November 23, 2024



कोई स्कूल की घंटी बजा दे

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अरुण कुकसाल


‘कोई स्कूल की घंटी बजा दे, ये बच्चा मुस्कराना चाहता है।’ शकील जमाली की ये इक लाईन हमारे समाज में प्रचलित शिक्षा- तंत्र के ताने-बाने की हकीकत को सामने लाती है।


आजकल शिक्षा विशेषकर प्रारम्भिक शिक्षा पर सालाना मौसमी बहस जोरों पर है। जून के बाद जब स्कूल फिर खुलेगें तो ये बहसें अगले साल तक के लिए स्थगित हो जायेगीं। तब बच्चे, शिक्षक और अभिभावक फिर उसी पुरानी परिपाटी पर अपने-अपने ध्रुवों में झूमते और जूझते नजर आयेगें। परन्तु अपने प्रदेश में हर साल अप्रैल में होने वाले इन शैक्षिक विर्मशों में जो नया और प्रभावी दिख रहा है वो है 12वीं कक्षा तक एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें विद्यालयों में लागू कराना। पहली झलक में लगा कि अब ‘दून स्कूल’ एवं अन्य कान्वेंट स्कूलों में भी एनसीईआटी की पाठ्यपुस्तकें लागू होगीं। पर अपने वचनों और कामों में ‘चलो पलटाई’ में माहिर वर्तमान सरकार बहादुर ने बाद में इस घेरे में सीबीएसई पाठ्यक्रम वाले स्कूलों को ही लपेटने बात कही। यद्यपि अभी भी सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षा विभाग, उत्तराखंड की उपलब्धियों वाले तरोताजे विज्ञापन की पहली उपलब्धि में ‘प्रदेश में एनसीईआरटी की पुस्तकें सभी विद्यालयों में अनिवार्य’ की बात कही गयी है। इस तथ्य से तो इसी बात की पुष्टि होती है कि प्रदेश में स्थित कांवेट स्कूलों का यहां के समाज और सरकार से कोई सरोकार नहीं होता है।


बहरहाल, प्रदेश के शिक्षा तत्रं की गम्भीर हो गयी तबीयत को सुधारने के लिए बतौर प्राथमिक चिकित्सा के रूप में एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें सरकारी के साथ निजी विद्यालयों में लागू करने के प्रयास की तारीफ तो बनती है। यद्यपि इसमें बहुतेरे झौल और छिद्रों को यथावत रखा गया है। एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को सरकार किस सीमा और स्तर तक प्रदेश के विद्यालयों में लागू कर पायेगी ये इस बात पर निर्भर करेगा कि ये पुस्तकें सभी बच्चों को यथा समय पर मिल भी पायेगीं या नहीं। पूर्व के अनुभव तो यही बताते हैं कि जुलाई-अगस्त तक भी दुर्गम और दूरस्थ विद्यालय पाठ्यपुस्तक विहीन रहते हैं। विगत वर्षों में ज्यादातर सरकारी विद्यालय इससे प्रभावित होेते थे पर इस साल कई निजी विद्यालयों में भी ये हालत होगें तो किरकिरी सरकार की ही होगी। इस पक्ष पर सरकारी मशीनरी कितनी मुस्तैद रहती है, ये देखने वाली बात है। एनसीईआरटी देश में माध्यमिक शिक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए विषय विशेषज्ञों के माध्यम से पाठ्पुस्तकें विकसित कराने वाली शीर्ष संस्था है। वर्तमान में एनसीईआरटी की लागू पाठ्यपुस्तकें राष्ट्रीय पाठ्यचर्या-2005 के पांच मार्गदर्शक सिद्धान्तों के केन्द्र में तैयार की गई हैं। यथा-

1. ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ना।
2. पढ़ाई को रटन्त प्रणाली से मुक्त करना।
3. शिक्षा विद्यार्थी के बहुआयामी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक हो सके।
4. परीक्षा को कक्षा-कक्ष की गतिविधियों से जोड़ते हुए उसके स्वरूप को लचीला बनाना।
5. सामाजिक दायित्वशीलता के प्रति बच्चे में आस्था और विश्वास का भाव विकसित हो।


मूलतः एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें बच्चों को ‘याद करने’ के बजाय उनमें ‘समझ’ विकसित करने की ओर उन्मुख है। इन संदर्भों में वे निजी प्रकाशकों की विस्तृत विषय-वस्तु वाली जानकारी के स्थान पर अधिक गतिविधि परख पाठ्यपुस्तकें हैं। ये पुस्तकें शिक्षकों और विद्यार्थियों को सीखाने और सीखने की ज्यादा सुविधा और स्वाधीनता प्रदान करती हैं। ये पुस्तकें बच्चे के वर्तमान को जीवन्त रखते हुए उसके सुखद, सक्षम और जिम्मेदार भविष्य की राह की ओर इंगित करती है। इतना ही नहीं एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें निजी प्रकाशकों की पाठ्य पुस्तकों से सस्ती से भी सस्ती हैं। अतः वे स्कूली शिक्षा में निजी प्रकाशकों द्वारा पाठ्यपुस्तकों को ऊंचे दाम पर बेचने वाली लूट को रोकने में भी सक्षम हैं। एक महत्वपूर्ण बात एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के पक्ष में जाती है कि उनको समाज में शैक्षिक समानता का संवाहक बनाया जा सकता है। सरकारी और निजी स्कूलों में एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू होती हैं तो वे उनके मध्य गैर-बराबरी को कम करने के साथ ही सरकारी विद्यालयों को अपनी खोई साख पाने में मददगार हो सकती हैं।

एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को सभी विद्यालयों में लागू करने की पहल के मध्य एक तथ्य को बिल्कुल नजर अंदाज कर दिया गया है। बात यह है कि एनसीएफ-2005 के दिशा निर्देशों में स्पष्ट उल्लेख किया गया था कि एनसीएफ-2005 के आलोक में राज्य अपने स्थानीय परिवेश, आवश्यकता और संभावनाओं के अनुकूल प्रारम्भिक कक्षाओं का नवीन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें विकसित करेंगे। इसके लिए केन्द्र सरकार द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए आवश्यक बजट राशि भी प्रदान की गई थी। उत्तराखंड उन अग्रणी राज्यों में है जिसने एनसीएफ-2005 के दिशा-निर्देशों के अनुपालन में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं का नवीन पाठ्यक्रम तैयार किया। तत्पश्चात कक्षा 1 से 8 तक की सभी विषयों की 56 नवीन पाठ्यपुस्तकें विकसित की गई। एससीईआरटी, उत्तराखंड के संयोजन में देश-प्रदेश के लगभग 3 हजार शिक्षक, शैक्षिक प्रशिक्षक एवं प्रशासक, विषय-विशेषज्ञ, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, वैज्ञानिक और अन्य संदर्भ व्यक्तियों ने विभिन्न चरणों में वर्ष 2006 से 2010 तक लगातार योगदान करके उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा की प्रारम्भिक कक्षाओं (कक्षा 1 से 8 तक) की 56 पाठ्य पुस्तकों का तैयार किया था।




यह प्रसन्नता की बात है कि एससीईआरटी, उत्तराखंड के उक्त प्रयास को राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। देश के कई राज्यों ने अपने नवीन पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों को विकसित करने के लिए हमारे उक्त पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों का उपयोग संदर्भ एवं मार्गदर्शी साहित्य के रूप में किया था। इसमें हिन्दी भाषी राज्य ही नहीं वरन गैर हिन्दी भाषी राज्यों ने भी रुचि दिखाई। जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ ने एससीईआरटी, उत्तराखंड के इस पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तक लेखन में अपनी भागेदारी निभाते हुए ‘जहां न बस्ता कंधा तोड़े- ऐसा हो स्कूल हमारा….’ जैसी कालजयी कविता की रचना की थी। एससीईआरटी के पाठ्यपुस्तक लेखन के 4 वर्षीय दौर का कमाल है कि इससे जुड़े शिक्षक आज अपने विद्यालयों एवं अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सराहनीय योगदान दे रहे हैं। विद्यालयों के सामान्य शिक्षकोें के द्वारा किया गया यह असाधारण कार्य था। यह बात दीगर है कि एससीईआरटी के इस महत्वपूर्ण उपलब्धि को हमेशा दरकिनार किया गया। और अब एक ही झटके में इन पाठ्यपुस्तकों को बिना उनकी अप्रसांगिकता को बताये और सिद्ध किये अतीत के कोनों में डाल दिया गया है। ये इस बात को बताती है कि शिक्षा को संचालित करने वाले वो नहीं जो दिख रहे हैं।

एनसीएफ-2005 यह बात चीख कर कहता है कि ‘अच्छा हो कि प्रत्येक राज्य अपने परिवेषीय अनुकूलता से साम्य रखते हुए विद्यालयी षिक्षा की अपनी पाठ्यपुस्तकें खुद तैयार करें’। क्योंकि किसी राज्य विशेष के लिए एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें अच्छी हो सकती हैं पर बहुत अच्छी तो स्थानीय परिवेश का कलेवर लिए पाठ्यपुस्तकें ही हो सकती हैं। हमने तैयार भी की उसे प्रशंसा भी मिली उसके परिणाम भी सार्थक रहे पर हमारी हीनता हम पर हमेशा अपनी चादर ओड़ती रही है। यही इस बार भी हुआ। न हम सोच पाये और न बोल पाये कि हमारी पाठ्य पुस्तकें बेहतर हैं। हिम्मत तो यह करो कि इनको उत्तराखंड के अन्य सभी निजी विद्यालयों में लगवाओ। परन्तु ‘चुप्पी भली’ के अनुयायी हम उत्तराखंडी अपना स्वभाव क्यों और कैसे बदले ? के घंघतोल में रहते हैं।

खैर, कहते हैं कि पाठ्यपुस्तकें अच्छे शिक्षक का विकल्प नहीं बन सकती हैं और न बच्चे की स्वाभाविक सीखने की कोशिशों का। वास्तव में पाठ्य पुस्तकें सीखने का सबसे खराब और मजबूरी का जरिया है। ऐसे में अब अगर एनसीईआटी की पाठ्य पुस्तकें सही समय और तरीके से सभी विद्यालयों तक नहीं पहुंच पायी तो जो कुछ बचा-खुचा भी है उसकी भी तिलाजंलि ही समझो।

डाॅ. अरुण कुकसाल
arunkuksal@gmail.com

ये लेखक के विचार हैं.