December 3, 2024



उत्तराखंड में शीतकालीन पर्यटन

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


हर साल उत्तराखंड में शीतकालीन पर्यटन की बात जोर – शोर से की जाती रही है. लेकिन उसके परवान पर चढ़ने से पहले ही चार धाम यात्रा की अगली ग्रीष्मकालीन यात्रा फिर मुख्य मुद्दा बन जाता है. इस बार बद्री केदार मंदिर समिति के अध्यक्ष अजेन्द्र भट्ट ने चारधाम यात्रा की शीतकालीन यात्रा को भब्य बनाने को भी तरजीह दी है. उन्होंने गंगोत्री व यमनोत्री मंदिर समिति के पदाधिकारियों के साथ मिलकर एक अच्छी पहल की है. दरअसल चारधामों की शीतकालीन यात्रा सदियों से प्रचलित रही है. दर्शनार्थी जोशीमठ, उखीमठ, मुखबा व यमुनोत्री के शीतकालीन आवासों पर आकर बद्री-केदार व गंगा-यमुना के दर्शन करते रहे है. लेकिन इसका प्रचार-प्रसार ब्यापक न होने से अधिकांश लोगों, खासकर उत्तराखंड से बाहर के प्रदेशों के लोग कम मात्रा में शीतकालीन दर्शनों हेतु उत्तराखंड प्रदेश पहुंचते है.

बात सिर्फ चारधामों की ही क्यों हो, पूरा उत्तराखंड शीतकाल में अनेकों उत्सव में डूबा रहता है. महीनों तक चलने वाली देव यात्रायें, पांडव निर्त्य, मेले, तीज, त्यौहार, स्नान, ध्यान सहित रोमांचक पर्यटन, ट्रैकिंग, स्केटिंग, राफ्टिंग, बोटिंग आदि विविध पर्यटन व अन्य मठ – मंदिरों को भी शीतकालीन पर्यटन गतिविधियों से जोड़ा जाना चाहिए. उत्तराखंड के पास सैकड़ों पर्यटन प्रोडक्ट है. जब से सोसल मीडिया लोगों में लोकप्रिय हुआ है तब से हर दिन किसी न किसी गांव – घाटी से कुछ न कुछ अनोखा फोटो – विडियो दिख जाता है. इतनी विविधता वाला प्रदेश, अगर अभी भी अपने आप को नहीं पहचान पाया है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है. उपरोक्त बातें तो पृथक राज्य बनने के वक़्त हो जानी चाहिए थी? व उस हेतु सार्थक पर्यटन नीति बन जानी चाहिए थी? अगर ये सब कुछ हो चूका होता, तो अपने पहाड़ी राज्य के राजस्व में पर्यटन व तीर्थाटन सबसे अहम् भूमिका निभा रहा होता व राज्य को राजस्व के लिए हाथ नहीं फ़ैलाने पड़ते.


इस बार पहाड़ों में बारिश व बर्फवारी न होने से पर्यटन गतिविधियाँ धीमी रही. सर्दियों के इस मौसम में पहाड़ के जंगल आग से झुलसते रहे. जिस तरह मौसम के मिजाज दिख रहे है, इस हिसाब से पहाड़ में गर्मियों में भी जंगलों में आग लगेगी ही, यानि इस बार दो सीजन आग के होंगे. पहाड़ों में सर्दियों में भी आग लगने की घटनाएं होती रही है, लेकिन इस बार लगभग पुरे प्रदेश में आग की ज्यादा घटनाएँ हुई है. इस बात को कोई नहीं नकार सकता कि, आग गांव वाले ही लगाते रहे है. इसके पीछे नयी घास उगाने की धारणा हो या और कुछ. अगर आज भी जंगलों की आग लगाने को लेकर अगर ग्रामीण जागरूक नहीं है तो यह ब्यवस्था व विभाग की कमी ही कही जाएगी.


बर्फवारी न होने से नए साल के सरे जश्न फीके रहे. टोंस घाटी के गोविन्द पशु विहार के पर्यटक स्थल इन दिनों पर्यटकों के लिए तरसते रह गए. केदारकांठा में बर्फवारी न होने से पर्यटक नहीं पहुंचे, हर की दून ट्रैकिंग भी परवान नहीं चढ़ पायी. पार्क प्रशासन ने भी वक़्त की नजाकत नहीं समझी और केदारकांठा में सीमित पर्यटकों को ही जाने की अनुमति ट्रैकिंग कंपनियों पर भारी पड़ गयी, लिहाजा उनको अपनी बुकिंग भी सीमित करनी पड़ी. इस पर स्थानीय लोग भड़क पड़े और पुरोला में झुलूस व प्रदर्शन किया. यह बात यहाँ तक पहुँच गयी कि स्थानीय विधायक को वन मंत्री के आवास पर धरना तक देना पड़ गया. इससे सरकार की बड़ी किरकिरी हुई और मुख्य सेवक को मोर्चा संभालना पड़ा.

पर्यटन स्थलों में धारण क्षमता से अधिक पर्यटकों का पक्षधर में कभी नहीं रहा हूँ, निश्चित रूप से इस हेतु विभाग, पर्यटन कम्पनियों, स्थानीय पर्यटक ब्यवसाइयों को आपस में मिल बैठकर इसका हल निकालना होगा. केदारकांठा व चोपता तुंगनाथ में हालात काबू से बाहर हो जाते रहे है. इन स्थानों में भारी भीड़ जुटने पर खुले में शौच व कूड़े के प्रबंधन की समस्या देखी गयी है. खुले में शौच होने से इनके आस –पास के गांवों के जल श्रोत व जल धाराएँ गंदला जाती है. सवाल सिर्फ केदारकांठा व चोपता तुंगनाथ का ही नहीं है. ऐसी स्थिति हर पर्यटन स्थल की है. यहाँ तक कि ऐसे गांव जहाँ देव यात्राओं में हजारों लोग जुटते है. एक – एक परिवार में 50 से 100 मेहमान जुटेंगे तो एक शौचालय से कैसे काम चलेगा? यानि कि 90 प्रतिशत मेहमान खुले में ही शौच करते है. पर्यटन मार्गों में कहीं – कहीं शौचालय तो बने हैं, लेकिन वे बदहाल स्थिति में हैं. कई जगह शौचालयों पर ताले लगे है. ऋषिकेश से आगे कौडियाला के शौचालय पर ताला लगा हुआ है. साफ़ – सफाई पर्यटन की सबसे पहली जरुरत है, इस बात को सरकार को सबसे बड़ी प्राथमिकता देनी होगी.


अंतत:

बात उन दिनों की है जब में श्रीनगर गढ़वाल में पढ़ता था, तो अक्सर सरस्वती पुस्तक भण्डार आना – जाना होता था. वहाँ डिस्प्ले पर एक कविता पुस्तक सजी रहती थी. पुस्तक का नाम था “मेरे जाने के बाद” और लेखक थे डॉ. सुरेन्द्र जोशी. रुपये – पैसे की कड़की विद्यार्थी जीवन में रहती ही थी, जब भी सरस्वती पुस्तक भण्डार जाता, किताब को निहारकर वापस आ जाता, आखिरकार सालभर बाद ही उस पुस्तक को ख़रीद पाया. “मेरे जाने के बाद….” भी एक दीर्घ कविता थी. अभी कुछ महीने पहले डॉ. जोशी जी का फ़ोन आता है कि “मेरे जाने के बाद…” की दूसरी श्रंखला पुस्तक “मेरे जाने…लौट आने के बाद” प्रकाशित हो गयी है. यह मेरे लिए एक अजूबा था. 33 साल बाद मुझे “मेरे जाने के बाद” पुस्तक की यादें ताज़ा हो गयी. फर्क सिर्फ इतना है कि, जिस पुस्तक को खरीदने के लिए मुझे एक साल इन्तजार करना पड़ा था, इस बार डॉ. जोशी जी ने मुझे खुद अपनी नयी कविता पुस्तक भेंट की. सरिता बुक हाउस, नई दिल्ली ने इसे प्रकाशित किया है. कविता का स्वाद लीजिये.




माँ बांध देगी

प्रातः ममता – भरा पाथेय

रख देगी पानी – भरा लोटा देहरी पर

मुझे विदाई देते गंगोत्री – जमुनोत्री

हो जाएगी माँ की आँखें

निरीह गौ – सी निहारेगी मुझे

समझ नहीं पाएगी वह

ममता,

ममता का स्वाद,

मेरे जाने… के बाद.  

चूड़ियाँ – पायल

प्रतीक्षित मौन देह

अब मनायेंगी त्यौहार

तिमिर के उजाले में

आयेगा नया ही स्वाद.

लौट आने के बाद. डॉ. सुरेन्द्र जोशी को अति संवेदनशील रचना पाठकों को पहुंचाने के लिए बहुत – बहुत बधाई.