उत्तराखंड – जो कुछ हो रहा है
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
उत्तराखंड बने अठारह साल होनेे जा रहें हैं। कहते हैं जब कोई दिशा तय हो तभी आप कह सकते हैं कि हम सही दिशा पर चल रहें हैं कि नहीं।
किन्तु जब दिशा ही तय न हो तो संकेतक भी हमैं बहुत मदद नहीं कर सकते हैं। आम उत्तराखंडी की तरह से हम पवित्र भाव से कहते रहे कि हमें सपनों का उत्तराखंड नहीं मिला किंतु माफियाआओं व बौनों की तो पौबारह हुई उनको तो सपनों का उत्तराखंड मिल गया। कुल मिला कर आज राज्य उन आंकांक्षाओं से बहुत दूर हो गया है जो अपना राज्य अपना शासन व अपनी प्राथमिकताओं को लेकर आम पहाड़ी जन आम आन्दोलनकारी के मन में पनप रहा था। उत्तराखंड को एक बहुत ही महत्वपूर्ण दायित्व भी निभाना था। वह था उस मौडल को जगजाहिर करना जिससे किसी पर्वतीय राज्य को बिना पहाड़ी व्यक्तित्व और प्रकृति के कृतित्व को धूल धूसरित किये हुए भी आगे बढ़ाया जा सकता है। प्रकृति व जन के प्रति हिंसक हुए बिना भी विकास के सोपानों पर चढ़ा जा सकता है। परन्तु इन संदर्भों में यहां से रैबार अच्छा नहीं गया।
दो महत्वपूर्ण टैग थे, हमारे पास देवभूमि के व पर्वतीय राज्य होने के। उ प्र से अधिकारिक रूप से हमें पहाड़ी राज्य बन राज्य पुनर्गठन में अस्तित्न मिला। इसी पहचान को लेकर हम अलग हुए थे। साजिश शुरूआत से ही रोपित हो गई थी – इस राज्य के पहाड़ी भूगोल व राजनीति को कमजोर करने की। जिन कर्मचारी अधिकारियों ने उ प्र में उत्तराखंड का विकल्प लिया उन्हे यहां आने पर पहाड़ों में रहना काला पानी का प्रवास लगने लगा। धड़ाधड़ सुगम क्षेत्रों में कैम्प कार्यालय बनने लगे स्थितियां बद से बदतर होती गईं और आज हम उस मुकाम पर पहुंच गये कि उच्च न्यायालय नैनीताल को भी कहना पड़ा था कि कैम्प कार्यालय बन्द हों। कमजोर राजनैतिक व्यक्तित्वों के कारण हमें दिल्ली राजनैतिक हाईकमाण्डों की सुर्पिदगी में डाल दिया गया। सरकार किसी भी दल के नेतृत्व की रही हो निरंतर मुख्यमंत्रियों केा लिए हेलीकोप्टर हाईकमाण्डों से निर्देश लेने उन्हे तीर्थधामों के कपाट खुलने या बंद होने के मौकों में निमंत्रण देने में लगे रहे। नतीजन पहाड़ धाटियां नदियां बिकती रहीं। किस परिवार को जमीन दिया जाना है किसको ठेका दिया जाना है किसके हेलीकोप्टर को उड़ने देना है किसको नही रेल पहाड़ों में चढ़ानी है कि उतारनी है चार या छ लेन की सड़कों की हमें जरूरत है की नहीं सब राज्य के बाहर तय किये जाने लगे। नतीजा वही हुआ जो होना था राज्य बनने के बाद भूस्खलन व आपदाओं के क्षेत्र बझ़े हैं, पुलों के ढहने की गति बढ़ी है, अतिक्रमणों की बाढ़ आई है, बाहर से यहां आकर अपराधियों का यहां अपराध करना बढ़ा है, सेक्स रैकेट जिसकी कल्पना यहां के मूल निवासियों ने कभी की ही नहीं थी उसकी बाढ़ आ गई है। इस क्रम में हमसे देवभूमि का टैग भी छूट गया है।
केदार आपदा के बाद स्थानीय जन के मुंह से यह भी सुनने को मिला कि तीर्थधामों में जो कुछ हो रहा था उसके बाद तो ऐसी ही प्रलय होनी थी। आज अपने ही राज्य में बचाओ आन्दोलनों की भरमार है। नदी बचाओ, गांव बचाओ, हिमालय बचाओ, घाटी बचाओ आदि आदि। यह सब तब है जब हर मुख्यमंत्री राज्य की जनता पर सैकड़ा पार करते दायित्व धारियों व सलाहकारों की फौज अपने लिए खड़ी करता है। राज्य को सेवानिवृत ब्यूरोक्रेत का पनाह गार बनाता है। दुखद यह है कि जो क्षेत्र देश में सामाजिक आन्दोलनों व सामाजिक नेतत्व में पहचान बनाये हुए है वहां राजनीति के अलावा दूसरे कार्य गौण हो गये हैं। राजनीति में भी राज्य में गौरव के नये प्रतिमान स्थापित करने के बजाये हम गिरे हैं। दल बदलूओं की राजनीति राज्य में स्थापित हो गई है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मुख्यमंत्री राज्य ने देख लिए हैं। विधान सभा के भीतर की हाथापाई भी चर्चा में आ चुकी है। मलेथा की माधेसिंह की उपजाऊ प्रेरणा दसयक भूमि को माफियों को कोर्ट आदेश के बावजूद देने में न पुरानी सरकार ने कोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाते हुए देने में परहेज किया है। जब अपने परिवारियों पत्नियों को सुगम से दुर्गम भेजने की बात आती है तो जीरो टौलरेन्स के हीरो जीरो हो जाते हैं।
मैं और मेरे जैसे कई लोग या तो पैदल चलते हैं या सार्वजनिक वाहनों का उपयोग पसन्द करले हैं वो जानते हैं विक्रमों और सिटी बसों में कुछ नहीं बदला। चाहें तो मंत्रीगण विधायक व रसूक वाले नेता सार्वजनिक वाहनों में यात्रा कर स्वयं देख लें। विक्रम तीन तीन सवारियों की स्वीकृत सीटों पर बिना चार सवारियों को बिठाये आगे बढ़ता ही नहीं। अच्छे ढील ढौल वाली सवारियों का तो बैठना ही मुश्किल हो जाता है। चैराहेां पर खड़ा हर जिम्मेदार अधिकारी भी यह देख सकता है। सिटी बसों में तो टिकट शायद ही आपको मिले। देहरादून वासी तो इसके अभ्यस्त हो गये हैं, परन्तु पर्यटकों को असहज होते देखा जा सकता है। पर्यावरण बचाना है तो हमें सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहतर करनी होगी। अन्यथा छोटी गाड़ियों की भीड़ कई समस्यायें हमें देने वाली है। बीते साड़े सतरह सालों का सफर आज राजनीति के चलते हमें जिस स्थिति में ले आया है वह वेदना दायक है । राजनीति के विकल्प से ज्यादा हर दल में राजनीतिज्ञों के विकल्प की जरूरत है जो यदि जनता चाहे तो संभव है ।
ये लेखक के विचार हैं