November 21, 2024



काली-कुमाऊं से पाली-पछाऊं

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U. Bhaskar


हर यात्रा कुछ न कुछ देती है. इस बार दस दिवसीय कुमाऊं परिक्रमा की दो खास उपलब्धियां रहीं. एक डेरू गाड़ के मोहन दा से भेंट और दूसरी मानिला में बाघ से मुलाकात. मोहन दा एक खुशदिल किसान हैं. उन्होंने अपनी मेहनत से समृद्धि रच दी है. मोहन दा के बाबू ऊपर पहाड़ से इंच-इंच नहर खोदकर पानी फार्म तक पहुँचा गए थे. अब मोहन दा ने उस से करिश्मा कर डाला है. उनके खेतों में पहाड़ में होने वाले हर तरह के फल मौजूद हैं. एक गगनचुम्बी पपीते का पेड़ सबके लिए अचरज का विषय है. उसके अलावा सब्जियां भी खूब उगाते हैं. 400 किलो गडेरी बेचते हैं. 100-150 किलो मड़ुआ, लाई, प्याज, दो-तीन किस्म की गोभी, माल्टा, गहत, नींबू, अमरूद आदि.

इसके अलावा उनका दूध डेयरी में जाता है और कड़कनाथ मुर्गियां भी बेचते हैं. बकरियों से भी आमदनी होती है. तीन-चार बड़े तालाब बना लिए हैं, मत्स्य उत्पादन के लिए. कुछ-कुछ सब्जियां पौली हाउस में भी उगाई हैं मगर उसमें थोड़ा झंझट समझते हैं. परिवार की जरूरत भर का गेहूं और चावल भी वह उगा लेते हैं. हालाँकि, वह यह भी कहते हैं कि यह कोई करिश्मा नहीं, थोड़ा सा काम किया, पहले तो सब करते थे, अब आलस करते हैं. मेहनत करो तो धरती देती है. बंदरों, सुअरों और शौल के नुकसान पर उन्होंने बताया कि थोड़ा-थोड़ा तो आते ही हैं, मगर आदमी खेत में रहे तो बहुत कम आते हैं. मोहन दा ने बताया कि लोग बहाना अधिक मारते हैं. जंगली जानवर कितना ही जो खाते हैं, कुछ बड़ा ही बहाना लोग करते हैं. किसान से भेंट का यह मौका बनाया हमारे मित्र और पिथौरागढ़ ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूसंस बुंगाछीना के निदेशक/ मालिक धर्मेंद्र हनेरी ने.


पंचेश्वर से 16 किलोमीटर दूर जी.आई.सी. वेवेल में 10वीं में पढ़ने वाली राधा से जब पूछा कि रोज इतना पैदल आती हो, डर नहीं लगता? उसका कहना था सर यह तो हमारे अपने ही पहाड़ हैं, कोई प्लेन थोड़े ही हैं जो डर लगे. प्रिंसिपल नवीन जोशी जी ने बताया कि वह नियमित रूप से स्कूल आती है. घर से आना-जाना 32 किलोमीटर हो जाता है. पंचेश्वर में आठवीं तक की ही पढ़ाई होती है. इसी स्कूल में पढ़ने वाले दुबले-पतले महेंदर से उसका सपना पूछा तो बोला- “क्लीयर है, अग्निवीर बनना है सर”. क्यों? वीर या सैनिक क्यों नहीं? “अग्निवीर स्पेसली पाकिस्तान के लिए हैं”. उसके दोस्त अजीत ने बताया कि पहाड़ में गौमूत्र का संकट हो गया है. वह भविष्य के गौशाला खोलेगा.


पंचेश्वर में एंग्लिंग का पर्यटन व्यवसाय करने वाले ओंकार सिंह धौनी उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द ही डैम बन जाएगा. आज ही मोदी जी पिथौरागढ़ से ऐलान कर देने वाले हैं फाइनल (इसी दिन मोदी का दौरा था). यहाँ अभी चार उद्यमी एंग्लिंग का काम करते हैं. उनमें से एक डैनियल अब्राहम हैं. देहरादून और मुक्तेश्वर के पर्यटन व्यवसायी डैनियल पर्यटकों से प्रति रात्रि 16,000 रुपए लेते हैं. पंचेश्वर में चाय भी मिल जाए तो गनीमत है. धौनी जी की मदद से हमें चाय और मैगी मिल गई. उन्होंने एक दुकान खुलवाकर हमारा इंतजाम किया. चाय बनाने वाले लड़के से मैंने पूछा; आप रेगुलर दुकान नहीं खोलते? उसका जवाब था, किसके लिए? यहाँ कोई नहीं आता. फिर धौनी ने हमें बताया, दरअसल यहाँ बहुत उदासीनता है. 60 के दशक से लोगों को डैम का इंतजार है. डैम बनेगा इसी इंतजार में लोग इधर-उधर बस गए. अब यहाँ कोई गाँव जैसी चीज नहीं. पास के पंठूडा गाँव में कुछ लोग हैं, बस वेबश लोग. उधर, जौलजीवी और टनकपुर से चल रही सड़क बीच में फँस गई है. शायद, डैम के कारण अब न बने.

लोहाघाट में आई.टी.बी.पी. कैम्प से पहले एक तीखी ढलान पर चाय का ढाबा दिखा तो बूबू से बातचीत होने लगी. हमने उनसे चने/ छोले ऑर्डर किए तब तक युवकों का एक दल आ धमका. बूबू ने हमसे कहा, आपको चने/छोले नहीं मिलेंगे, ये रेगुलर कस्टमर हैं इन्हें दूँगा. बातों-बातों में पहले उन्होंने हमसे दोस्ती गाँठी और फिर कहने लगे ए.ओ.वी. सब्सक्राइब किया कि नहीं? हमने पूछा यह क्या है? मोदीजी का चैनल भी आया है, वह भी नहीं किया. बूबू ने कहा, मोदी को छोड़ो इसको सब्सक्राइब करो, बड़ा मजा आएगा. फिर उन्होंने बताया उनके नाती अंकित ओली का चैनल है. खूब देखते हैं लोग और मजा आता है. उन्होंने अंकित का पोस्टर भी हमें दिखाया और जिद पर अड़ गए कि अभी फोन खोलो और सब्सक्राइब करो, लाइक करो और घंटी भी बजाओ. फिर अपने आप आने लगेगा.


बागेश्वर में केशव दा की दुकान पर एक मजेदार किताब मिल गई. ICIMODE काठमांडू ने छापी है. कैलास पर्वत की लोक कथाएं. चीन की, भारत और नेपाल की कथाएं. भारत की कथाएं संकलित करने का काम नैनीताल की हिमानी उपाध्याय ने किया है. किताब में रात में ही पढ़ गया और लौटा आया. केशव दा ने लक्ष्मी आश्रम कौसानी में पढ़ने वाली भतीजी के लिए एक पुन्तुरी बनाकर दी, वह आश्रम जाने वाली एक दुकान में सौंप दी गई. हाँ, इस यात्रा की यह भी एक खासियत रही कि हर जगह से हर जगह को पुन्तुरी लेकर गया. असौंज का महीना पहाड़ में लेन-देन बढ़ा देता है.

गंगोलीहाट वैष्णो देवी मंदिर में न भक्त थे, न ही पुजारी. वहां मंदिर के अहाते में ढ़ेर सारी जंगली मुर्गियां दिखीं. फोटो खींचने तक वे ढलान की तरफ खिसक गईं. फिर भी भागते हुए कुछ ले लीं. बैजनाथ में कपकोट के पूर्व विधायक ललित फरस्वान मॉर्निंग वॉक कर रहे थे. यूं ही मजाक में कह बैठा, लग रहा भारत जोड़ो यात्रा का असर है. उन्होंने गाड़ी रुकवाकर चाय पीने का न्योता दिया. बताने लगे यह तो उनका गाँव ही है. आजकल थोड़ा सुबह-सुबह निकल जाता हूँ. लोगों से मिलना भी हो जाता है और स्वास्थ्य भी ठीक रहता है. फिर उन्होंने बताया कि बागेश्वर उप-चुनाव में कैसे प्रशासन की मदद से पासा पलट गया. लोद में आदतन दिन का डुबका-भात खाया. थोड़ा कमर सीधी की और बंसी जोगी के भजन कान में लगाकर गगास घाटी की ओर उतर लिए. बूबू से कहा, हल्द्वानी से दयाल पाण्डेय कह रहे हैं ककड़ी भेजो करके? बूबू सोच में पड़ गए, लड़के ने कहा, नहीं हो कहाँ इस बार भौति बारिश हो गई, ककड़ी-मूली-दाल सब ख़राब हो गई.




सबसे अलग बात रही मानिला में रात के सन्नाटे में बाघ से भेंट होना. गाड़ी की हेडलाइट में पहले लगा कि तेंदुआ होगा. लेकिन, करीब पहुंचे तो देखा बाघ ही है. सात फुटा मटमैला बाघ. हमने गाड़ी धीमी की तो वह हौले-हौले पैराफीट पर चढ़कर पहाड़ी से नीचे उतर गया. पहाड़ में गुलदार तो दर्जनों बार देखा है, मगर बाघ की कथाएं ही सुनी थीं. भाबर से लगे इलाकों में बाघ होने के संबंध में जिम कॉर्बेट की किताबों में पढ़ा है. वैसे बाकी पहाड़ में गुलदार को भी बाघ ही कह दिया जाता है. मानिला में यह बाघ कॉर्बेट पार्क से ही चढ़ गया होगा. बेतालघाट, पतलोट, सूखीढांग, बसानी, बगड़ आदि में भी बाघ चढ़ जाने की बातें सुनी हैं. मल्ला मानिला जाकर लोगों से बात की तो पता चला, बाघ का यहाँ आना आम बात है. राजेश लखचौरा ने बताया कि उन्होंने भी पिछली रात बाघ देखा था और बाघ के कुछ खास स्पॉट भी हैं. यहाँ रात में हमने बहुत सारे जंगली खरगोश भी देखे. और सुबह-सुबह ही एक भोटिया कुत्ते और गुलदार की भिड़ंत हो गई. जिस होम स्टे में मैं रुका था, उसकी मालकिन विनीता ने गुलदार से कुत्ता वापस छीन लिया. गुलदार उसकी गर्दन में दो पंजे जरूर छुआ गया. रात को शेर की तरह गरज रहा कुत्ता अब गुमसुम हो गया था. अच्छी बात थी पूरी यात्रा में हिमालय एक ही दिन दिखा, कौसानी से. कौसानी केन्द्रीय विद्यालय से हिमालय की छटा ही निराली थी. अक्टूबर में हिमालय दिन भर उपलब्ध रहता है मगर इस बार मटमैला सा रहा. इससे बाकी सब देखने की सुविधा जरूर हो गई.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामजिक कार्यकर्त्ता हैं