श्रीनगर से रानीखेत वाया देघाट
अरुण कुकसाल
यादें तो यादें है, उनका क्या, वो तो आयेंगी ही, सुभाष चौक के पास बनी पार्किंग की ओर मुड़ते ही आनंद बेलवाल सामने अपनी रिश्तेदारी वाली चाय की दुकान के बाहर खड़ा मुस्करा रहा है।
तपाक से उससे जोे गले मिलना हुआ तो तीस साल बाद की मुलाकात का अतंराल न जाने कहां छूमंतर हो गया। चल यार, तेरी इसी दुकान से कालेज के दिनों वाली एक गिलास की दो हाफ चाय पीते हैं। अरे, तेरे को अभी तक याद है, आंनद हंसता है। सुभाष चौक पर नरेन्द्र रौतेला, गोविंद पंत, महेश पांडे, राजेन्द्र बिष्ट, हरीश साह, विमल सती और भी मित्रों का जमघट सजने लगा है। बताता चलूं कि ‘28वां उमेश डोभाल स्मृति समारोह’ रानीखेत में भाग लिए ये मित्र लोग आये हैं। (ज्ञातव्य है कि मार्च, 1988 को पत्रकार उमेश डोभाल की पौड़ी में शराब के कारोबारियों ने हत्या कर दी थी। तब हत्यारों को सजा दिलाने हेतु देश भर में आंदोलन हुए थे। उमेश डोभाल को याद करते हुए वर्ष 1991 से लगातार हर साल 25 मार्च को विविध विधाओं के रचनाकर्मी निर्धारित स्थल पर सम-सामायिक विषयों पर विचार-विर्मश के लिए एकत्रित होते हैं।)
सुभाष चौक से कार्यक्रम स्थल तक जलूस की शक्ल में जाना है। जलूस है तो फिर नारे भी लगने हैं पर शुरूवात कौन करे। बुर्जगियत का संकोच जवानी के जोशीले नारों को दुहराने से रोक रहा है। अनुसूया प्रसाद ‘घायल’ हममें अभी कमत्तर बुर्जग है, वही नारा बुलंद करता है, ‘उमेश डोभाल अमर रहे’, ‘उमेश डोभाल एक व्यक्ति नहीं, एक धारा थी एक धारा है’। प्रत्युत्तर में बाकी साथी नारे लगाते नहीं वरन बुदबुदाते हैं। अनुसूया के एकहरे नारों और कई लोगों की सामुहिक बुद-बुदी आवाज से राह चलते लोग थोड़ा ठिठकते जरूर हैं, पर उनकी चाल की गति पहले जैसी ही बनी रहती है। मेन बाजार के दोनों तरफ के दुकानों के आस-पास लोगों की सरसरी नजरों में ‘मामला क्या है’ को जानने भर तक की उत्सुकुता है। ‘उमेश डोभाल वाले पत्रकारों का जलूस है’ एक सज्जन ने साथ खड़े अपने मित्र को जानकारी दी है। जलूस के शराब की दुकान के पास से गुजरते ही मित्र अनुसूया ने नारा बुलंद किया ‘शराब माफिया हो बरबाद-हो बरबाद’, ‘शराब माफिया तेरी कब्र बनेगी, उत्तराखंड की धरती पर’। जलूसवासी मित्रगणों की नजरें ये नारा दोहराने के साथ-साथ शराब की दुकान के बाहर लटकी लिस्ट में ‘शराब के दामों में भारी कमी’ पर फिसलती हुई टिकने भी लगी हैं। ‘रात रुकने की पता नहीं कहां व्यवस्था है, फिर दुबारा इधर कौन आये, अभी व्यवस्था बना लेते हैं’ के विचार पर अमल करते हुए कुछ मित्र इधर-उधर होने लगे हैं। रानीखेत में गांधी चौक और सुभाष चौक के आपसी लगभग 100 मीटर की दूरी के ठीक मध्य में अंग्रेजी शराब की दुकान है। वैसे भी गांधी और सुभाष से बराबर दूरी बनाते हुए शराब की बिक्री उत्तराखंड सरकार के आय का प्रमुख जऱिया है। शराब के पैगों पर तो सरकार सरक रही है। वही उसका प्राण तत्व है। मार्च का महीना ढ़लकने को है और शराब से मिलने वाली धनराशि के वार्षिक लक्ष्य को हासिल न कर पाने से उपजी शिकन आजकल उत्तराखंड सरकार के चेहरे पर है।
रानीखेत नगर मुझे हर बार कड़े अनुशासन की परम्परा को निभाते हुए सावधान की मुद्रा में ही दिखाई देता है। जैसा वर्षों पहले वैसे ही आज भी ‘चुपचाप ताकता हुआ’ रानीखेत। छावनी परिषद् होने के कारण नये निर्माण कार्यों से वंचित इस नगर की नियति भी गमलों में उगते पेड़-पौंधों जैसी है जिनके सांस-प्राण मालिक की मर्जी ही है। बाजार की दुकानें वही चालीस साल पहले जैसे ही हैं, बस बदलाव उसमें काम करने वाले किरदारों में हुआ लगता है। मेन बाजार से खड़ी बाजार दिखा तो वहां की रामलीला की याद तुरंत आ गई है। जलूस में नये आने वाले मित्रों का समागम होता जा रहा है। नारों की जगह आपसी बातचीत में ही चलायमान जलूस कल के कार्यक्रम स्थल ‘होटल रतन पैलेस’ में विराम लेता है। रोड़वेज बस स्टेशन के ऊपरी छोर पर 30 साल पहले तक ‘नोवाल्टिक सिनेमा हाल’ था, वही अब ‘रतन पैलेस होटल’ है। वर्ष 1977-78 में केवल नई फिल्मों के पोस्टर देखने मैं और आनंद बेलवाल कई बार माल रोड से कालेज के बाद यहां आते थे। कभी-कभी हम पैसे की कमी चलते लोअर क्लास का एक टिकट लेकर हाफ टाइम तक एक देखता फिर हाफ टाइम के बाद दूसरा देखता। पिक्चर खत्म होने के बाद दोनों चल पड़ते घर जाने को चौबटिया की ओर। चलते-चलते इटंरबल से पहले देखने वाला पहले फिल्म की शुरुवाती कहानी सुनाता फिर दूसरा इंटरबल के बाद की। 15 पैसे की दो गोल्डन सिगरेट को एक-एक कर पीते हुए मजे से हमारा रानीखेत से चौबटिया का 10 किमी. का पैदल रास्ता कट जाता था।
25 मार्च, 2018 – समुद्रतल से लगभग 1835 मीटर ऊंचाई पर स्थित रानीखेत की बसावत बांज, बुरांस, चीड़ और देवदार के पेडों के आस-पास है। यहां से पंचचूली, नंदादेवी, चौखम्बा आदि हिमालयी चोटियां नजर आती हैं। रानीखेत का गोल्फ मैदान एशिया में सर्वोत्तम माना गया है। शताब्दियों पहले राजशाही के दौर में कुमाऊं के राजा-रानियों के आमोद-प्रमोद की मनपंसद जगह रानीखेत थी। रानीखेत नाम को इसी संदर्भ से जोड़ा जाता है। वाइसराय लार्ड मिंटो ने सन् 1869 में कुमाऊं रेजीमेंट का मुख्यालय रानीखेत में स्थापित करके इसे आधुनिक पहचान दी थी। वर्तमान में इस क्षेत्र में रानीखेत के अलावा 10 किमी. दूर चौबटिया (समुद्रतल से 2016 मीटर की ऊंचाई) में भी सैनिक छावनी है। अंग्रेजों की मनपंसद जगह होने के कारण रानीखेत में 9 विशाल चर्च बनाये गये थे। इसी कारण रानीखेत को तब ‘सिटी आॅफ चर्चेज़’ भी कहा जाता था। रानीखेत से अल्मोड़ा 50 किमी. और नैनीताल 60 किमी. पर स्थित है। अंग्रेजी राज में एक बार इसे शिमला के स्थान पर भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के प्रस्ताव पर विचार किया गया था। उत्तराखंड सरकार ने सन् 2012 में रानीखेत को जिला बनाने की घोषणा की थी पर वह सरकार की अन्य घोषणाओं की तरह हवाई फायर ही साबित हुई है।
जब आप हल्द्वानी-नैनीताल से रानीखेत आते हैं तो शुरूवात में ही पीडब्लूडी आफिस के नीचे की ओर एक खूबसूरत बंगला दिखता है। अब ये तो आप भी मानते हैं कि हमारे देश में खूबसूरती के साथ मजबूती भी होगी तो वो भवन अंग्रेजों ने ही बनाया होगा। हम भारतीय तो उनके बनाये भवनों को जितना बदसूरत कर सकते हैं उसमें कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसा ही यह बंगला कभी डाकबंगला हुआ करता था। आजादी के बाद यह जिला पंचायत का डाकबंगला रहा। फिर 1973 इसमें राजकीय महाविद्यालय बनाया गया, जहां मैं और आनंद बेलवाल 1977-78 के दौरान बीए के विद्यार्थी रहे थे। सन् 1980 में महाविद्यालय चिनियानौला में जाने के बाद से इसे राजकीय खाद्यान भंडार बनाया गया है। गेहूं-चावल की ठुंसी बोरियों के बीच हम अपनी अंग्रेजी-अर्थशास्त्र की कक्षाओं को ढूंड रहे हैं। देखकर मन उदास तो दिमाग अशांत।
मालरोड से चौबटिया की ओर 3 किमी. पर है, झूलादेवी मंदिर और उसके पास ऊपरी पहाड़ी पर है राम मंदिर। किवंदति है कि 13वीं सदी में एक चरवाहे ने इसी स्थल में झूले के पालने में देवी को प्रतिष्ठापित किया था। इसी कारण यह मंदिर झूलादेवी के नाम से विख्यात हुआ। मन की मुराद को पूरा होने पर घंटियां लगाने की यहां सदियों से प्रथा चली आ रही है। चालीस साल पहले चौबटिया क्षेत्र से कालेज आने और जाने वाले हम साथियों का इंतजार और मिलने का कभी यह मुख्य स्थल था। इसके तब के पुजारी बड़े भाई नारायण दत्त पंत की कवितायें सुन कर वाह-वाह करनी ही होती थी। मंदिर से चढ़ावे का प्रसाद खाने को जो मिलता था हमें। झूलादेवी से बांयी ओर की लिंक रोड़ पर 4 किमी. के बाद है आंनद का गांव भड़गांव। आंनद गांव की सड़क से ही अपने वीरान पुस्तैनी घर को सीताराम बहुगुणा को दिखाता है। भावों का उद्देग उसके चेहरे पर साफ नजर आता है। कभी सेब, आडू, प्लम के बागान इस गांव में थे। आज केवल भव्य भवनों की कतार नजर आती है। कभी देश-दुनिया में सेब के लिए मशहूर चौबटिया गार्डन अब बीते दिनों की बात हो गया है। उद्यान विकास को प्रमुख आर्थिकी मानने वाली उत्तराखंड सरकार इस उजड़े चमन को देखने का साहस करेगी भी कैसे ? हकीकत यही है कि सरकारी नालायकी ने हमारे परंपरागत हुनर और हौसले को रसातल ही पहुंचाया है।
रानीखेत के रतन पैलेस होटल में भाषणवीरों के भाषण जारी हैं। उनके तथ्य और तर्क बस उनके बोलने और हमारे सुनने तक ही प्रभावी और सीमित हैं। सार्वजनिक कार्यक्रम कोई-कैसा भी हो वह आयोजकों और दर्शकों/श्रोत्राओं के लिए शुरू होते ही खत्म होने के इंतजार में ही बीतता है। उसमें मित्रों का मिलना और साथ रहना-खाना ही महत्वपूर्ण और आनंददायी होता है। रतन पैलेस होटल के इस हाल को अभी भी मैं 40 साल पुराना नोवाल्टिक पिक्चर हाल ही मान रहा हूं। अचानक मुझे ध्यान आता है कि पहले जिस ओर पिक्चर हाल की बालकनी थी उसमें आज का स्टेज है और जिधर फिल्म का पर्दा था उस ओर हमारे पीठ है। अब समझ में आया कि समय अंतराल हमें कब-किस ओर बिठा दे ये वक्त ही जानता है।
यात्रा के साथी- अजय मोहन नेगी, सीताराम बहुगुणा और ललित मोहन कोठियाल