November 24, 2024



रानीखेत से श्रीनगर वाया गैरसैंण

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अरुण कुकसाल


गगास छिन आकाश, छिन पाताल, 26 मार्च, 2018 रानीखेत से श्रीनगर जाने के लिए भोर में ही निकल पड़े हैं।


रानीखेत के कई जिग़री दोस्तों से मिले बिना ये तो चुपचाप खिसकना जैसा हो गया। श्रीनगर जाने की जल्दी है पर इतनी भी नहीं कि रानीखेत का गोल्फ मैदान देखे बिना चल दें। रानीखत से 3 किमी. आगे है घिंघरियाखाल। रानीखेत का एक प्रवेश द्वार ये भी है। कभी यहां पर हर यात्री से टोल टैक्स वसूला जाता था। इस टोल से बचने के लिए कई तरह के उपाय और टोटके बस यात्री करते थे। घिंघिरियाखाल से बांये ओर नीचे वाली सड़क हमारी है, माने हमें उसी से गैरसैंण होते हुए श्रीनगर जाना है। घिंघरियाखाल से अल्मोड़ा वाली मुख्य सड़क पर मात्र 1 किमी. पर रानीखेत का गोल्फ मैदान है। यह दुनिया के बेहतरीन गोल्फ मैदानों में माना जाता है। ऐशिया का तो सिरमौर ठहरा। इस स्थल को कालिका कहा जाता है। ठंडी सुबह के साफ मौसम ने पूरे ढ़लवा मैदान की घास पर ओंस की बूंदी फैलाई हुई है। दिक्कत यह है कि चारों ओर से चीड़-देवदार से घिरे मील भर लम्बे-चौड़े मैदान को किस ओर से देखें। पर कमबख्त, जब से ये मोबाइल आया है हमको खुद देखने के आनंद से आनंदित होने से ज्यादा दूसरे को फोटो दिखाने की आत्ममुग्धता ने घेर लिया है। मोबाइल से खिंचे फोटो दूसरे तो क्या अपने आप ही कितना देख पाते हैं, इसे क्या छुपाना। मैदान में टहलते हुए कुछ ही देर हुई थी कि सामने से आती आवाज और हमारी ओर भागते ड्यूटी वाले सिपाही ने हमें एकदम झसका (डरा) दिया है। ‘ऐ सिविलियन, तुरंत बाहर भागो’। और अब हम ‘कहीं वो हमें गाड़ी सहित अंदर न कर दे’ का डर लिए तुरंत अपनी गाड़ी में बैठकर गंतव्य सड़क पर दौड़ रहे है।


घिंघरियाखाल से 4 किमी. उतार वाली सड़क का पहला गांव चकौनी है। यहां इस समय चाय-नाश्ते के दुकानदार अपनी प्रारंभिक तैयारी कर रही हैं। ‘वाह, हिमालय का सीन जबरदस्त है। चलो, नाश्ता यहीं कर लेते हैं। मैं नाश्ता करने के लालच में हिमालय की खूबसूरती का सहारा लेता हूं। ‘रात का बासी ही खिलायेंगे ये’ ललित की मुस्कान बता रही है कि वो मेरी सुबह-सुबह नाश्ते करने के आदत को ताड़ गया है। अब मैं ‘सफर में सब कुछ अपने मन का कहां होता है’, यही सोच रहा हूं। झूले की लम्बी-लम्बी पेगों की तरह इधर से उधर पहाड़ी ढ़लान पर सड़क पसरी है। सड़क से कुछ दूर छिटके गांवों के कुछ घर अपना बोरिया-बिस्तर लेकर जगह-जगह पर सड़क के ऊपर-नीचे आ गए हैं। दूर से ही गगास नदी के ऊपर बना पुल दिखने लगा है। गगास नदी दूनागिरि के भाटकोट पर्वत से निकल कर रास्ते में चंदास नदी और बलवागाड़ को साथ लेते हुए भिकियासैंण में पश्चिमी रामगंगा में मिल जाती है। गगास नदी के बारे में मशहूर है कि ‘गगास, छिन अकास, छिन पताल’ मतलब कि वो क्षण-क्षण बदलती रहती है। गढ़वाल की नयार की तरह बरसात में यह खूब मदमदाती है। गगास नामकरण का नाता गर्ग ऋषि से जोड़ा जाता है। गगास नदी को देख कर मुझे नैनीताल समाचार में वर्षों पहले छपी मित्र अशोक पाण्डे की एक कविता हमेशा याद आती है। आप भी लुफ्त लीजिए –

ओ गगास ! 
वड्सवर्थ के गांव की नदी की तरह, 
अगर तुम मेरी कविता का कालजयी हिस्सा न बन पाओ,
तो ओ मेरे गांव की नदी ! 
तुम मेरी कविता की सीमाओं को माफ कर देना.


गगास नदी पार करते ही चढ़ाई वाला रास्ता शुरू हो गया है। रानीखेत वाला पहाड़ अब हमारे बांयी ओर है। यहां से हमारी आखों में चौबटिया, रानीखेत, चिनियानौला, कालिका रेंज अलग-अलग टापूओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। रानीखेत से लगभग 15 किमी. उतरे है अब इतना ही चढ़कर द्वाराहाट पहुंचना है। कफड़ा गांव पास आया तो अचानक मनिला के पास वाला कफल्टा गांव याद आया। तल्ली मिरई, मल्ली मिरई और ड़डोली गांव के बाद द्वाराहाट नगर के दर्शन हुए हैं। शुरूवात में ही ‘द्वाराहाट समुद्रतल से 1674 मीटर की ऊंचाई’ वाला बोर्ड सड़क के किनारे स्वागत में खड़ा है। चीड़, देवदार, बांज, बुरांस और काफल के घने जंगलों के बीच बसा द्वाराहाट रानीखेत से 32 किमी. दूर है। मानसखंड में द्वाराहाट को हिमालय की द्वारिका कहा गया है। कत्यूरी राजाओं के कला प्रेम और धर्म निष्ठा के प्रतीक के रूप में उनके द्वारा बनाए गये 30 से अधिक मंदिरों का समूह यहां है। राहुल सांकृत्यायन ने द्वाराहाट के मंदिरों का निर्माण 11वीं सदी के आस-पास माना हैं। द्वाराहाट के मंदिरों में महामृत्युंजय और गूजर देव मंदिरों की विशिष्ट महत्व है। द्वाराहाट के उत्तर में 14 किमी. पर दूनागिरी पर्वत पर दूनागिरि देवी का मंदिर है। दूनागिरी वैष्णवी शक्तिपीठ है। दूनागिरी क्षेत्र में जंगली औषधियां की भरपूरता है।

द्वाराहाट के एक ओर खूबसूरत सोमेश्वर घाटी तो दूसरी और चौखुटिया क्षेत्र है। फिलहाल हमें द्वाराहाट से चौखुटिया की ओर जाना है। द्वाराहाट से चौखुटिया 18 किमी. है। उतराई का रास्ता फिर शुरू हुआ है। लम्बी-चैड़ी घाटी के दोनों ओर के खेतों में धान की पौधों की हरितिमा फैली हुई है। महाकालेश्वर के बाद है बसभीड़ा। बसभीड़ा में उस खेत के पास से हमारी गाड़ी बहुत धीमें गुजरती है जहां 3 फरवरी, 1983 को ‘उत्तराखंड संर्घष वाहिनी’ के सम्मेलन में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन की शुरूवात हुई थी। चौखुटिया माने चार खुटे (पैर) के बीच में फैला विस्तीर्ण क्षेत्र। चौखुटिया से रामनगर 128 किमी. है। इसी सड़क पर 13 किमी. पर मासी है, जहां का वैसाख में लगने वाला सोमनाथ मेला मशहूर है। कभी इसे ‘सल्टिया’ मेला भी कहा जाता था। इस मेले में रात भर झोड़ा, चांचरी, छपेली आदि नृत्य होते थे और दिन में प्रमुखतया पशुओं का व्यापार होता था। चौखुटिया बाजार का पुल पार करते ही गनाई (पुराना नाम गणाई) है। वैसे चौखुटिया-गनाई एक ही क्षेत्र है। प्राचीन कत्यूरी राजाओं का वैराट गढ़ गनाई के ही निकट था। कुमाऊं की प्रसिद्व प्रेमगाथा ‘राजुला मालूसाई’ का कथानक इसी वैराटगढ़ में जीवन्त हुआ था। गनाई के पास अग्नेरी देवी मंदिर राजुला और मालूसाई के प्रणय का प्रत्यक्षदर्शी माना जाता है। पश्चिमी रामगंगा के तट पर चैत की अष्टमी को अग्नेरी देवी का मेला मनाया जाता है। गनाई में अंग्रेजी जमाने का डाकबंगला है। कभी यह इलाका जबरदस्त खेती और घने जंगलों से भरपूर था।




चौखुटिया-गनाई से पश्चिमी रामगंगा का छोर छोड़ते हुए चैपलधार मंदिर के बगल में पानी के तीन धारे हैं। सुनसान रास्ते में चलते मुसाफिर और बहते पानी का सीधा रिश्ता होता है। छक कर पानी पिया, हाथ-मुंह छपौडे (रगड़ कर धोना) और आगे के लिए भी बोतलें लभालभ भर दी हैं। पास ही सड़क किनारे गड्डे खोदते भाई से पूछा कि आप कश्मीरी हैं क्या? उसको हां बोलने में थोड़ा वक्त लगा। अब्दुल है वह, हर साल जाड़ों के 5 महीने यहां काम पर आ जाते हैं। तकरीबन खा-पीकर 50 हजार कमा कर वापस चले जाते हैं वे। ये किस काम के लिए खोद रहे हो? मैने पूछा। पता नहीं जी हमें तो गड्डा खोदने कहा है, अब्दुल कहते हुए गैंती की एक जबरदस्त चोट खुदे खड्डे और मारता है। चौखुटिया घाटी अब सिमटती नजर आ रही है। चढ़ाई वाली सड़क के फेर छोटे होने लगे हैं।

चौखुटिया से 19 किमी. की सीधी चढ़ाई चल कर पंडुवाखाल पहुंचे हैं। कुमाऊं और गढ़वाल की सीमा पर पहाड़ की चोटी मेें पंडुवाखाल (समुद्रतल से ऊंचाई 1750 मीटर) बसा है। आधा कुमाऊं में और आधा गढ़वाल में है पंडुवाखाल। एक ही भवन के निचले तल पर सड़क किनारे की दो दुकानें दिखाई दे रही है। दांई ओर की ‘संगिला ऐजेन्सी’ कुमाऊं में और बांये ओर की ‘मोहित जनरल स्टोर’ गढ़वाल में है। कुमाऊं-गढ़वाल के आपसी दोस्ताना संबधों के प्रतीक के रूप में कुमाऊं की जमीन पर सीता राम बहुगुणा और गढ़वाल की जमीन पर ललित कोठियाल जी की हाथ मिलाते तस्वीर उतारता हूं। सड़क और दुकानों के आस-पास के लोगों को मैं ताली बजाने को कहता हूं। ‘आप भी गजब हैं’, ललित उवाच तो मैं कहता हूं ‘गजब’ नहीं भाई, ‘गज्जब’ कहो। मैं पास खड़े सज्जन से गैरसैंण राजधानी आंदोलन के बारे में पूछता हूं। ‘बन जाती तो ठीक ही होता’ इतने ठंडे तरीके से उन्होने बोला कि नहीं भी बनेगी तो क्या फरक पड़ना हम पर। पंडुवाखाल की धार (चोटी) वाली पर्वत श्रृखंला आगे धार-धार ग्वालदम की चोटियों तक जाती है। बताते हैं कि शताब्दियों पूर्व गढ़वाल और कुमाऊं राज्य में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इन चोटियों पर रात में अलाव जलाये जाते थे। अलाव की संख्या और आकार के आधार पर सूचनाओं के संकेतों को समझा जाता था।

पंडुवाखाल से अब हम गढ़वाल के चमोली जनपद की सरहद से आगे बढ़ रहे हैं। रास्ता उतराई का है। कुमाऊं की खुली, फैली और समतल घाटी की तुलना में गढ़वाल का यह इलाका बंद, संकरा और स्याह नजर आता है। भूगोल के साथ ही लोगों की लोक भाषा की लय-ताल में फर्क दिखने लगा है। पंडुवाखाल से मेहलचौंरी 7 किमी. है। मेहलचौंरी आने से पहले दुधातोली के लिए सड़क है। कभी यह गढ़वाल से कुमाऊं आने-जाने का पैदल राजपथ हुआ करता था। मेहलचौंरी पुल के पास से सीधे एक सड़क खनसर इलाके की ओर है। मेहलचौंरी पुल को पार करने ही यहां के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वर्गीय चंद्र सिंह ‘यायावर’ की याद आना स्वाभाविक है। दिल्ली में वर्ष 1987 को उच्च सरकारी पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद समाजसेवा की लगन लिए वे अपने गांव मेहलचौंरी आ गए थे। आदमी के जेहन में कुछ स्थलों की पहचान व्यक्ति या घटना विशेष से जुड़ी होती है। ऐसे ही मेरे लिए मेहलचौंरी माने चंद्रसिंह ‘यायावर’ है। मेहलचौंरी के बाद फरसौं, आगर चट्टी, सैंजी, धुनारघाट के बाद आया है लोकप्रिय और चर्चित नगर ‘गैरसैंण’। रानीखेत से गैरसैंण (समुद्रतल से 1313 मीटर ऊंचाई) 94 किमी. है।

दूधातोली वन रेंज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है गैरसैंण। पहले इसे गैड़सैंण कहते थे। गढ़वाल के प्राचीन गढ़ों में लोहबागढ़ इसी को कहा जाता था। बिट्रिश राज में ‘सिलकोट टी स्टेट’ यहां हुआ करती थी। वर्तमान में गैड़ गांव (लोहबा पट्टी) का सैंण वाला भाग गैरसैंण है। गैरसैंण के चारों ओर से बांज, बुरांस, अतीस, चीड़, देवदार के घने जंगल वन्यता, खेती और पशुपालन की सम्पन्नता को लिए हैं। पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा का यह भू-भाग एक साझी सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक है। गैरसैंण के निकट भराड़ीसैंण में विधान भवन बनाये गए हैं। आजकल विधानसभा सत्र के लिए तथाकथित माननीय यहां आये हैं। स्थानीय रामलीला मैदान में गैरसैंण को उत्तरखंड की स्थाई राजधानी बनाने के लिए आन्दोलनरत लोग धरने पर हैं। पर सरकार है कि अपने मुहं, आंख, कान बंद करके उनकी बात देखने- सुनने को राजी नहीं है। गैरसैंण से दिवालीखाल की ओर चले तो पता लगा कि आज के विधानसभा सत्र को हाफडे करके पूरी सरकार देहरादून की ओर फर्राटे मारते हुई उड़नछू हो गई है।

यात्रा के साथी- अजय मोहन नेगी, सीताराम बहुगुणा और ललित मोहन कोठियाल

arunkuksal@gmail.com