दावोस में प्रधानमंत्री
महावीर सिंह जगवान
स्विटजरलैण्ड का शहर दावोस पूरी दुनियाँ की आर्थिक संरचना के लिये ऑक्सीजन जुटा रहा है,
विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यू ई एफ) के 48 वीं वार्षिक बैठक के द्वारा। दुनियां भर के ब्यापारिक और औद्योगिक प्रतिष्ठान, राजनीति, कला और सिविल सोसायटी क्षेत्र के तीन हजार नेता उपस्थित हैं।शून्य से भी नीचे के तापमान मे, बर्फीली हवाऔं के बीच यहाँ प्रतिभाग करने वाले राष्ट्र बड़े जोश और जज्बे से विश्व आर्थिक मंच मे अपने राष्ट्रों के शसक्त अवसरों को विश्व के सम्मुख रख रहे हैं, भारतीय होने के नाते हमे गौरव है वार्षिक सम्मेलन का उद्घाटन भाषण भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी देंगे।
विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनाॅमिक फोरम) की स्थापना 1971 में जर्मनी के बिजनैसमैन प्रौफेसर क्लैश श्र्वाब के द्वारा की गई। शुरूआत मे यह मंच अमेरिकी उद्योगपतियों द्वारा यूरोप के औद्योगिक उन्नयन मे बड़ी भूमिका निभाई। धीरे धीरे वैश्विक जगत मे आर्थिक और औद्योगिक हितों के प्रसार मे दावोस के इस अंतराष्ट्रीय संस्थान की भूमिका बढती गयी।
भारत के परिदृष्य मे रोजगार के दबाव और जीडीपी मे सुधार की एक प्रबल सम्भावना औद्योगिक क्षेत्र के नवनीकरण और विस्तार महत्वपूर्ण पहलू है, मोदी सरकार की महत्वाकाँक्षी योजना “मेक इन इण्डिया”के लिये भारत को निवेश की बड़ी जरूरत है। जिस उत्साह से प्रधानमंत्री जी बीस साल बाद दावोस के इस सम्मेलन मे प्रतिभाग कर रहे हैं स्पष्ट है, कानूनी मकड़जाल से मुक्ति और कंपनी हितों को सर्वोपरि रखकर अंतराष्ट्रीय संबन्धो की परिणति बड़े निवेश को भारत के पक्ष मे मोड़ने मे सफल हो जायें, नोटबन्दी और जीएसटी के बाद मंदी की धुँधलाहट को छाटने मे यह संजीवनी का काम कर दे।
राष्ट्रीय परिदृष्य मे भले आज भी प्रधानमंत्री जी की छवि उन्नीस न हुयी हो लेकिन अंतराष्ट्रीय परिदृष्य मे इक्कीस बनी हुई है, अब सबसे बड़ी चुनौती है मोदी सरकार 2019 के नजदीक पहुँच रही है, आज भी भारत और भारत के लोग इस आस और विश्वास मे हैं बदलाव आयेगा, भले ही सरकारों के लिये माथापच्चीसी का समय है हम जो कह रहे हैं उससे अभी कोसों दूर हैं। एक विशुद्ध राजनैतिक और विजनिसमैन शख्सियत की तरह हवाऔं के रूख को अपने पक्ष मे बदलने का हुनर रखने वाले आदरणीय प्रधानमंत्री जी निसन्देह भारत के लिये दावोस से निवेस की बड़ी पोटली लेकर आयेंगे लेकिन इसका बड़ा प्रभाव आने वाले दो या तीन सालों के बाद ही दिख पायेगा।
आदरणीय प्रधानमंत्री जी का संवाद आम जनमानस के अंतस को छूता है, वहीं आशाऔं के उस लोक से आम आदमी को रूबरू करवाते हैं जहाँ सूरज की किरणों सदृश न्याय विकास अवसर और सुविधाऔं का एक समान वितरण विना भेद भाव के, यह मनौविज्ञान की भाषा मे संवाद से ब्यक्तित्व का प्रचार कहलाता है तो दर्शन शास्त्र मे आदर्शवाद, जबकि आर्थिक जगत मे आभासी विश्वास और राष्ट्रीय संदर्भ मे सकारात्मक प्रतीक्षा। यह सौ फीसदी सत्य है राष्ट्र सकारात्मक प्रतीक्षा मे है, इसका भी एक निश्चित काल खण्ड होता है, एक सौ पच्चीस करोड़ की आशाऔं पर खड़ा होना चुनौती हो सकता है लेकिन राष्ट्र स्वछन्द होकर निरन्तर सबल शसक्त बनता दिखे तो सबका साथ बढता है, राष्ट्र की समृद्धि का पैमाना अंगुलियों पर गिनने लायक फोर्ब्स पत्रिका के धन्ना सेठो की सूची मे बढोतरी नहीं भारत के परिदृष्य मे अंतिम छोर पर खड़े नागरिकों के जीवन स्तर मे सुधार जिससे हम अभी पिछड़ रहे हैं।
भारत मे सबसे बड़ी चुनौती आन्तरिक बजट के ब्यय की है जिसकी उत्पादकता मे निरन्तर ह्रास हो रहा है। जबकि सरकारें विदेशी निवेश के द्वारा चमचमातें विकास की दीवानी बनी हुई हैं जो असल चुनौती है। किसान की समृद्धि और स्वाभिमान की रक्षा के लिये उसे बैंक से कर्ज मिलता है, वह अपनी फसल से भरपेट भोजन तक हासिल करने मे पिछड़ रहा है और वह मौत को गले लगा रहा है फिर सरकारें लाखों करोड़ माफ कर किसानों पर बड़ा अहसान कर रही हैं जबकि उसका जीवन स्तर अतिरिक्त श्रम के वावजूद घटता जा रहा है, उसे एक बार नहीं औसत हर बार कर्ज की जरूरत पड़ रही है और हर बार माफी की।आखिर इसका समाधान क्या है, स्पष्ट है उसकी मेहनत न तो सुरक्षित है और न ही लाभकारी, और न ही ऋण चुकता करने की सामर्थ्य।किसान के हितों की रक्षा के दूरगामी उपाय की अपेक्षा उसे ऋण माफी के जाल मे फंसाकर आप हरितक्रान्ति की उपलब्धि को सहेज नही पा रहे हैं। विदेशी भूमि पर भारत के लिये खेती कर रहे फर्मों को आप चौतरफा सहयोग कर रहे हैं, उनके उत्पादों को आप बाजार भाव के उच्च स्तर वाले मूल्य पर खरीदेंगे, कृषि उत्पादों की बाजार माँग और भाव बढने पर आप कृषि उत्पाद को आयातित करते हैं और भारी सब्सिडी देकर बाजार भाव नियन्त्रण करते हैं।
स्पष्ट है धीरे धीरे भारत अपनी कृषि आधारित जरूरतों की सम्मपन्नता खो रहा है किसान जितनी तकलीफ सहेगा वह खेती से विमुख होगा। इस लड़खड़ाती ब्यवस्था का विदेशी फायदा उठा रहे हैं और बढती जरूरतों का आयात पर निर्भर होना चिन्तनीय है। आज भी देश की पैंतीस फीसदी से अधिक आबादी कृषि से रोजगार पाती है जिनके भविष्य के हितों की सुरक्षा जरूरी है। पूरा विश्व पूँजावाद की ओर ध्रुवीकृत हो रहा है, लोकतंत्र स्वयं के शसांधनो से समृद्धि की अपेक्षा उद्योगपतियों के द्वारा विकास के नये आयाम छूने को उत्तावले हैं, ठीक है यह युग की जरूरत है लेकिन सरकारों को अपने कायदे कानून की रक्षा करने की शक्ति नहीं खोनी चाहिये। यदि नियम कानून का इमानदारी से पालन होगा तो उद्योग के प्रति दिखाया गया समर्पण लाभकारी होगा अन्यथा यह भी एक विकट चुनौती बन जायेगी। भारत मे उद्योगपतियों के हितों की रक्षा अच्छी बात है लेकिन सरकारें अपने हितों की रक्षा के लिये औद्योगिक घरानों को अतिरिक्त सुविधायें देंगी तो उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। भारत मे औसतन दो सौ बड़ी कम्पनियाँ सभी राज्यों मे औद्योगिक इकाईयाँ चला रही हैं लेकिन पर्याप्त सामर्थ्य के वावजूद पचास फीसदी ही नियमित उत्पादन की स्थिति मे है जबकि सौ फीसदी उत्पादन रोजगार और इन्फ्रास्टक्चर के लिये बड़ी पूँजी की सब्सिडी ऋण सुविधायें गटक चुकी हैं और प्रति छमाही पचास हजार करोड़ से भी अधिक की देनादारी राशि बट्टे खाते मे जा रही है। जबाबदेहिता शून्य जमीनी मूल्याकन शून्य। लोकतंत्र को फलित लाभ की अपेक्षा मूल राज कोष से बढता घाटा।
औसतन सौ करोड़रूपये से हजार करोड़ रूपये वाली परियोजनायें निगमित से कई वर्षों देरी से पूर्ण होती है परणति रिजकोष को परियोजना के लिये आवंटित धन का चार से पाँच गुना अधिक ब्यय। जो विकास हम देखतें है वह विकास कर्ज आधारित है, यह वर्तमान मे अतिसामान्य बात लगे लेकिन यह विकास भी गुणवत्ता युक्त न होने के कारण समय से पहले दम तोड़ देता है और कर्ज से हुये विकास की जमीनी उपलब्धि शून्य होने पर राष्ट्र को दुगनी असहनीय क्षति होती है। भारत मे सबसे बड़ी चुनौती है एक ओर मूल संस्थान अपने उत्पदाकता खो रहे हैं और दूसरी ओर इन्हें आधुनिक और उत्पादक बनाने की सामर्थ्य सरकारें इन्हें देने मे असमर्थ हैं फिर एक ही रास्ता बचता है, एशियन डवलपमैन्ट बैंक, वर्ल्ड बैंक, सक्षम राष्ट्रो से सीधे निवेश इसके लिये मूल संस्थानो को छोड़कर नया ढाँचा विकसित करना पड़ता है तभी फण्डिग सम्भव है, इन पर भले ही राज्य केन्द्र और अंर्तराष्ट्रीय ऐजेन्सी की मूल्याकन जबावदेहिता है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण यह सभी प्रयोग जमीन मे विकास जैसा अहसास करते जरूर हैं लेकिन परियोजना पूर्ण होते ही सब कुछ समाप्त, फिर इसे पटरी पर लाने के लिये नई परियोजना और राष्ट्र कर्ज तले बढते रहते हैं।
अंर्तराष्ट्रीय निवेश तभी सार्थक है जब राष्ट्र आन्तरिक रूप से अनुशासन युक्त और भ्रष्टाचार मुक्त होंगे। हम टेलीविजन पर दावोस मे आदरणीय प्रधानमंत्री जी के उद्घाटन भाषण से प्रसन्नचित हैं और गौरव करते है अंर्तराष्ट्रीय मंच पर भारत की अमिट छाप है, लेकिन भारत के सुदूर सीमान्त क्षेत्र और हिमालय की घाटियों चोटियों पर बसे गाँवो मे आज भी मूलभूत सुविधाऔं के लिये छटपटाते लोग हैं, गंगा के मायके के लोग प्यासे हैं, सम्मपन्न जैवविवधता के वासी साक्षरता और उच्चशिक्षा के वावजूद वेरोजगार हैं, विश्व मे भारत को गाँवो का देश कहते हैं वह वीरान और उजड़ रहे हैं,जड़ी बूटी और जैविक खेती हमारी पहिचान रही है अब खेत बन्जर हो रहे हैं। एक नहीं हजारों योजनायें चल रही हैं लेकिन जमीनी उपलब्धि ढूँढे नही मिलती हैं विनम्र निवेदन सूर्य की किरणो की तरह हमारे भूभाग से भी न्याय करें ताकि समृद्ध हिमालय ,समृद्ध हिमालयी जीवन भारत की समृद्धि मे अग्रिम भूमिका निभा सके। पुन:आपकी दावोस यात्रा सफल हो।