January 18, 2025



विकास मेरे शहर का -5

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नरेन्द्र कठैत


गढ़वाली भाषा के साहित्यकार, समालोचक दिवंगत भगवती प्रसाद नौटियाल जी का गांव गिरगांव पौड़ी शहर से लगभग सात किलोमीटर की पैदल दूरी पर है। एक बार उन्होंने अपने जीवन में घटित एक अजीबोगरीब किस्सा सुनाया। दरअसल उनके पिता दिल्ली में नौकरी करते थे। उनके साथ रहकर ही बालक भगवती प्रसाद भी दिल्ली में ही अध्ययनरत थे। एक बार उनके पिता ने कहा कि गांव चलते हैं। वे पिता के साथ गांव आ गए। पिता जब कई दिनों तक गांव में ही ठहरे रहे, तो परिजनों ने कहा कि ‘आपको गांव में रहते-रहते बहुत दिन हो गए। आपके पास परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा है-आप दिल्ली नौकरी पर जाइये। ‘ दूसरे दिन पिता तैयार हुए और बालक भगवती के साथ पैदल ही पौडी बस अड्डे की ओर चल पड़े। वे पहले भी कोटद्वार होकर दिल्ली पहुंचने के लिए यहीं से होकर जाते थे। वक्त पर पौड़ी बस अड्डे पर पहुंच भी गए।

बालक भगवती भी पिता के साथ ही बक्सा, गठरी लेकर वहीं किनारे बैठ गए। आते-जाते लोगों को देखते रहे। बालक भगवती ने देखा बस आई, थोड़ी ठहरी। कंडक्टर ने कहा- ‘कोटद्वार! दिल्ली! कोटद्वार! दिल्ली!’ सवारियां बैठी। और गेट सिस्टम के अनुसार वह बस कोटद्वार के लिए चल पड़ी।तमाम सवारियां जिन्हें जहां जाना था -चली गई। लेकिन पिता ने कहा ही नहीं-‘ भगवती!चल उठा बक्सा-गठरी! दोपहर हुई। शाम ढली। पिता ने पुत्र भगवती से कहा- ‘आज दिल्ली जाने की इच्छा हुई ही नहीं। आज यहीं ठहर लेते हैं ! कल चलेंगे दिल्ली!’


दूसरे दिन भी वही किस्सा हुआ- बस आई, थोड़ी ठहरी। कंडक्टर ने कहा- ‘कोटद्वार! दिल्ली! कोटद्वार ! दिल्ली!’ सवारियां बैठी। और उस दिन भी गेट सिस्टम के अनुसार- वह बस कोटद्वार के लिए चल पड़ी। पिता उस दिन भी बस में चढ़ने का मन न बना सके। और दिन ढलते ही पिता ने फिर वैसे ही कहा- ‘आज भी दिल्ली जाने की इच्छा नहीं हुई! अब कल ही चलेंगे दिल्ली!’ उस दिन भी बालक भगवती को पिता के साथ बस अड्डे के पास ही होटल में रुकना पड़ा। तीसरे दिन भी बस अड्डे पर पहुंची। लेकिन उस दिन भगवती के पिता ने कहा-‘दिल्ली कुछ दिन बाद चलेंगे! चलो अभी वापस गांव चलते हैं।’ इस प्रकार दो दिन पौड़ी के बस अड्डे पर रहकर भी वे दिल्ली न पहुंच सके। और पिता के साथ गठरी सर पर रखकर वापस गांव लौट आए। यूं गांव में फिर कई दिन गुजर गए। लेकिन पिता दिल्ली जाने के लिए टस से मस न हुए। परिवार के बुजुर्गों ने समझाया – ‘आपका घर परिवार है। देखिए घर परिवार के हालत ठीेक नहीं हैं। आप दिल्ली जाएं और नौकरी करें।’


पिता दूसरे दिन ही दिन दिल्ली जाने के लिए राजी हो गए। लेकिन बालक भगवती से कहा – ‘इस बार पौड़ी अड्डे से होकर नहीं देवप्रयाग होकर चलेंगे!’ और यूं दूसरे दिन बालक भगवती पिता के साथ सर पर गठरी उठाए देवप्रयाग की ओर चल पड़े। किंतु देवप्रयाग में भी ठीक वैसे ही हुआ – जैसे पौड़ी में हुआ। देवप्रयाग बस अड्डे पर कई बसें आई, ठहरी,सवारियां भरी। और चली गई। लेकिन दिल्ली जाने का पिता का मन ही न बना। और वहां भी बालक भगवती को उस दिन पिता के साथ किसी धर्मशाला में ठहरना पड़ा। देवप्रयाग में अगले दिन सुबह ही पिता ने बालक भगवती को- इस बार भी अपना निर्णय सुना दिया- ‘दिल्ली जाने का अभी मूड ही नहीं बन रहा। यहां रहकर भी कोई फायदा नहीं। चलो गांव लौटें!’ पिता की आज्ञा के पालक भगवती इस बार भी सर पर गठरी लेकर गांव वापस आ गए। यूं छः माह गुजर गए।

इस बार परिजनों के साथ गांव के अन्य बुजुर्गों ने साथ दिया। और पिता को समझाया- ‘आप जब तक घर पर रहें रह सकते हैं। लेकिन आप इस बालक का भविष्य बर्बाद न करें। आपके यूं बार-बार आधे रास्ते से लौटने से इस बालक की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है। ये बच्चा होनहार है। इसे पढ़ने दें।’ यह सुनकर पिता जैसे मूर्छा से जागे। उनकी आंखों से अश्रुधारा निकल पड़ी। बालक भगवती को गले लगा लिया। और रोते -रोते कहा- ‘भगवती बेटा! कल हर हाल में चलना है दिल्ली! अब रुकना नहीं!’ इस प्रकार इन तमाम विघ्न वाधाओं को पार करते हुए बालक भगवती दिल्ली पहुंच सके। और वे अध्ययन जारी रख सके। और गढ़वाली भाषा के लिए बहुत कुछ कर गए।


बंधुओं! बालक भगवती की तरह ही पौड़ी के बस अड्डे का ‘विकास’ भी लम्बे समय तक बस अड्डे पर ही रुका रहा। थोडा खड़-खड़ करता, सबको लगता अब बढ़ने वाला है। लेकिन फिर ठहर जाता। एक दिन ठीक इसी बस अड़डे से होकर गुजर रहा था। वहीं खड़े एक पत्रकार मित्र ने रोका । और पूछा- ‘भैजी आपका इस बस अड्डे के ‘विकास’ के बारे में क्या कहना है? मैंने कहा- ‘मित्रवर ! इस बस अड्डे का ‘विकास’ हमारे कहने ने नहीं होना है। ये सब ‘विकास’ की सदिच्छा से ही होना है। और ये ‘विकास’ की सदइच्छा का ही परिणाम रहा कि आखिर बस अड्डे का रूका काम पूरा हुआ। लेकिन फिर भी किसी ने यह नहीं कहा कि ‘विकास’ हुआ। जब भी चर्चा में कहीं ‘विकास’ का नाम आया- सबने यही कहा -‘अरे किसी का लड़का हुआ है। उन्होंने उसका नाम ‘विकास’ रखा है!’ ऐसा लगता है सारा शहर ही जैसे ‘विकास’ नाम से ही चिढ़ा हुआ है।

मेरे एक मित्र के बेटे का नाम भी ‘विकास’ है। वह पढ़ा लिखा है। बड़ा होशियार है। उसकी आंखों में भी हमने पौड़ी के ‘विकास’ के सपने देखें हैं। लेकिन ‘विकास’ नाम से उसे भी बड़ी चिढ़ है। जब भी उसे ‘विकास’ नाम से पुकारते हैं वो चिढ़ जाता है। कहता है मेरा नाम ‘विकास’ नहीं बेमिसाल है। बंधुओं! ‘विकास’ बेमिसाल हो न हो -लेकिन ये शहर हर मामले में बेमिसाल रहा है। वो अलग बात है कि यह शहर आस-पास के चार गांवों पौड़ी, कांडई, च्वींचा और बैंज्वाड़ी की भूमि पर खड़ा है। लेकिन ‘विकास’ इनमें से किसी गांव का नाम नहीं लेता। वह हर जगह अपने बोर्ड टांग देता है। लेकिन हमारी आंखों के पटल पर इस शहर का हर एक दबा-ढका कतरा तैरता रहता है।




शहर के सबसे निचले हिस्से में है एक चौराहा। उसका नाम ही है- चौधरात अर्थात चौराहा! इससे क्या फर्क पड़ता है कि कहीं बोर्ड पर उसका नाम खुदा है -या नहीं खुदा । जानते हैं- वही है उसका अता- पता। वर्षों से देख रहे हैं इसके ठीक बीच में है- एक चबूतरा। और उस चबूतरे के ऊपर एक बिजली का खम्भा ।और- वह खम्भा कई तारों से जकड़ा हुआ।हालांकि पहले चबूतरे पर ये खम्भा भी नहीं रहा होगा। उसकी जगह ध्वजारोहण के लिए एक डंडा अवश्य रहा होगा। तब इस चबूतरे ने गणमान्य जनों और सभाओं का एक लम्बा दौर देखा होगा। लेकिन तब और अब के बीच इस चौराहे से होकर बहुत पानी गुजर चुका। कुछ बहा, कुछ रहा। लोग कहते हैं गनीमत है ये हमारी जुबान पर टिका रहा।

इसी चौराहे से एक राह कांडई, च्वींचा गांव की ओर बढ़ जाती है। तथा दूसरे छोर की राह एक लम्बी गली सी बस अड्डे की ओर बढ़ जाती है। एक पगडंडी नीचे मस्जिद की ओर सरकती है। और एक राह ऊंचाई की ओर अपर बाजार की ओर बढ़ती है। आम जुबान में ये पूरा दायरा लोअर बाजार है। और इसके सर पर सवार अपर बाजार ही इस शहर का मुख्य बाजार है। किंतु आज भी हमारे कई बुजुर्ग हुक्का गुड़गुड़ाते हुए कहते हैं कि ‘कभी जमाने में लोअर बाजार ही इस शहर की शान थी।’ लेकिन ‘विकास’ ने उस बाजार की वो शानो शौकत ही मिटा दी।

इस चौराहे के बाद यदि हम तिराहों की ही बात करें। तो दो तिराहे कलम की नोक पर आ गए। एक बस अड्डे के बाई ओर श्रीनगर और धारा रोड को जोड़ने वाला तिराहा। और दूसरा बस अड्डे के दाईं ओर कोटद्वार और देवप्रयाग को जोड़ने वाला। दोनों तिराहों पर बड़े तीखे मोड़ हैं। लेकिन वर्षों से अपनी जगह हैं। भले ही वहां कई ‘विकास’ के नाम पर कई बोर्ड टंगें हैं लेकिन ‘विकास’ ने किसी तिराहे का नाम नहीं रखा है। और बिना नाम के ही हम उन्हें आर- पार कर रहे थे। किंतु- अभी हाल ही में एक मित्र ने मिलने को कहा। मैंने -‘कहा जगह बता?’ उसने कहा -‘टीचर बैंड’ पर आ जा। मैं अचरज में पड़ गया। पूछा -‘भाई ये टीचर बैंड है कहां भला?’ उसने कहा- ‘यार बस अड्डे के उधर कोटद्वार और देवप्रयाग को जोड़ने वाले तिराहे को ‘टीचर बैंड’ कहते हैं। क्योंकि सायं काल सभी टीचर उसी बैंड पर मिलते हैं।’

शहर में और भी तिराहे हैं लेकिन सभी लोअर बाजार के चौराहे से ऊपर हैं। और आमद उस चौराहे से ज्यादा तिराहों पर है। फिर भी व्यापारी वर्ग खुश नहीं है। कहते हैं ग्राहक नहीं-व्यापार चौपट है। किंतु लोअर बाजार का व्यापारी दिनभर व्यस्त है। मस्त है। उसके पास लाठी-डंडा, हवन सामग्री, लोहा-लकड़, रंग वार्निश सब है। ‘विकास’ से चिढ़ने वाले तब भी कह देते हैं कि ये ‘विकास’ का नहीं उनका हुनर है। एक बात और गौर करें! उस चौराहे से नीचे कोई तिराहा क्या – कोई सड़क भी नहीं है। मात्र राहें हैं या पगडंडियां हैं। आप सोचेंगे- ऐसा क्यों और कैसे?

असल में इस शहर की नींव रखने वाले हमारे पूर्वज प्रबुद्ध थे। और शहर की बसावट के प्रति व्यापक सोच रखते थे। उसी व्यापक सोच के अनुरूप उन्होंने ये चौराहा बनाया था। सुनते हैं -हमारे वे प्रबुद्ध जन चाहते थे कि भविष्य मेें जब भी इस शहर का ‘विकास’ हो तो वह इस चौराहे के चारों ओर से शुरू हो। लेकिन उनकी यह व्यापक सोच और यह विचार शहर के ‘विकास’ को रास नहीं आया। और उसने उनका प्रस्ताव ही ठुकरा दिया। वह तीन दिशाओं की ओर तो बढ़ गया लेकिन- नीचे की ओर सरकने के लिए बिल्कुल भी तैयार न हुआ। आज शहर के इस मनमाने ‘विकास’ की सजा ये वीरान चौराहा और पौड़ी, कांडई, च्वींचा, बैंज्वाड़ी गांव के मूल निवासी भी भुगत रहे हैं।

कभी जमानों में बैंज्वाड़ी गांव से नीचे च्वींचा गांव की सरहद पर नरसिंग धारा में हमने दो पन चक्कियां देखी थी। दोनों खट-खट करती रात दिन चलती हुई। यहीं से गुजरती पौड़ी खंडाह श्रीनगर के पैदल मार्ग की राह किनारे एक चाय की दुकान भी थी। वहीं दुकान के पास रखे एक बड़े भारी भरकम चौकोर तराशे हुए पत्थर पर पहले बैठकर थकान मिटाने के लिए हमें अपनी चाल बढ़ानी पड़़ती थी। लेकिन बैंज्वाड़ी गांव के सर पर सवार और जल स्रोतों के ऊपर खड़े विकास ने वो पन चक्कियां भी न चलने दी। बिन पानी के वे पन चक्कियां भी दम तोड़ गई। फिर कुछ वर्षों तक उस दुकान पर ताली जड़ी मिली। बाद में बिना मरम्मत के वह भी ढह गई। मरम्मत होती तो किसलिए? ‘विकास’ की नजर तो शहर के नीचे कभी भी कुछ रहा ही नहीं। अब रह गया था वहां-केवल वह भारी भरकम तराशा हुआ पत्थर ही। एक दिन देखा वह पत्थर वहां न था। नीचे मासौं, ऊपर च्वींचा में भी उसकी खोज खबर की-लेकिन वह तराशा हुआ पत्थर कहीं न दिखा। बहुत बाद में एक मित्र ने बताया- उस पत्थर को वहां से ‘विकास’ ले गया था। मालूूम नहीं ‘विकास’ ने उससे अपना मकबरा बनाया या कहीं और बेचा। खैर ‘विकास’ से क्या बैर मोल लेना। आखिर रहना तो है उसके ही संग। उस पर भी कृपा दृष्टि बनाए हमारा ईष्ट देव नरसिंग!

‘विकास’ के बल पर ही लोअर बाजार के प्रतिष्ठान खड़े हुए। उनमें से कुछ चाय-पकोड़ी, कुछ मिष्ठान, कुछ राशन,कुछ बर्तन, कुछ कपड़े, एक आध पान, एक दो चूड़ी बिन्दी के व्यापारी जमे। ‘विकास’ के आशीर्वाद से वे खूब पनपे। और उनकी कृपा से अपर बाजार में बहुत विकास हुए हैं। लेकिन कुछ हैं जो आज भी टिके हुए हैं। अधिकांश अपना बोरिया बिस्तर समेट चुके हैं। ऐसा मुमकिन नहीं कि अपर बाजार में चढ़ते-उतरते रामलला की भव्य इमारत पर न पड़े। लेकिन रामलीला मैदान पर खड़ी इसी भव्य इमारत के निर्माण से पहले हमने उसी जगह कई चबूतरे बनते टूटते देखे हैं। किरदार याद हैं, साज याद हैं, यहां तक की कुछ कपड़े भी याद हैं जो यदा-कदा हमने पहने हैं।

राम लला की इसी भव्य इमारत के पीछे कभी जमानों में लकड़ी -कोयले का टाल था। सन् 1954 में ‘गढ़वाली जन साहित्य परिषद’ द्वारा प्रकाशित तथा दामोदर प्रसाद थपलियाल,साहित्याचार्य एवं श्याम सिंह नेगी,बी.जेडी. के संपादन में निकली पुस्तक ‘गढ़वाली साहित्य की भूमिका’ में रमाप्रसाद घिडियाल ‘पहाड़ी’ जी ने ‘विशाल कीर्ति’ के एक अंक में छपे एक आलेख में इसी टाल का उद्धरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि-‘उबारे हमारा लेखकों मा एक चेतना आई छई और यदि विशाल कीर्ति का अंक आप उठावन त पढ़ील्या ‘पौड़ी का टाल मा लाखड़ा नी छन, दुकानों मा सड़यूं गळ्यूं आटू छ।’(उस समय हमारे लेखकों में एक नई चेतना का संचार हुआ। और अगर आप ‘विशाल कीर्ति’ के अंक उठाएं, तो पढ़ेंगे-पौड़ी के टाल में लकड़िया नहीं हैं, दुकानों में सड़ा -गला आटा है। )।

सवाल यही है कि आज भी लगभग समस्याएं वही हैं। लेेखकों की भी भरमार है। लेकिन लेखकों की जमीन से जुड़ी वह चेतना कहां है? इस शहर की एक चिंता यह भी है। लेकिन उस टाल के कोयले की अब न कालिख ही बची है- और न ही लकड़ियों का बुरादा ही शेष है। किंतु उन दो चूल्हों के धुएं की गंध आज भी हमारे तन मन में ज्यों कि त्यों है। अपनी गुणवता, मधुरता के लिए प्रसिद्ध इन चूल्हों के मालिक थे- आदरेय – लक्ष्मण सिंह राणा (जनप्रिय नाम लच्छू लाला जी!) और दूसरे गणेश प्रसाद जदली (जदली लाला जी)। दोनों चाय की ही दुकान चलाते थे। दोनों के चूल्हों में या तो कोयले धधकते रहते थे या वहां लकड़ियों का धुंवा देखते थे।

एक ओर लच्छू जी के यहां -नरेन्द्र सिंह नेगी,विरेन्द्र कश्यप,राजेन्द्र राजू जैसे कई अग्रजों की चाय छनती थी। और वहीं चंद कदम ऊपर हम फक्कड़ों की बैठकी गणेश प्रसाद जदली जी की दुकान में जमती थी। जदली जी की दुकान का सैटअप आज भी याद है। उनकी दुकान के तीन हिस्से थे। फ्रन्ट पर उनकी भट्टी, भट्टी में रखी बड़ी सी केतली में चाय खदबदाती रहती। इसी भट्टी की दूसरी ओर जदली जी का काउन्टर होता। और भट्टी और काउन्टर के बीच से होकर ग्राहकों के लिए आने-जाने का खुला पैसैज था।

जदली जी के दो सहायक थे। एक सहायक भट्टी में चाय बनाने और भट्टी का ध्यान रखता था। तथा दूसरे सहायक का काम ग्राहकों तक चाय पहुंचाना और गिलास धोना होता था। काउन्टर भी लकड़ी और कांच का धुंधला सा था। इसी के पीछे एक और कमरा था। उस पर ग्राहकों के लिए दो तरफा लम्बे बैंच बीच में लम्बे टेबुल होते थे। इस दूसरे कमरे के पीछे तीसरा कमरा थोड़ा छोटा था। लेकिन वह कमरा भी बैंच – टेबुल से सज्जित था। किंतु उस आखिरी के उस कमरे में ग्राहक बहुत कम आते थे। जदली जी की दुकान का वही तीसरा खंड हम फक्कड़ों का अड्डा था। यही वह कमरा था जहां से हम फक्कड़ों में किसी के सुर, किसी के ताल, किसी के नृत्य, किसी के संवाद, किसी के अभिनय के तार सीधे मायानगरी से जुड़े थे। यूं समझ लीजिए जदली जी की उस कोठरी में अमिताभ भी अभिनय करते थे, किशोर कुमार भी गाते थे, भप्पी लहरी साज बजाते थे -और बिरजू महाराज नृत्य करते थे।

जदली जी बड़े ही हंसमुख मिजाज आदमी! दुकान में चाय पी ली तो ठीक! अन्यथा जदली जी ने ये कभी नहीं कहा कि-‘चाय नहीं पीनी है तो यहां से उठिए!’ हम बैठे रहते थे घंटों! बिना चाय की चर्चा! और टेबुल कुर्सी जदली जी की! लेकिन कभी ऐसा भी होता था जब जदली जी बड़ी मासूमियत के साथ कह देते थे- चाय पीऐंगे? तब यूं समझ लीजिए कि आत्म ग्लानि के भाव से कह देते थे-‘जी! चार की सात…!’ तब भी उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि ‘आप चार और चाय-चार की सात! पैसे आप चार के देंगे। किंतु गिलास तो तुम कमीनों के सात ही धोने होंगे।’ जदजी जी आप जहां भी हैं- इस धृष्ठता के लिए हमारी ओर से क्षमा प्रार्थनीय है।

जदली जी के प्रतिष्ठान से जुड़ी एक बात और याद है! कभी-कभी हम फक्कड़ों की आड़ में कुछ सिरफिरे लोग उनके साथ बेमानी भी करते थे। दरअसल हम फक्कड़ों ने जिस कमरे को अपने बाप का समझ रखा था। उसी से होकर एक बाहर निकलने का भी रास्ता था। सिरफिरे वहां बैठकर चाय पीते! जलेबी खाते! और चुपके से उस रास्ते से नौ दो ग्यारह हो जाते थे। जदली जी इस सब से बेखबर सहायक से कहते- ‘अरे! जरा वहां जाकर देख -उनको कुछ और तो नहीं चाहिए?’ सहायक जाता और लौटकर बताता-‘साहब वहां तो कोई नहीं है!’

दूसरे दिन जदली जी हमें किस्सा सुनाकर कहते- ‘देखो यहां ऐसे भी लोग आते हैं। आते हैं! खाते-पीते हैं और चुपके से चले जाते हैं! लेकिन आपसे हमें कोई दिक्कत नहीं हैं! बैठे हो! जब तक चाहो बैठे रहिए!’ हम कहते- भाई साहब ये तो आपके साथ सरासर बेमानी हुई है-आप चिंता न करें हम उन लफंगों का पता करेंगे!’ वे जवाब देते- ‘अरे हम तो खा ही लेंगे! लेकिन चिंता ये हैं कि ये लोग कब तक ऐसा करते रहेंगे?’ थोड़ा आगे बढ़ते फिर कुछ सोच कहते- ‘दुनिया है जी! न मिलें तो कोई बात नहीं! मिल जाएं तो प्यार प्रेम से समझाना! लेकिन हाथापाई मत करना भई!’ जदली जी! आप जैसी विभूतियां अब कहां मिलेगीं?

विकास यात्रा जारी है…

(चित्र साभार सोशल मीडिया से)