विकास मेरे शहर का – 4
नरेन्द्र कठैत
हम जानते हैं शहर में कूड़ा- कचरा ‘विकास’ का है। और ‘विकास’ किसका है? हम सबका है। लेकिन हम एक दूसरे से पूछते हैं- ‘ये कूड़ा- कचरा कौन डाल रहा है?’ माना कि हमारा ‘विकास’ गलत रास्ते पर जा रहा है! या हमारा ‘विकास’ हर किसी के आगे समस्या खड़ी कर रहा है! तो उसका उपाय क्या है? एक दिन सोचा इस कूड़े- कचरे को अपना ही समझूं। और इसके निस्तारण का कुछ उपाय करूं! फिर सोचा- ‘क्या उपाय करूं?’ तब से अजीब स्थिति से गुजर रहा हूं। मुंह आगे खड़ी समस्या को देख भी रहा हूं लेकिन- चिंता और उपाय के बीच ही झूल रहा हूं। वैसे शहर भर में कूड़े -कचरे की चिंता करने वाला-मैं मात्र अकेला नहीं हूं। जोे मैं सोच रहा हूं-शहर भर के लोग वही सोच रहे हैं।
ऐसा भी नहीं कि शहर के लोग आज से पहले सोचते ही नहीं थे? शहर में एक से एक त्यागी हुए, तपस्वी हुए। ललित मोहन कोठियाल शहर में एक ऐसे ही त्यागी और तपस्वी थे। वे दिनभर सोचते, उपाय खोजते रहते थे। और रात में जाग कर लिखते ही रहते थे। इसी उम्मीद में कि शायद कोई उनका लिखा हुआ पढ़े और जागे। लेकिन इस मामले में वे त्यागी होकर भी अभागे ही रहे। ललित मोहन छड़े थे। गुरु भवन में वे अकेले ही रहते थेे। हम सोचते थे वे -जब जो मर्जी पकाकर खा लेते होंगे। किंतु इस मामले में हम उनके करीब होकर भी अंधे रहे। वे एक रोज अचानक बीमार हुए। पड़ोस से देवानन्द और मनोहर चमोली उन्हे जिला अस्पताल ले गए। जिला अस्पताल ने हाथ खड़े किए-तो हड़बड़ी में ही वे उन्हें बेस अस्पताल ले गए।
याद है 6 अक्टूबर दो हजार अठारह का वह मनहूस दिन जब दोपहर ढलने ही श्रीनगर के बेस अस्पताल से बदहवास सा देवानन्द ने फोन किया – ‘ कठैज भैजी! ललित भाई नहीं रहे! मैं अकेला हूं तुरन्त बेस अस्पताल आ जाएं!’ हमारे लिए बज्र पात जैसी घटना थी ये। पौड़ी से जिसको जैसे ही सूचना मिली – सीधे श्रीनगर भागे! पत्रकार मित्र त्रिभुवन उनियाल, समाज सेवी भ्राता अनिल स्वामी भी पहुंचे। एक-एक कर सब आगे बढ़ते। स्टेचर पर अचेत लेटे ललित के पास जाते। और कहते – ‘ललित भाई हम हैं!’ ‘आंखें खोलो! देखो कौन है!’ इस उम्मीद के साथ कि वह जागे। लेकिन न ललित ने आंखे खोली न वे जागे- वे चल बसे। बहुत दिनों बाद उनके पड़ोसी अनुज देवानन्द ने बताया कि ललित कई दिनों तक कुछ खाते ही नहीं थे। कभी पानी में बिस्कुट भिगोकर खाते थे। आज सोचते हैं! वे ये सब किसके लिए कर रहे थे? जवाब एक है इसी शहर के ‘विकास’ के लिए! बंधुओं! यहां ‘विकास’ के लिए मरने-खपने वाले कदम-कदम पर ऐसे ही हीरे रहेे हैं। जो मरने के बाद भी हमने नहीं पहचाने हैं।
ऐसा भी नहीं कि इस शहर के सभी विकासवादी सोच के लोग ललित जैसे ही समर्पित रहे। शहर में कुछ लोग ऐसे भी थे – जो ‘विकास’ विरोधियों के खिलाफ एकजुट दिखते थे। हाय! हाय! के नारे लगा रहे थे। जोश भरे भाषण दे रहे थे। रोज अखबारों में छप रहे थे। हमें राम राज्य का पाठ पढ़ा रहे थे। शहर के विकास के लिए हमारे ही मुंह पर राख पोतकर शहर भर में हमारी ही शिव बारात निकाल रहे थे। या यूं क्यों न कहें वे जो कुछ भी कर रहे थे -उस पर वे हर शहरवासी से वाह वाही लूट रहे थे। लगता था यही लोग शहर के ‘विकास’ को अब सही राह देंगे। लेकिन विडम्बना देखिए – वे भी इस शहर को बाय! बाय! कह गए। वो शहर जिसमें पले-बढ़े उसी को बाय? बाय? अरे ‘विकास’ तू भी कैसे-कैसे हाथों की कठपुतली रहा रे!
कुछ लोग कहते हैं कि जो गाहे-बगाहे इस शहर को छोड़ कर चले गए हैं -वे बिना ‘विकास’ के नहीं जा सकते थे। और कुछ लोगों का ये भी कहना है कि वे इस शहर का ‘विकास’ भी अपने साथ ले गए हैं। और इस शहर में अपना कूड़ा- कचरा छोड़ गए हैं। सवाल उठता है वे कितना कूड़ा-कचरा छोड़ गए हैं? उधर मेसमोर के गधेरे में तो हम कूड़ा-कचरा महीनों से नहीं बल्कि वर्षों से जलता हुआ देख रहे हैं। क्या इस शहर को छोड़ने वाले इतना कूड़ा -कचरा छोड़ गए हैं? क्या वो इस शहर में कूड़ा-कचरा ही जमा कर रहे थे? बंधुओ! हम शहर छोड़ने वालों को ही क्यों दोष दें? हम भी कहां दूध के धुले हुए हैं। अभी भी इस शहर में बहुत कुछ कूड़ा -कचरा बाकि है! इस शहर में अगर अभी भी गन्दगी है तो उसमें भागीदारी हमारी भी है। तो उसेे जलने दें! ये कूड़ा -कचरा जलना ही चाहिए। इसे राख होने तक मिट्टी में मिलने दें। क्योंकि हमें न किसी कि हाय! हाय! चाहिए! न बाय! बाय! चाहिए! हमें नई पौध के लिए खाद चाहिए। साफ हवा चाहिए।
हालांकि! शहर में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सफाई पसन्द हैं। सोचता हूं उनका क्या कसूर है। वे तो गेहूं के साथ घुन की तरह पिस रहे हैं। चिन्ता हमें उन्हीं की है। वास्तव में निर्दोष होकर भी उन्होंने इस शहर के कूड़े- कचरे की गंध में बड़े कष्ट सहे हैं। किंतु आज भी वे हारे नहीं हैं। कहते हैं एक दिन कूड़ा-कचरा साफ होगा। लोग पूछते हैं – ‘कैसे?’ वे जवाब देते हैं- ‘जब शहर जागेगा! तब असली ‘विकास’ होगा। और वही ‘विकास’ शहर भर का कूड़ा-कचरा साफ करेगा।’
वे सही कहते हैं ‘सोकर नहीं जागकर ही ‘विकास’ होगा।’ हम भी आशावादी हैं। शहर में जितने ‘विकास’ हो सकें होने ही चाहिए। कुछ ‘विकास’ भाषा के होने चाहिए, कुछ ‘विकास’ कला के होने चाहिए, कुछ ‘विकास’ संस्कृति के होने चाहिए, कुछ विकास संस्कार के चाहिए, कुछ ‘विकास’ शिल्प के चाहिए। हमें नीति के क्षेत्र में भी ‘विकास’ चाहिए। लेकिन राजनीति का ‘विकास’ इस शहर के माफिक नहीं है। जितना सम्भव हो सके राजनीति के ‘विकास’ की ओर हाथ जोड़ दें। लेकिन सबसे पहले यह प्रण करें कि हम सोएंगे नहीं, हर हाल में जागेंगे!
हम ‘विकास’ से दूर हैं फिर भी घबराए नहीं हैं। रोज कंडोलिया देव के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे हैं कि- जो इस शहर का ‘विकास’ कहीं और ले गए हैं या इस शहर को बाय! बाय! कर गए हैं- प्रभू आप उनकी भी रक्षा करें! किंतु लगता है कंडोलिया देव के आगे खड़े होकर हम अपने कर्तव्य ही भूल गए। क्या कंडोलिया देव ने कभी ये कहा कि हम हाथ जोड़कर ही खड़े रहें-कुछ काम ही न करें। हम देख रहे हैं- हम आज भी दोराहे पर खड़े हैं। हमारे आगे घने झाड़ हैं। हम जानते हैं वो उखाड़े जा सकते हैं। उखड़े न तो काटे जा सकते हैं। लेकिन हमने न वे उखाड़े हैं और न काटे हैं। मन में सभी यही सोच रहे हैं कि ये काम ‘विकास’ का है- ‘हम क्यों करें?’ बस समाज को दिखाने भर के लिए कर्तव्य निभा देते हैं।
सपने में देखा हम व्यवस्था को एक पत्र सौंप रहे हैं। जिसमें लिखा है कि- ‘हमारे इलाके में बाघ,जंगली जानवरों इत्यादि का खतरा है-इसलिए इन झाड़ियों को काटें। अन्यथा किसी भी दुर्घटना के लिए आप जिम्मेवार होगें।’ व्यवस्था ने वो पत्र गौर से पढ़ा और ये शब्द कहे- ‘भाईयों! मेरे शहर के हितकारियों! अभी हमारे पास कर्मचारियों की भारी कमी है। जो हैं उन्हें शहर की साफ सफाई भी करनी है। और किसी को हम ठेका भी नहीं दे सकते!’ हम में से किसी ने पूछा-‘किसी को ठेका क्यों नहीं दे सकते। – ‘क्योंकि हमारे पास पैसे की तंगी है।’ इस बार किसी और ने कहा -‘तंगी नहीं ये बोलो हमारी व्यवस्था निकम्मी है।’ कोई ये भी बोल गया -‘फिर टैक्स क्यों लेते हैं?’ व्यवस्था ने इसका भी संतुलित जवाब दिया-‘भाई साहब! उसी से तो हम आपका कूड़ा-कचरा उठाते हैं!’ -‘क्या कहा कूड़ा-कचरा उठाते हैं?’ -‘जी!’ -‘कहां का कूड़ा-कचरा उठाते हैं?’ -‘पूरे शहर भर का!’ -‘झूठ! सरासर झूठ! आओ हम आपको दिखाते हैं!’
और सचमुच उन्होंने व्यवस्था को सड़क पर पड़ा कूड़ा दिखाया। जैसे व्यवस्था ने वैसे सबने देखा। मैं वहीं खड़ा था। और भली भांति जानता था कि यह वही कूड़ा है -जो वो सज्जन मेरे सामने ही बीच सड़क पर डाल गया था। व्यवस्था भी उस कूड़े को देखकर चिंता में पड़ गया। व्यवस्था ने कहा- ‘सफाई कर्मी अगर सुबह इस सड़क की सफाई कर गया-तो ये कूड़ा सड़क पर कैसे पड़ा रह गया?’ -‘पड़ा रह गया नहीं! ये कहो कूड़ा जहां था वो वहीं रह गया। -‘सफाई वाला आया ही नहीं होगा!’ – एक ने ये भी कह दिया।
फिर तो चुप कोई नहीं रहा। हर कोई कुछ न कुछ कहता रहा- ‘ये मण्डल मुख्यालय के हाल हैं, ये तो गम्भीर लापरवाही है, टैक्स देना ही बंद कर देते हैं, एक मिटिंग कर लेते हैं।’ व्यवस्थापक ये सब चुपचाप सुनता रहा। लेकिन उनमें से एक सज्जन मुझसे ही पूछ बैठा- ‘कहो! आप क्या कहते हैं?’ मैंने सोचा – मैं उस घटना एकमात्र गवाह था। शायद ये कहीं और से देख रहा था। इसीलिए मुझसे पूछ रहा। मैंने वक्त की नजाकत को भांपते हुए संतुलित सा जवाब दिया- ‘भाई साहब! ऐसे में, मैं या आप भी यही कर सकते हैं कि ये कूड़ा उठाकर कहीं और फैंक सकते हैं?’ वो तैश में आ गया- ‘कहीं और कहां फेकेगे? जहां आप फेकेंगे- वे फिर यहां फेकेंगे। फिर आप वहां फेकेंगे-वे यहां फेकेंगे। ऐसे में तो सब कूड़ा ही उठाते रहेंगे।’
बहस बेवजह आग न पकड़े इसलिए एक दो आदमी उन्हें उनके घर की ओर ठेलते हुए ले गए। व्यवस्था ने भी भीड़ विसर्जन से पहले दो टूक जवाब दिया- ‘देखते है क्या हो सकता है!’ उसी शाम को इवनिंग वाक पर निकले मित्रों को कहते सुन रहा हूं कि वह कूड़ा उठ गया है। और अगले माॅर्निंग वाक पर देख रहा हूं कि सफाई कर्मी पुराना नहीं नया है। साफ देख रहा हूं झाड़ मेरे आगे खड़ा है। वो हिलते-डुलते कह रहा है- ‘अब ये घर आधा तेरा, और आधा मेरा है!’ नींद से जागा तो देखा पूरा वदन पसीने से नहाया हुआ है। पास में ही ‘विकास’ का बाप खड़ा है। मुझे होश में आया देखकर ‘विकास’ के बाप ने कहा – ‘आपको बहुत देर बाद होश आया है। बताइए आपके साथ क्या हुआ है?’
मैंने कहा- ‘जो मेरे साथ सपने में घटा है वो किसी के साथ भी हो सकता है। सबके घर के आस-पास के झाड़ कटे हैं या नहीं ? घर-घर जाकर देखो !’ विकास के बाप ने पूछा – ‘अगर न कटें हों तो?’ -‘उन्हें कहो- काटो!’ -‘और अगर वे मना कर दें तो?’’ -‘वे नहीं काटते तो आप उन्हें काटना शुरू करो!’ -‘क्यों?’ -‘क्योंकि आपका ‘विकास’ वहीं छुपा हो सकता है।’ यह सुनकर ‘विकास’ का बाप फिर चिंता में पड़ गया है। सोचो उसकी इस चिंता का हल कैसे होगा?
विकास यात्रा जारी है….
(चित्र साभार सोशल मीडिया से।)