February 23, 2025



विकास मेरे शहर का – 1

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नरेन्द्र कठैत


मालूम नहीं इसमें क्या राज छुपा है कि हमारे पूर्वजों ने हमारा, हमने अपने पुत्रों का, पुत्रों ने नातियों का और नातियों ने हमारे पोतों का नाम भी ‘विकास’ ही रखा है। ऐसा नहीं कि ‘विकास’ नाम नया है -या- ‘विकास’ नाम हमने ही खोजा है। ऐसे ही और- घर परिवारों में भी ‘विकास’ हुआ है, ‘विकास’ है- और ऐसा कदापि नहीं कि आगे ‘विकास’ नहीं होगा । या- यूं क्यों न कहें कि ऐसा कोई हो ही नहीं सकता है -जिसका किसी न किसी ‘विकास’ से कोई नाता नहीं रहा है। क्योंकि ‘विकास’ होता ही ऐसा है। हमने तो यहां तक देखा है कि आप जहां चाहते हैं -‘विकास’- वहां नहीं होता है। और जहां जरा भी उम्मीद नहीं करतेे-‘विकास’ वहां हो जाता है। कहीं-कहीं तो ऐसा भी होता है कि -न चाहते हुए भी ‘विकास’ होता रहता है। जनगणना भी कहती है भई! -कि जनसंख्या वृद्धि में भी सबसे बड़ा हाथ ‘विकास’ का ही होता है। अब उन लोगों को-कौन और कैसे समझाएं जो बिना सोचे समझे कह जाते हैं कि- ‘विकास’ कहां है?’ और- ‘विकास’ होता क्या है?’ अरे भाई ‘विकास’ है। और- ‘विकास’ होता है।

बंधुओं! एक बात को -और ध्यान में रखना है। ‘विकास’ को नकार देना बेवजह कलह को बढ़ावा देना है। या यूं भी कह सकते हैं कि ‘विकास’ को नकारना सरासर लोकतंत्र की हत्या है। इसलिए कोई बिना सोचे समझे, गुस्से या जानबूझकर भी आपके मुंह लगे-और आपसे पूछे कि-‘विकास’ कौन है?’, ‘विकास’ कहां है?’ या-‘विकास क्या है?’ – तो बेवजह अपनी कमीज के आस्तीने ऊपर और कॉलर खड़े न करें। ऐसे मौकों पर एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक की भूमिका में ही रहें।


अभी हाल ही में एक ‘विकास’ ने अपने पिता से सवाल पूछा- ‘पिता श्री! गांव की आम पगडडियों को आपने सड़क के साथ किस उम्मीद से जोड़ा है? और आपके आगे एक प्रश्न और खड़ा है कि – ‘सड़क के नाम पर खेत खलिहानों की तिलांजलि देने का कारण क्या है?’ जानते हो! पिता ने उस ना समझ ‘विकास’ को- क्या जवाब दिया है। पिता ने कहा- ‘सबसे पहली बात तो ये कि हमने अपने खेत खलिहानों को बेचा नहीं, सड़क ने ही उन्हें हड़पा है। पुत्र! इसे आसान शब्दों में समझना चाहें तो कह सकते हैं कि हमारी ही आंतों को खींचकर ये सड़क लम्बी और हमारे ही पेट को उधाड़कर इसका फाट चौड़ा हुआ है।’ पुत्र ने पिता की ओर अगला सवाल दागा- ‘लेकिन आप चुप क्यों रहे? सड़क के विरोध में आप और हमारा सारा कुटुंब खड़ा क्यों नहीं हुआ?’


-‘क्योंकि मेरे पिता -जो तब सबके गार्जन थे -उन्होंने सबको समझाया है कि हमारे अपने ही पुरखों के बलिदान की भांति ही इन पुश्तैनी खेतों का बलिदान भी हमने ‘विकास’ की खातिर ही किया है।’ ‘विकास’ इन अप्रत्याशित शब्दों को सुनकर हतप्रद रह गया। उसने सोचा मेरा सारा जेब खर्चा मेरे पिता ही उठाते हैं। दादा तो कभी उसे एक रूपया तक नहीं पकड़ाते हैं। ये तो सरासर गलत है। दादा ने बिना विचारे ही मुझपर ये लांछन मढ़ा है।

इसलिए ‘विकास’ तब से -घर से भाग खड़ा हुआ है।


‘विकास’ का यूं रुठकर भाग जाना भी दादा बर्दाश्त न कर सका है और चल बसा है। विकास का दादा जब ‘विकास’ के सदमे में चला गया। तो- एक दिन ‘विकास’ के पिता ने कमान सम्भालकर गुस्से में सार्वजनिक रूप से कह ही दिया कि- ‘इतना त्याग करने के बाद भी अगर ‘विकास’ हाथ नहीं आ रहा है – तो ‘विकास’ की जो मर्जी कर ले-जो उसने उखाड़ना हो -वो उखाड़ ले।’

बंधुओं! हो भी तब से यही रहा है। उसकी मर्जी वो जब उठे, उसकी मर्जी वो जब सो रहा है। अब ‘विकास’ का मन एक जगह नहीं जमता है। वह कभी अनमने, कभी मनमाने ढंग से काम निबटा रहा है। और सवाल उठाने पर देख लेने की धमकी देता है।




किंतु हमारा तो सोचना यह है कि -‘विकास’ का मन माफिक उठने-जागने, उसका किसी भी काम में मन न लगने, अनमने या मनमाने हो जाने में सड़क का दोष क्या है? आज तक किसी भी माई के लाल ने यह नहीं कहा है कि सड़क से हमें कोई फायदा नहीं हुआ है। बता दें! अगर किसी ने कहा है। ‘विकास’ को गर्व हो न हमे तो है कि- सड़क के सहारे ही आज भी हमारा विकास खड़ा हुआ है। और सड़क से बढ़कर ही हर एक के ‘विकास’ का ‘विकास’ हुआ है। लेकिन जिसको महसूस होना होता है उनको-यह जरूर महसूस होता है कि आम जन की भांति-पगडंडी और सड़क के भाग्य में सदियों से तक रौंदा जाना ही लिखा होता है।

‘विकास’ को आगे ठेलने के लिए जितनी दुर्दशा- धरा का यह भाग ढोता है, उससे न किसी को कोई मतलब होता है- न कोई कुछ लिखने की ही कोशिश करता है। बस, हर किसी का ध्येय उसे नापकर आगे बढना और उसे पीछे छोड़ना होता है। कौन कहता है पगडंडी और सड़क को दुख दर्द नहीं होता है? पगडंडी और सड़क धरा का वह अभागा भाग होता है जो दुख-दर्द-पीड़ा तो महसूस कर सकता है लेकिन वह न कभी कह सकता है और न रो पाता है।

पगडंडी और सड़क से जुड़ा एक कटु सत्य यह भी होता है कि- जब भी धरा का यह भाग असह्य पीड़ा के दवाब से फटता है तो इस युग में भी उसका बस एक ही इलाज होता है। वह यह कि- उसके घावों को मिट्टी पत्थर से भरकर चारकोल से ढक दिया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में भी पगडंडी और सड़क से बड़ा त्याग भला और किसका हो सकता है? सवाल ये भी है कि- आखिर पगडंडी और सड़क के हिस्से की संवेदनाओं को क्या हमारा ही ‘विकास’ खा गया है ?

विडम्बना देखिए- पगडंडियों

और सड़कों की दुर्दशा को नंगी आंखों से देखने पर भी हमारी जुबान पर मात्र एक ही रटा रटाया वाक्य होता है कि ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी होता है।’ लेकिन बहुत कुछ खोने के बाद कुछ पाने की इस चाह में हर कोई जमाने भर की धूल खा रहा है। हर उस धूल में ही नहा रहा है। लेकिन- जो धूल हमारे अंदर जा रहा है। वह अंदर ही अंदर उत्पात मचा रहा है। आंखों पर नजर का मोटा चश्मा लगता जा रहा है। नाक,कान,गला बंद हो जा रहा है। फेफड़ा सांस नहीं भर पा रहा है। हमारे पेट में- आखिर मर्ज क्या है वह मशीनों की भी पकड़ में नहीं आ रहा है। यह सब किसी न किसी ‘विकास’ का ही तो- करा धरा है ।

लोग कहते हैं- ‘अब बीमारी पहले से दुगुनी बढ़ गई है। क्योंकि ‘विकास’ के साथ अब ‘प्रगति’ भी जुड़ गई है। किसी ने कहा – ‘विकास’ की नाकामी में ‘प्रगति’ को मत घसीटिए! चिंता करनी है तो ‘विकास’ की कीजिए! -ये किसने कहा कि -हम ‘विकास’ की चिंता नहीं करते? अब पहाड़ की छाती पर पसरे ‘पौड़ी’ शहर को ही देख लीजिए! कौन ऐसा डाक्टर है जिसको हम अपनी नब्ज नहीं दिखाते? कौन सा इलाज है जो हम नहीं करते? कौन सी ऐसी दवा है -जो हम नहीं खाते?’ -भाई ये तो मंडल मुख्यालय है। हम तो चाहते हैं ये हमारे बुढ़ापे का सहारा बने। एक नौजवान बीच में कूद पड़ा- ‘विकास’ हो तो रहा है!’

हमे उसे टोकना पड़ा, लेकिन सहज व्यवहार के साथ- ‘ये हमने कब कहा विकास नहीं हो रहा है। मानते हैं तर्क के तौर तरीके भी बदल गए हैं । हमारे भी पांव अब कब्र की ओर हैं-लेकिन तुम तो नौजवान हो बेटे! तुम्हारे माथे पर क्यों हैं ये बुढ़ापे की सलवटें? हम जानते हैं इस शहर के विकास के लिए व्यवस्था के अतिरिक्त कई सभा -समितियां गठित हैं। ‘विकास’ के लिए ये सब सुटेबल ही है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस शहर में पहले सभाएं नहीं हुई हैं या संस्थाएं नहीं रही हैं।’

…जारी है।

(फोटो साभार सोशल मीडिया से)