकर वणतोली (समुद्रतल से 5500 फीट की ऊंचाई) पहुंचे हैं। वनतोली में मधु गंगा और मोरखंडा नदी का संगम स्थल है। मध्यमहेश्वर के ऊपर नंदी कुंड से मधुगंगा जन्म लेती है। मोरखंडा नदी चौखम्बा की तलहटी से निकलती है। हमारे दायीं ओर मधुगंगा और बांयी ओर मोरखंडा नदी है। वनतोली से इन दोनों नदियों के बीच के पहाड़ की धार ही धार के रास्ते हमें अब सीधे 10 किमी. चढ़ते जाना है। इसमें कोई रियायत नहीं है। उतराई और सीधे रास्ते की कल्पना करते रहो, पर वो आयेगा नहीं। चढ़ाई चढ़ते हुए एक तरफ मोरखंडा तो दूसरी तरफ मधु गंगा दो अलग-अलग इलाकों से शोर मचाते तेजी से आ रहे पहलवानों जैसे लगते हैं। जिन्हें कुश्ती के लिए अब थोड़ी ही दूर संगम स्थल पर भिड़ना है। ऐसा भी लगता है कि मेरे बायें कान पर मोरखंडा और दायें कान पर मधुगंगा तीव्र शोर के साथ अपनी-अपनी बात को पहले कहने को आतुर हैं कि पहले मेरी बात सुनो। अब मेरी दिक्कत यह है कि मैं इनकी जो सुनूं या आगे बड़ गए साथियों के साथ चलूं।
कई लम्बे-लम्बे घुमावों के बाद यात्री शैड की बैंच दिखाई तो दे रही हैं पर वहां तक पहुंचना भी तो है। चलती धौंकनी की तरह तेजी से अंदर-बाहर होती सांसों के साथ साथी लोग बैंचों में जो पसरे तो जल्दी क्या ही उठेगें। रांसी, गौंडार, वनतोली, मधुगंगा, घने जंगलों और ऊंचे पहाड़ों से रिसने वाले झरनों के सफेद झाग के दृश्य अब हमसे कुछ नीचे ही दिख रहे हैं। मैं, साथियों को अपने मोबाइल पर कट-पेस्ट की गई अशोक कण्डवाल की ‘मध्यमहेश्वर यात्रा पड़ाव’ कविता जोर-जोर से सुनाना शुरू करता हूं। पर मेरी ओर मुंह फरका कर साथियों की बंद आखों और हल्की मुस्कान ने बता दिया कि उन्हें कविता सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है। खैर, चलो चंद लाइने आपको नजऱ करता हूं-
देर रात
पहाड़ की एक चोटी ने
पुकारा दूसरी चोटी को
और दोनों
एक दूसरे की ओर
झुक कर लगी बतियाने
क्या जाने, शायद
घिर-घिर आने वाले
काले मेघों की बातें
या कि आने वाले
हिमपात की चर्चा
तभी
एक तेज धारा
मध्यमहेश्वर गाड़ की
वहां पड़ी चट्टान पर
सिर अपना पटक-पटक
पछाड़ खाकर रोने लगी
धैर्य अपना
खोने लगी…
(अशोक कण्डवाल- कविता संग्रह, गौंदार की रात)
यात्रा के साथी- भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, उमाशंकर नैनवाल और राकेश जुगराण.
यात्रा जारी है…
अरुण कुकसाल
arunkuksal@gmail.com