ऋतुराज बसंत
महावीर सिंह जगवान
ऋतुराज बसंत का प्रतीकोत्सव बसंत पंचमी के साथ माँ सरस्वती का प्रकाट्य दिवस
अंतस को सुकून और सभी को शुभमंगलकामना की सौगात देते हुये यह पर्व तिथि विशेष मे अपनी अमिट छाप रखती है। बचपन मे आज के दिन ब्राह्मण देवता के मुखारवृन्द से पंचमी सुनी जाती थी, मानव, जीव जन्तु, मौसम पर्यावरण की भविष्य के सन्दर्भ मे जानकारी सुनने की उत्तसुकता दुर्लभ अहसास था, गंगा स्नान, पीताम्बर वस्त्र, मन्दिर दर्शन, ढोल वादको का जौ की पौध वितरण, खेतों मे सरसों के फूलों का पीताम्बर आवरण, पेड़ पौधों मे कोपलों के संग पुष्प गुच्छों का उदय, पतझड़ के बाद सजी सँवरी धरा मानों बसन्तोत्सव के लिये परी सदृश सजी हो। हम हिमालय की चोटियों घाटियों मे बसे लोग प्रकृति के इस दिलकश नजारे को कौतूहल से देख रहे हैं, हमारी बोली मे यह मौल्यार और नयुपन कू संचार का बहुमूल्य समय है। (सुसुप्त अवस्था से जागृत होकर नवजीवन नव संचार का दुर्लभ समय)। बेसब्री से भ्रमर कीट पतंग को उत्सुकता है नये मकरन्द की, मौसम की नमी खिलने को ब्याकुल कोंपलों को रोक रही है, जबकि कोपलें अपने चरम उत्कर्ष को ब्याकुल, कचनार के पेड़ मानो गजरे से सज गये हों, हर घर द्वार और मन्दिर आज जौ की डाली से ओढे हैं हरितिमा, युग आधुनिक आभासी दुनियाँ भी आज मदमस्त है बसन्त के दुलार संग।
नमन उन्हें जिनकी रीति नीति से बूझ पाते हम प्रकृति की अबूझ पहेली, कितने सुन्दर गाँव आँगन खेत खलिहान वन उपवन के वासी हैं हम। एक ओर भाल हिमालय लकदक चाँदी सदृश, उच्च चोटी उकसाती सदा उठ बढ, दूर दूर वन उपवन इन्द्रधनुषी रंगो मे सरोबार, खेतो मे बहती मन्द हवाऔं संग पीली सरसों की फुलारी, मन मस्तिष्क नित नव चेतन पाता नव ऊर्जा संग, नमन उन पित्रों को जिनसे मिली यह थाती हमको, हर लम्हें का अहसास दुर्लभ, बार बार करता आलिंगन बसंत, कहता लो आया मै ऋतुराज के संग, जी भर कर लो मधुर मिठास, पतित पावन बनकर करो धरा पर सृजन बारम्बार।
कभी कभी सोचता हूँ कंक्रीट के जंगलों के वासी खुद तो बचपन को यादकर बसंत की मिठास को छू लेते होंगे लेकिन उनकी नई पीड़ियाँ इस दुर्लभ अहसास से रूबरू कैसे होंगी, स्तब्ध और अवाक हो जाता हूँ जब जबाव मिलता है करेन्सी ही सब कुछ है जब चाहो जो चाहो मिल जाता है इसके दम पर। ऐसा तो सायद मुमकिन ही न हो कभी, हाँ तकनीकी और विज्ञान के समिश्रण ने आपके गमलो मे विना जड़ की टहनी पर खिलते गुलाब सदृश अनगिनत पुष्पों के दृष्यावलोकन से रूबरू करवाया होगा, यह कल्पित आभास है, आभासी दुनिया का आदमी बनता जा रहा है परमेश्वर की जागृत और बहुमूल्य रचना मानव।
आयें मिलकर आभासी दुनियाँ के साथ कभी कुछ पलों के लिये अपने मूल गाँवों मे बसंत का दृष्यावलोकन करें, अपनी जन्मभूमि की माटी के संग खिलती पुष्प कोपलों की ममत्व और अपनत्व से महकती खुशबू से रूबरू होने के दुर्लभ अहसास से साक्षात्कार करें, यह जास्मिन चमेली और मोगरे से भी पावन और अमर महक है। यहाँ संवेदनाऔं का नृत्य है, जीवन की यात्रा का अहसास है, सुकून है जुनून भरी जिन्दगी में, उमंग और नया पन है,आकर्षण और स्वच्छन्दता है, नित उत्साह को उकसाती हवायें हैं, जीर्ण और वृद्ध काया को यौवन से अलंकृत करती पावन जलधारा है, मकरंद की महक के संग मधुर चहचहाहट है, हर पीड़ी के मानव को नित नया करने को प्रेरित करती प्रभात की किरणे हैं, चंचल चपल मन को ओंस की बूँदे पीपर पात पर अठखेलियाँ खेलकर दृढता दे रही हैं. यहाँ वसंत से सीधे संवाद है, सीधे संवेद है, संवाद है।