November 21, 2024



विकास मेरे शहर का – 2 पिछली स्याही का आगे का हिस्सा

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नरेन्द्र कठैत


एक दौर में -इसी शहर में हमनें-एक दर्जन से भी अधिक संस्थाओं के बैनर देखे। इन संस्थाओं के अलग-अलग अध्यक्ष,उपाध्यक्ष, सचिव,कोषाध्यक्ष,तकनीशियन,उदघोषक,काॅमेडियन, जोकर, हेल्पर, मेकअप मैन, लाइट मैन, गायक, नर्तकों की फौज के साथ ही हर एक संस्था के अपने तबले, हारमोनियम थे। तब शहर के सभी ‘विकास’ इन संस्थाओं से कहीं न कहीं अवश्य जुड़े हुए थे। लेकिन अपनी मंजिल कोई न पा सके।

हालांकि कुछ सुर अभी भी सध रहे हैं। कुछ साजों के ताल अभी भी सुन रहे हैं। जो लगे हैं, वे लगे रहें। लेकिन विनोद पदरज की एक कविता की ये चारेक पंक्तियां ‘हम’ उस समय के नालायकों के लिए हैं- जो बीच राह से ही भाग खड़े हुए हैं। विनोद पदरज की पंक्तियां हैं कि – ‘परदे फट गए/नगाड़े फूट गए/पोशाकें गल गई/मुकुट छलनी हो गए/सिवा गम के हारमोनियम के/सारे सुर दब गए।’ लेकिन धन्यभाग समझो हमारे कि लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी हम सबकी लाज रख गए। अन्यथा आज हम सभी के मां-बाप मरते दम तक यही कहते रहते कि- ‘और बजाओ हारमोनियम-तबले!’ नेगी जी एक और दूरदृष्टि या यूं कहें काबिले तारिफ का काम कर गए कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम ‘विकास’ नहीं ‘कविलास’ रखा है।


कई लोग कहते हैं कि ‘विकास’ खफा इसलिए है कि उसे महंगी कार चाहिए। उसे गनर चाहिए, आगे पीछे हूटर चाहिए। जहां जाए उसे फूलों के हार चाहिए। विकास भवन, विकास मार्ग नाम रखने से उसका क्या भला होगा? बताओ कहां है विकास भवन में उसके बैठने की जगह? जिसका नाम विकास मार्ग रखा है उसको तो हर कोई अपनी ही चिंताओं के भार से कुचल रहा। बताओ है कोई जो विकास को पूछ रहा? इसलिए कहने का आशय यह है कि विकास को भी जन प्रतिनिधियों जैसे ही अधिकार चाहिए! लेकिन समस्या यह है कि विकास को कहां ढूंढे?


एक दिन मैं भी ‘विकास’ के बाप की चिंता को महसूस करते हुए सड़क से गुजर रहा था। तभी देखा एक सज्जन ने मेरे सामने ही बीच सड़क पर कूड़ा फैंक दिया। मैंने पहले उस कूड़े को आंख फाड़कर देखा और फिर उस सज्जन से कहा- ‘भाई ये क्या?’

उसने उसी रौ में जवाब दिया- ‘कूड़ा!’


-‘लेकिन आपने कूड़ा बीच सड़क पर फैंक दिया।’

-‘तो क्या?’




-‘भाई गलत किया!’

-‘किसने कहा?’

-‘मैंने अपनी आंखों से देखा-आपने सड़क पर ये कूड़ा फैंका!’

-‘हां फैंका!’

-‘क्यों फैंका?’

-‘ये काम नगर पालिका का!’

मैं असमंजस में पड़ गया। जहां था वहीं सोचता रह गया कि- ‘ये कूड़ा डालने का काम नगर पालिका का था- या -कूड़ा उठाने का? या- सज्जन के जिम्मे ये दोनों काम हैं- पहले ये कूड़ा डालेगा और फिर उसे उठायेगा? या क्या इस सज्जन का कहने का आशय यह था कि- जो कूड़ा उसने बीच सड़क पर डाला उसे तो नगर पालिका झक मारकर उठायेगा?’ कई बार सोचता हूं ये शहर है या मजाक! लेकिन ध्यान रहे मैं अपने शहर को गाली नहीें दे रहा।

इस शहर में ‘विकास’ की बाट जोहते और पान चबाते-चबाते कई लोग स्वर्ग सिधार गए। एक बार कभी जमानों में इसी शहर में मैंने तीस पनवाड़ी गिने थे। वे पनवाड़ी शहर भर के विकासाचार्यों की चर्चाओं के केन्द्र थे। वे ही उनके हेड और गरमा-गरम बहस के दौरान रेफरी होते थे। वे कुछ को इधर और कुछ को उधर धकेल देते थे। ताकि डंडे न बरसें। कोर्ट कचहरी से बचें। क्योंकि तब विकासाचार्य होते ही ऐसे थे । मालूम ही नहीं होता था कि वे पान चबा रहे हैं या किसी का खून पी कर आ रहे हैं। अब अधिकतर स्वर्ग सिधार गए हैं। गिने चुने पनवाड़ी रह गए हैं। जो पनवाड़ी रह गए हैं वे पान और दुकान की सीमा जानते हैं। और जो पुराने विकासाचार्य रह गए हैं। वे कहते हैं भाई पान का शौक तो पूरा करते हैं लेकिन ‘विकास’ है नही तो किससे और क्यों चर्चा करें। जो पुराने पान के प्रतिष्ठान बंद हुए उनकी जगह किसी और वस्तु के प्रतिष्ठान खुल गए हैं। लेकिन आज भी वे पुराने पान के प्रतिष्ठान दिमाग से नहीं उतरे हैं।

एक घटना हुई। घटना का क्या? घटना कहीं भी हो सकती है। हम तो यहां तक कहते हैं कि आदमी घटनाओं के बल पर ही चलता है। वे लोग गलत हैं जो कहते हैं कि आदमी घुटनों के बल चलता है। घुटनों का क्या चलते-चलते आदमी के घुटने जवाब दे सकते हैं, हाथ-पांव सुन हो सकते हैं, आंखे-कान-नाक-मुंह बस बंद हो सकते हैं लेकिन घटना उसके साथ फिर भी चिपकी रहती हैं-जौंक सी। यहां तक कि घटना आदमी को मौत के बाद भी नहीं छोड़ती। मौत को घटना, दुर्घटना कहती है। और फिर आदमी को पोस्ट मार्टम के लिए छोड़ देती है।

कुल मिलाकर यदि कहें तो कह सकते हैं कि आदमी घटनाओं का गुलाम है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि घटनाएं आदमी के चलने-फिरने के बाद ही होती है। घटनाएं तो आदमी के घुटनों के बल पर चलने से पहले से ही घटने लगती हैं। घटने शब्द का अर्थ आप घट जाना न समझ लें। यहां घटने का अर्थ घटने-बढ़ने वाले अर्थ से नहीं है। यहां घटना को आप एक बुनियाद मान लें जिसके ऊपर घटनाओं की इमारत बढ़ती जाती है। इसलिए एक ओर जहां आदमी घटनाओं का गुलाम है। वहीं दूसरी ओर आप ये मान लें कि बिना घटना के कोई भी काम नहीं होे सकते।

किंतु उस घटना से पहले एक और घटना सुन लें! पिछली शताब्दी के अंतिम दशक की किसी तिथि को गोपेश्वर शहर में एक वस्त्र भण्डार में बैठा था। एक नौ दस साल का ग्रामीण बालक नंगे पैर दुकान में दाखिल हुआ। बालक की मां दुकान के बाहर ही खड़ी रही। बालक ने सीधे दुकानदार से गढ़वाली भाषा में पूछा- ‘भैजी तुमारा यख कड़ै बि च?’(भाई तुमारे यहां कड़ाही भी है?)। दुकानदार ने मंद-मंद मुस्कराते हुए जवाब दिया- ‘ब्यटा य कपड़े दुकान च-लौखरै नी? ’(बेटा ये कपड़े की दुकान है -लोहे की नहीं।) उस बालक के बाहर निकलते ही दुकानदार मुझसे मुखातिब होकर बोले- ‘भाई साहब इसमें बच्चे का दोष कहां है? पहाड़ में जगह-जगह ‘विकास’ रूका पड़ा है। इस बच्चे को क्या मालूम किस चीज को कहां से खरीदना है?

ये घटना पुरानी। लेकिन याद रही!
किंतु कुछ महीने पहले इसी घटना से मिलती जुलती एक घटना मेरे साथ -मेरे ही शहर में भी घटित हो गई। हुआ ये की! मैंने पूर्व के अंदाजे से ही एक दुकान के बाहर से कह दिया- ‘भाई एक पान लगा दे?’ उधर से जवाब सुना- ‘भाई जी क्या कहा?’ मैंने आंख फाड़ गर्दन कुछ अन्दर डालकर देखा- अरे! ये तो बर्तन की दुकान है। तुरंत कहा- ‘अरे भाई गुस्ताखी मुआफ करें! इस गली की ओर काफी लम्बे समय बाद कदम बढ़े हैं!’ उसके बाद बर्तन वाले ने जो शब्द कहे-वे भी याद हैं-‘ भाई जी! पान की दुकान बंद कर बर्तन की दुकान खोल बैठे। यही सोचकर की ‘विकास’ होगा तो बर्तन बिकेंगे। देख रहो आप! बाजार में दिखने भर की रौनक है। सारा व्यापार चौपट है। ये समझो सड़क पर आने की नौबत है।’ -‘अरे भाई मेरे शब्दों को अन्यथा न लें। मजाक ही समझ लें!’ -‘भाई जी! हमारे पास तो हंसी मजाक का भी समय नहीं है। दिन भर ग्राहकों के न आने से कुपित हैं। जो आ रहे हैं उन्हें भी झेल रहे हैं। अपनी ही चिंताओं के ताप से तपे हुए हैं।’

तो सुना आपने! ये पहाड़ पर एकमात्र ऐसा शहर है जहां समस्याओं से ज्यादा चिंताएं हैं। और हर कोई अपनी ही चिंताओं के ताप में तप रहे हैं। बंधुओं ! इस शहर को कूड़ा डालने वालों, सड़क के मुंह पर थूकने वालों, सड़क के कलमठ बंद करने वालों, सड़क की कमर तोड़ने वालों, अतिक्रमण करने वालों-या सपाट शब्दों में सीधे क्यों न कह दें कि-पौड़ी में -किसी को भी-किसी से भी- कोई दिक्कत ही -नहीं है। लेकिन आश्चर्य है! फिर भी सब चिंतित हैं। सबकी जुबान पर एक ही रटा रटाया वाक्य है कि पौड़ी में ‘विकास’ क्यों नहीं है? हमें तो ये लगता है कि इस शहर की -जन्म कुंडली में भी चिंता की लकीरें ही लकीरें हैं। और- जहां चिंता होती है वहां अगर ‘विकास’ होता भी है तो ‘विकास’ दिखता नहीं है।

अभी कुछ दिन पूर्व जंगल भयंकर आग से धधक रहे थे। सेना के हेलीकॉप्टर आग बुझाने में लगे हुए थे। एक सज्जन चिंतित दिखे। मैने कहा-‘ भाई साहब! क्या बात है आप चिंतामग्न हैं?’ कहने लगे-‘ आग लगी है।’ मैंने जवाब दिया-‘वास्तव में ये बहुत बड़ी क्षति है!’ उन्हे आगे कहते सुना-‘भाई इस समस्या का हल आज नही तो कल होना ही है। या तो पानी बरसेगा या आग थकेगी। लेकिन एक बात बताइए! ये पेड़ लगाने का काम व्यवस्था ने किसको सौंप रखा हैै?’ मैंने जवाब दिया- ‘वैसे वन विभाग को ही सौंप रखा है।’ उन्होंने तपाक आगे पूछा- ‘और जंगल की आग बुझाने का काम किस महकमेें का है?’ मैंने कहा- ‘मुख्यरूप से ये काम भी वन विभाग ही देखता है।’ आगे सुना- ‘फिर ये दोनों काम एक ही महकमें के जिम्में क्यों हैं?’ सीधे सवाल दागा-‘ये आग आपकी समस्या है या चिंता है?’

वे सर खुजलाने लगे। जानता हूं उनकी ‘समस्या’ भी आग है। लेकिन उनकी समस्या से पहले ‘चिंता’ खड़ी हो गई है- कि एक ही विभाग के पास दो विभाग क्यों हैं? अब वे चाहकर भी आग नहीं बुझा सकते। ‘विकास’ के बाप को भी नहीं मालूम ऐसी चिंताओं का हल कैसे हो पायेगा? मैंने पास ही खड़े विकास के पिता से पूछा- ‘आप ही सोचिए क्या भविष्य में ‘विकास’ इन चिंताओं का सामना कर पायेगा? ‘विकास’ के पिता ने याचना भरी मुद्रा में मुझसे ही पूछा- ‘बंधुवर! आप ही बताइए हमें ‘विकास’ के भविष्य के लिए क्या करना होगा?

मैंने ‘विकास’ के पिता को जवाब दिया- ‘चिंता मत करो भ्राता!‘ प्रजातंत्र में हम सबका एक ही पिता है। और वह है- व्यवस्था! ‘विकास’ को आगे बढ़ाने से पहले व्यवस्था को ऐसे चिंतित लोगों का सर्वे कराना होगा। फिर सर्वे के बाद सबकी चिंताओं का इस्टीमेट बनेेगा। चिंताओं का इस्टीमेट बनने के बाद उसके लिए विधान सभा में अलग से बजट पारित कराना होगा। बजट में उसका नाम होगा- ‘चिंता मद!’ उस मद से ही चिंतित लोगों का इलाज होगा।

मेरे कंधे से सटा एक व्यक्ति जो अभी तक चुप था- लेकिन सुन रहा था। उसने कहा-‘ तब किसी को दवा मिलेगी किसी को हवा!’ एक और ने कहा- ‘तब फिर हो हल्ला होगा! जो क्षति होगी उसकी भरपाई कौन करेगा?’ हमारे चारों ओर खड़े लोगों ने एक स्वर में कहा- ‘विकास करेगा!’ इतना सुनते ही ‘विकास’ का बाप अब और भी सदमें में आ गया।

विकास यात्रा जारी है….

चित्र साभार सोशल मीडिया से।