कुप्रबंधन की भेंट चढ़ी एच.एम.टी.
नरेन्द्र कठैत
एक अदद मचान बनाने के लिए भी कुछ न कुछ समय, श्रम और पूंजी की दरकार होती है। मकान की आकृति भी समय, पूंजी और परिश्रम की बुनियाद पर खड़ी होती है। व्यवस्था के अधीन हर एक योजना, महा परियोजना की एक – एक ईंट के साथ खेत खलिहान और विस्थापन की पीड़ा भी धीरे – धीरे खत्म हो जाती है। लेकिन वह योजना अथवा महायोजना भी कम से कम सौ साल की दीर्घकालिक कल्पना को साकार करती है। किंतु – चौंतीस साल में ही किसी योजना के हश्र की ये तस्वीरें चौंकाती हैं।
लगभग सौ एकड़ में फैली यह बंजर भूमि और ये जर्जर वीरान भवन – शत्रु संपत्ति नहीं है। बल्कि काठगोदाम – नैनीताल मुख्य मार्ग पर रानीबाग में इस प्रदेश की ही संपत्ति है। सन 1982 में एच. एम. टी. ने इसी स्थान पर अपनी घड़ियां बनाने की यूनिट खड़ी की थी। लेकिन 2016 में लगभग 34 साल की अवधि में ही एच. एम. टी. की इस यूनिट की सुइयां ही नहीं अपितु धड़कने भी पूर्ण रूप से थम गई। एच. एम. टी. की उसी यूनिट के खाली पड़े ये आवासीय भवन – न केवल प्रदेश की संपत्ति की बेकद्री है बल्कि, एक परियोजना की घनघोर लापरवाही और कुप्रबंधन की गवाही भी दे रहे हैं। उन कर्मचारियों और उनके परिवारों का क्या हुआ होगा जो एकाएक कंपनी की इस टूट से बिखरे होंगे। सोचकर ही – दिल सहम जाता है।
इन्हीं आवासीय परिसर के एक अहाते की ओर बढ़ते -बढ़ते, आग सेंकते तीन मानव आकृतियां देखी। पास जाकर देखा – उनमें एक पति पत्नी और शायद उनकी बेटी थी। मुझपर नजर टिकते ही व्यक्ति ने पूछा – ‘साहब आप यहां किसे ढूंढ रहे हैं?’ मैंने जवाब दिया -‘एच.एम. टी. की अटकी हुई सुइयों को!’ एक व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ उसने ये बात कही – ‘साहब वो सुई अब यहां कहां मिलेगी? वो पहले बेंगलूर शिफ्ट हुई – अब मालूम नहीं वहां भी है कि नहीं? साहब जी! यहां कभी लगभग दो हजार लोगों का स्टाफ था। आज हर एक ब्लॉक में मेरे जैसे एक दो केयर टेकर हैं ! समझ में नहीं आता मनेजमेंट कहां धोखा खा गई। लेकिन हम तो आज भी हारे नहीं हैं जी!’
एक आम श्रमिक या किसान और कम्पनी के बीच शायद यही अन्तर है। अन्नदाता फसल बर्बाद होने पर कभी खेत नहीं छोड़ता है। वह हिम्मत जुटाकर फिर उसी भूमि से कुदाल उठाता है। लेकिन एच. एम. टी. कम्पनी जरा सा भी नुकसान बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसकी घड़ियों की सुइयां भी दिनभर में कई मर्तबा झुकी होंगी ; यूं टूटी हर्गिज नहीं होंगी। आश्चर्य है एच. एम. टी. एक सुई के बराबर भी सबल न जुटा सकी। एच. एम. टी. हाथ घड़ी न सही – दीवार घड़ियों के साथ तो खड़ी रहती। वह पहाड़ पर अन्य उद्योगों को खड़े करने के लिए एक मिसाल बन सकती थी। और – आज उत्तराखंड को एच.एम.टी. के कुप्रबंधन और व्यवस्था की अदूरदर्शिता से उपजी ये घड़ी न देखनी पड़ती।
परिसर के आस पास सुई न सही, लेकिन उस केयर टेकर की आंखों में उम्मीद की एक किरण अवश्य देखी। वरना सौ एकड़ के इस वीराने में – दो चार जनों के बीच कौन रह सकता है जी! क्या ये पतझड़ इन वीरान आवासीय भवनों तक भी कभी बसंत की खेप लेकर आयेगा। या बसंत भी इस राजमार्ग के बीचों बीच होकर आम पर्यटक की तरह इसे निहारकर आगे बढ़ जायेगा। ऐसा नहीं की व्यवस्था कमजोर है। व्यवस्था का काम ही रुके , ठहरे चर्खे को घुमाना होता है। यहां, घड़ी न सही तो कुछ और निर्माण तो किया जा सकता है। देखते हैं – आगे समय क्या बताता है!