एक गधेरा – छः झरने
डॉ. नंदकिशोर हटवाल
कभी यह गदरा (गधेरा) हमारे गांव के अर्थतंत्र की रीढ़ था। सदानीरा! वर्षभर ऐसे ही बहने वाला गदरा। इससे नैर (नहरें) और कूल (गूल) निकाल कर हमारे गांव में सिंचाई होती, सेरे लगते थे। इसमें मवेशी पानी पीते, भैंसें नहाती। हम लोग इस गदरे में कुण्ड बनाकर उसमें भीमल के ‘क्योड़े’ (टहनियां) भिगाते और फिर उन क्योड़ों से ‘स्योळु’ (भीमल के रेशे) निकालते। स्योळु से रस्सियां बनती, सिराणे (घास-लगड़ी लाने की रस्सियां), ‘गैंडे’ (जानवरों के गले में बांधने की रस्सियां) ‘खुट्यांस’ (जानवरों के पैर पर बांधने की रस्सियां), नाड़े, (हल को जुवे से बांधने की रस्सी), दंवाले, (गाय-बैलों के गले में बंधने वाली रस्सियां), स्वत्तर, (जुवे को बैलों के गले से बांधने की रस्सियां), खाबळी, (जंगली जानवरों को फंसाने का जाल), बनते। कण्डे-स्वोल्टों (घास-लकड़ी के लिए रिंगाल के बने बर्तन) पर ‘काखे’ (कंधे पर लगाने की रस्सियां), लगाते। इस गधेरे में घट्ट (घराट) चला करते। वैसे तो इसी गधेरे के किनारे एक ‘मंगरा’ (प्राकृतिक जलश्रोत) भी था पर हम लोग गधेरे में कपड़े धोते और इसके झरनों में नहाते भी।
बरसात में इसमें बाढ़ भी आती है और यह गदरा हमको बहुत डराता है। बरसात के दिनों में हमें इस पर बहुत गुस्सा आता है और हम इसको गाली भी देते हैं। निर्भागी, दुर्सगुनि गदरू बोलते हैं। इसका पानी गांव को काट रहा है। इसके किनारे बसे लोगों ने मकान खाली कर दूसरी तरफ बना लिया हैं। सेफ्टी वाल के लिए कई बार कहा गया है पर अभी तक नहीं बन पायी है। पर बाढ़ के समय यह गदरा अपने साथ हमें कुछ लकड़ियां और नए पत्थरों को लेकर भी आता है। ताकि हमलोग ज्यादा नाराज न हों और उसे गाली न दें। उससे हमारे चूल्हे जलते हैं, मकान बनते हैं। फिर भी हम लोग इस गदरे पर नाराज रहते हैं कि हमारी जमीन काटी खेत बहाये मकान तोड़ी। गदेरा धीर-गम्भीर, शांत, धीरोदात्त नायक की तरह अविरल बहता कुछ नहीं कहता। नहीं कहता कि मैं तो पहले से बहता हूं भाई इधर लाखों वर्षों से। तुम लोग तो बाद में आये, तुम्हारे खेत-मकान बाद में बने। तुमने मेरे ऊपर पुल बनाया मैं तुम्हारे पुल के नीचे नहीं गया। तुमने मेरे किनारे सड़क बनाई मैं तुम्हारी सड़क के किनारे नहीं आया। तुम क्या तुम्हारे बाप-दादा भी पैदा नहीं हुए थे मैं तब से इधर हूं। तुम्हारे ‘पुराणे’ भी तब नंगे नहाते थे।
ऐसा कुछ भी नहीं कहता है यह गदरा। इंसान होने के नाते कुछ अकथ बातें भी समझनी होंगी हमें। पहले बहुत ज्यादा ऐसर-पेसर था इस गधेरे में। बड़ी चहल-पहल रहती, संसाधनो पर दबाव भी था। मगर अब सूना पड़ा है गदरा एकदम सन्नाटा! पर गदरे का बहाव और कोलाहल जस का तस है जहां का तहां। न इधर से उधर, न ऊपर से नीचे। न पलायन, न प्रवर्जन, न विस्थाप। पानी बेसक पहले से कम हो गया पर खिकताट-खतबताहट कम नहीं हुई। इसके छल-छल करते छौड़े न ज्यादा हुए और न कम। उतने के उनते ही हैं। हां हसीन कुछ ज्यादा हो गए हैं। हमें बुला रहे हैं।
हमारे गांव की सीमा में झरने के रूप में ही आगाज होता है इस गदरे का। गांव की पश्चिमोत्तर सीमा में है पहला झरना। गांव के ऊपर एकदम आसमान से जमीं पर उतरता हुआ। इसको हम ‘भंकोर छौड़ा’ कहते हैं। शायद भंकोर के आकर के कारण। और उसके बाद एक के बाद एक, तीन किलोमीटर की यात्रा में छः झरने। इसके आगे के छौड़ों के नाम ‘माल्ला क्वलघरा छौड़ा’ ‘मुल्ला क्वलघरा छौड़ा’ उससे आगे ‘पड़मुंड्याळा छौड़ा’ फिर ‘लटख्वोल्या छौड़ा’ है। आगे के ‘अंतिम छौड़े’ का नाम नहीं हैं। पश्चिम से पूरब की ओर है इस गधेरे का बहाव। एकदम हमारे गांव के बगल में बहता है। गांव से सटा हुआ, चिपका हुआ, हमारे कानों में अलकनंदा के शोर के साथ अपने शोर को मिलाता हुआ। यह गधेरा गांव के ठीक नीचे, पूर्वी ढलान पर, अलकनंदा में मिलता है। यहां पर छोटा सा एक संगम बनाता है। यही हमारे गांव की पूर्वी सीमा भी है। यहां पर अलकनंदा उत्तर-दक्षिण की ओर बहती है।
इस गदरे का जलग्रहण क्षेत्र मनपाई बुग्याल है। बुग्याल के नीचे स्थित ‘क्यमकूड़’ नामक स्थान पर ये गदरा आकार ग्रहण करता है। वहां से बांज-बुरांस के जंगलों के बीच से बहते हुए कीमाणा और जखोला गांवों के बीच से बहते हुए आगे बढ़ता है। वहां इसे ‘घटि गदरा’ कहते हैं। आगे ‘क्वींस्यौर’ में ‘नागपाणि’ का पानी भी इसमें मिलता है। क्वींस्यौर से आगे ‘थासी’ से होते हुए यह गदरा भंकोर छौड़े के रूप में हमारे गांव की सीमा में प्रवेश करता है। क्यमकूड़ से अलकनंदा के संगम तक इस गदरे की कुल लम्बाई लगभग सात-आठ किलोमीटर ही होगी।