November 22, 2024



भूकंप कारण और निवारण

Spread the love

महावीर सिंह जगवान 


हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के पर्वतीय भू भाग जो हिस्सा है उत्तराखण्ड का तीन चौथाई औसतन पूरा क्षेत्र भूकंप की सम्भावनाऔं वाला सबसे संवेदन शील क्षेत्र है जो जोन पाँच मे आता है।


भूगर्भ विज्ञानी कहते हैं हिमालय और उससे जुड़ी प्लैटों मे उपस्थित पहाड़ियों की उम्र सबसे कम है यानि इनकी बनावट भी कच्ची है। स्पष्ट है जिस भू भाग मे उत्तराखण्ड बसता है उसका तीन चौथाई हिस्सा बड़े और अदृष्य खतरे की जद मे है। दुनियाँ का हर कोना भूकंप की दृष्टि से सौ फीसदी सुरक्षित नही है, जापान जैसा विकसित राष्ट्र साल के तीन सौ पैंसठ दिनों मे दो हजार से अधिक छोटे और बड़े भूकम्पों के झटके झेलता है और फिर भी सदैव पटरी पर विश्व के समृद्ध देशों मे अग्रणी पंक्ति पर। बड़ा सवाल दहशत और भगवान भरोसे कैंसे रहा जाय। भारत मे वैज्ञानिकों और सरकारों ने भूकम्प से बचाव के हजार के आसपास तरीके निकाले हैं और फिर उनका प्रचार प्रसार भी किया है। फिर भी हम वहीं पर खड़े हैं जहाँ दशकों पहले खड़े थे। आखिर हम बचाव के उन उपायों को क्यों नही अंगीकार कर पा रहे हैं। औसतन जो भी गाँव भूकम्प से अधिक प्रभावित हुये हैं आज तक वहाँ फिर से घने और भारी भवनों का निर्माण हो रहा है। सबसे बड़ी दुखद स्थिति सरकार की बड़ी परियोजनाऔं से लेकर आम जनमानस के आवास निर्माण शैली तक फैली हैं बड़ी बड़ी लापरवाहियाँ।


आधुनिक निर्माण मे भूकम्प रोधी तकनीकी का संयोजन तो बढा है लेकिन निर्माण स्थल की भूमि को तो आप ट्रीटमेन्ट नही दे सकते। स्पष्ट है हमारी तकनीकियाँ ऐसी हैं जैंसे हम कंम्पूटर पर दस बारह रियेक्टर स्कैल पर अपने डिजायन को डेवलैप कर रहे हैं और फिर उसे जमीन पर रख रहे हैं हमारी सारी तकनीकियाँ दो विन्दु पर केन्द्रित हैं एक तो स्ट्रैक्चर क्रैक न हो और दूसरा भूकंप के झटकों से पूरा स्ट्रक्चर एक साथ कंपन कर पूर्ण ऊर्जा को सोख ले। इस उदाहरण को अधिक सरल तरीके से समझते हैं जैसे हम किसी भी बड़े या छोटे निर्माण को करते हैं तो उसका सटीक माॅडल बनाते हैं उसे ऐसे टेबल पर रखते हैं जिसमे वह आ जाय और फिर अलग अलग दिशाऔं स्थितियों से टेबल को झटका देते हैं तो लगता है वह माॅडल हिल रहा है या मूल जगह से हल्का हट रहा है लेकिन उसकी बनावट मे फर्क नही पड़ रहा है। लेकिन हिमालय के संदर्भ में अलग ही स्थितियाँ हैं यहाँ जिस टेबल पर माॅडल रखा है वह फट सकता है, वह टूट सकता है वह माॅडल के बोझ से दब सकता है। स्पष्ट है जिस आधार पर निर्माण कार्य हो रहे हैं वह अधिक संवेदनशील है, उसके ऊपर के निर्माण को कितनी भी तकनीकियों से जोड़ा जाय लेकिन आधार का संकट शंसय सदैव बना रहेगा।

भूकंप प्रकृति और जैव विवधता को भी भारी क्षति पहुँचा रहा है। आम दृष्टिकोण भूकंप से मानवीय क्षति तक ही केन्द्रित रहता है जब कि उच्च हिमालय को दो रैक्टर का भूकम्प भी प्रभावित करता है। ऊँचे ऊँचे पर्वत भूकम्प से निरन्तर टूट रहे हैं, बुग्यालों मे दरारें पड़ रही हैं और वो निरन्तर बढ रही हैं ऊँचे हिमालय की चोटियों का टूटना मौसम और वर्षा तक को प्रभावित कर रहा है, बुग्यालों की दरारे वर्षा मे बड़े भूस्खलन को आमन्त्रित करती हैं। उच्च हिमालय मे स्थित केदार पुरी की तलहटी मे भी निरन्तर बदलाव है यहाँ पर्वत श्रृँखलाऔं के जोड़ तो हैं ही लेकिन उस पर स्थित बुग्याल और दलदल के संयोजन ने यह भू क्षेत्र निर्मित किया है यहाँ सीमेन्ट और कंक्रीट की सुरक्षा ऐसी है मानों दो कटोंरो को आपस मे विपरीत दिशाऔं मे चिपका कर धरती पर रख दिया जाय ठीक इसी तरह नीचे वाली कटोरी को प्रकृति का विकास और ऊपर वाली कटोरी को मानव द्वारा विकसित विकास माना जाय, यदि मानव द्वारा किया गया विकास थोड़ा भी असन्तुलित हुआ तो ऊपर की कटोरी स्लिप हो जायेगी यानि तलहटी की संवेदनशीलता को देखकर ही सुरक्षा हो या सौन्दर्यकरण के काम किये जायें अन्यथा भूकम्प जैसे प्रभावों से तलहटी छितरेगी और उसके ऊपर का अनियोजित विकास स्थितियों को अधिक खराब करेगा।


उत्तराखण्ड के रास्ते हों या सड़कें या छोटे बड़े निर्माण कार्य इनकी शुरूआत होती है ढलान को काटकर जगह बनाना एक सीमा तक तो यह ठीक हो सकता है लेकिन कटिंग के तरीके इतने दुष्परिणाम देने वाले हैं मानो विनाश का आमन्त्रण, यदि ऊपर की साइड कटिंग हो रही है तो कटिंग के मलबे को उसी कटिंग की साइड के नीचे फेंक दिया जाता है इससे दो तरफ से आधार पंचर हो जाता है जैसे 1960 के आस पास गढवाल मे प्रसिद्ध भूस्खलन सिरोबगड़ जो आज तक बड़ी चुनौती बना हुआ है विकास विज्ञान और आधुनिक तकनीकियों से एक ही नया प्रयोग वहाँ पर दिखता है शताब्दियों पहले मानव रास्ता ऊपर कटिंग कर बनाता था और उस मलबे को नीचे फेंकता रहता था जब तक कि वहाँ चलने योग्य जगह न बन जाये और इक्कीसवीं सदी मे भारी भारी मशीने वही काम कर रही हैं, यदि इस स्पाॅट को बारीकी से देंखे तो स्पष्ट दिखता है यह सड़क मेल जगह से तीस मीटर से भी अधिक अंदर गई है, हम दशकों से चिल्ला रहे हैं ऊपर से टूटना बंद नही हो रहा है और करोड़ों अरबों खर्च कर चुके हैं हमारा विकास निरन्तर ऊपर की ओर काटता गया और मलबा नीचे फेंकता गया परिणति ऊपर से टूटता गया और बेस फेंके गये अनियन्त्रित तरीके से टूटता गया हमने इस पूरे क्षेत्र को इतना संवेदन शील बना दिया यह हल्के भूकंप मे भी दरकने लगता है, आप घाव को कुरेद रहे हैं और जोर जोर से चिल्ला रहे हैं घाव बढ रहा है। यहाँ प्रकृति की बनावट से छेड़छाड़ किये बिना बेस को ढूँढकर आधुनिक आधार विकसित किया जा सकता है, यही फार्मूला आपदा के बाद की त्रासदी मे निर्माण कार्यों मे लगा। एक मीटर से सौ दो सौ के निर्माण कार्यों मे करोड़ों टन मलबा मैटिरियल भरा जा रहा जबकि इस मैटिरियल खनिज की आपूर्ति के लिये दूसरी जगहों पर अनियन्त्रित खनन बढा है। सवाल यह उठता है विकास रोका जाय ऐसा नही विकास हो लेकिन आधुनिक तकनीकियों के सहारे। जैसे एक सरल उदाहरण ऋषिकेष बद्रीनाथ हाइवे पर स्थित तीन धारा यह लोग अपना ब्यवसाय चलाने के लिये बड़ी तकनीकी से आधार विकसित किये हुये हैं भले ही यह तकनीकी सामान्य है लेकिन इसे अधिक विज्ञान और आधुनिक इंजिनियरिंग से जोड़कर यह पहाड़ के विकास की प्रकृत्ति समम्त नींव हो सकती है।

हिमालयी राज्य मे पर्वतीय ढलानों पर रचे बसे गाँवो और कस्बों मे भवन शैली कतई पर्यावरण और भूकंप जैसी स्थितियों के लिये सुरक्षित नहीं है। हम शान और शौकत से इतने बड़े मलबे के ढेर को अपना आशियाना बनाते हैं जरा सी चूक पर भी चारों ओर खतरा है, हम वर्तमान मे आवास की मूल जरूरत की अपेक्षा भवन पर सौ से हजार गुना अधिक ब्यय कर रहे हैं और अपनी चिन्ताऔं और आर्थिकी के संकट को भी बढा रहे हैं। आश्चर्य बासठ फीसदी से अधिक वन और भवन निर्माण मे एक फीसदी भी लकड़ी का उपयोग नहीं। यदि प्राचीन भवन शैली को देंखे तो उसमे भी तीस से पचास फीसदी लकड़ी का उपयोग होता था। हल्के और अधिक काष्ठ युक्त आवासों की ओर भी बढना होगा। यह हमारे गाँवों का आकर्षण और सुरक्षित निवास बन सकते हैं। तात्कालिक भयभीत होने से बढिया तो दूरगामी शुरूआत करनी होगी जिससे भय मुक्त रहे हिमालय का वासी और अधिक सम्मपन्न और सुरक्षित जीवन हो।




ये लेखक के विचार हैं