फागूदास की डायरी
देवेश जोशी
फागूदास की डायरी अनमोल है।
इस मायने में कि वो प्रतिनिधित्व करती है उन लाखों भारतीयों का जिनका नाम – पता ना ही किसी मतदाता सूची में मिलता है और न ही जिन्हें किसी कार्ड (राशन, वोटर, आधार जैसे) की गरिमा प्राप्त होती है।कहने को डायरी है पर है आत्मकथा। आत्मकथा एक ऐसे इंसान की जिसका, आठ बरस की अवस्था से किसी ने साथ दिया तो बस संघर्ष ने। गौरतलब ये कि जहाँ एक ओर सुशिक्षित लोग भी आत्मकथा के लिए परमुखापेक्षी रहते हैं वहीं औपचारिक रूप से अशिक्षित एक संसाधनविहीनआवारा घुम्मक्कड़ ने न सिर्फ डायरीनुमा आत्मकथा लिखी है बल्कि इसके माध्यम से अपने जीवन के कालखंड के भारतीय समाज को समझने का अवसर भी दिया है।
लगभग सारे उत्तरी भारत और पूर्वोत्तर को अपने कदमों से नाप कर अपने अनुभवों को लिपिबद्ध करने वाले फागूदास के पास बुद्धि, चतुराई, कला, कौशल का दारिद्रय तो न था पर स्थायित्व शायद उसके नसीब में लिखा ही न था। लिहाजा वो कभी कवि बन जाता तो कभी भिखारी या चोर – जेबकतरा। कभी संतों से बड़ा ज्ञानी और आस्तिक तो कभी नास्तिकता उस पर हावी हो जाती। आत्मकथा के श्रेष्ठ गुण अर्थात ईमानदारी और सत्य को यथास्थिति परोसने का साहस, फागूदास की डायरी में भी पूरे शबाब में दिखता है।
भाग्य ने फागूदास का साथ भले ही न दिया हो उसकी हस्तलिखित डायरी का भरपूर दिया है। बिहार में जन्मे फागूदास की डायरी पिथौरागढ़ के एक होटल में मिली। विद्या के कद्रदान मालिक ने इसके पन्नों से अंगीठी नहीं सुलगाई। वो इसे विद्वतजनों को दिखाते रहे और ऐसे ही एक दिन जब प्रोफेसर प्रभात उप्रेती की नज़र में ये डायरी आयी तो उन्होंने मेहनत से इस डायरी का जीर्णोद्धार कर, में सीरिज के रूप में प्रकाशित करवाया। मूल डायरी के अनावश्यक विस्तार को सीमित कर व असंबद्ध हिस्सों को संपादकीय कथन से संयोजित कर प्रोफेसर प्रभात कुमार उप्रेती ने संचयन-संपादन किया है फागूदास की डायरी का जिसे देहरादून स्थित समय साक्ष्य प्रकाशन ने हाल ही में प्रकाशित किया है। सुधी पाठकों को अपने निजी पुस्तकालय में उपलब्ध महापुरुषों की आत्मकथा और डायरियों पर उचित ही गर्व होता होगा पर उनके बीच के रिक्त स्थान को भरने के लिए एक अदद फागूदास की डायरी भी जरूरी है। ये अनमोल डायरी सिर्फ रु० 110 में उपलब्ध है।