November 23, 2024



हिमालय अंतर-संबंधों का मर्म

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डॉ. अरुण कुकसाल


‘हिमालय में रहने वाले लोगों से पूछा गया- किसलिए आप इतनी दूर और दुर्गम पहाड़ों में अपने गांव बसाते हैं? आप तक पहुंचना लगभग असंभव और साथ ही ख़तरनाक भी है. पहाड़ी लोगों ने जवाब दिया, ‘अच्छे दोस्त तो सभी तरह के ख़तरों का सामना करते हुए मुश्किल रास्तों से भी हम तक पहुंच जायेंगे और बुरे दोस्तों की हमें ज़रूरत नहीं।’ (रसूल हमज़ातोव-‘मेरा दाग़िस्तान’)

आज हिमालयवासियों की बिडम्बना यह है कि, हिमालय को उसके मित्रों से ज्यादा उसके शत्रु जानने लगे हैं। हिमालय अप्रीतम ही नहीं यहां के मनुष्यों के साथ तमाम जीव-प्रजातियों के लिए अपरिहार्य भी है। इसीलिए, इसके अस्तित्व के खतरे भी बेहद गंभीर हैं। अतः हिमालय के अद्वितीय सौंदर्य के साथ ही इसके स्वयं के जीवन और इस पर निर्भर जीवनों के मर्म को सबसे पहले समझा जाना चाहिए। तभी हिमालय हमारा और हम हिमालय के रह पायेंगे। इस आलेख में हाल ही में लेखक की नज़र से गुजरी हिमालय पर केन्द्रित कुछ पुस्तकों विशेषकर, उत्तराखण्ड हिमालयी यात्रा-वृतातों का जिक्र है। यद्यपि, उत्तराखण्ड हिमालय पर यात्रा-वृतांत बहुत कम लिखे गये हैं और जो लिखे भी गए वे समुचित एवं प्रभावी रूप में प्रचारित नहीं हो पाये हैं। लेकिन, इन पुस्तकों ने उत्तराखण्ड हिमालय और उसके निवासियों की दिव्यता और भव्यता के साथ उनके दर्द, मर्म और समझ को बखूबी रेखांकित और विश्लेषित किया है।


हिमालयवासियों की परिपक्व मानसिक चेतना के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. शिव प्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखंड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा है कि यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता वह साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’’ (गंगोत्री गर्बयाल-‘यादें’ किताब की भूमिका में-डॉ. आर.एस.टोलिया)


यात्रा-लेखक नेत्र सिंह रावत ने अपनी किताब ‘पत्थर और पानी’ में हिमालय में मानवीय बसासत की व्यापकता को बताया कि ‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया कि जैसे बस्ती और सभ्यता के चिन्हृ उससे आगे नहीं होंगे। आगे मनुष्य नहीं होंगे, लेकिन चेतना तुरंत इस मनःस्थिति से अलग हो गयी-नहीं, आगे के हिमालय के पीछे भी मनुष्य हैं और उनकी सभ्यता है। यह अंत, अंत नहीं है, नजर का धोखा है। मनुष्यों से मनुष्यों तक एक और यात्रा शुरू की जा सकती है।’

घुमक्कड़ी विधा की अनुपम कृति ‘शिलातीर्थ’ में लेखक प्रो. चितरंजन दास मानते हैं कि ‘आदमी में कर्मठता और सहजता का एक साथ होना सफल एवं सुखी जीवन है। और, हिमालय कर्मठता एवं सहजता को सिखाने का सर्वोत्तम प्रशिक्षक है। हिमालय का शैल रूप शिलातीर्थों में परिणत हो कर मानवीय जीवन-दायित्वों को आदर्श रूप में वहन करना सिखाते हैं। वास्तव में, बार-बार हिमालय की ओर आने की कामना के मूल में जीवन को सहजता से स्वीकार करने की दक्षता पाना है।’ प्रो. चितरंजन दास स्वीकारते हैं कि ‘हिमालय का सर्वप्रथम आकर्षण है स्वयं यह हिमालय। हिमालय एक दरवाजा खोलने पर जो मुझे सैकड़ों दरवाजे खोलने के लिए प्रेरित करता है, उसे ही मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ उत्प्रेरक मान लिया है।’ मूल रूप में उड़िया भाषा में 60 के दशक में प्रो. चितरंजन दास की लिखी ‘शिलातीर्थ’ यात्रा-लेखन की श्रेष्ठ पुस्तकों में शामिल है। इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी से हो जाता है कि इस किताब को पढ़कर आज भी हजारों की तादाद में तीर्थयात्री, पर्यटक और शोधार्थी उत्तरखण्ड हिमालय की ओर आते हैं। इस किताब में बीती सदी के पचास-साठ के दशक का गढ़वाल-कुमाऊं साकार हुआ है।


सर्वोदयी चिन्तक सदन मिश्रा एवं अन्य के साथ की गई इस यात्रा में हिमालय की भव्यता, विकटकता, जनजीवन और लोक-विश्वासों से नया-नया परिचित लेखक अपनी सह-यात्री महिला की वेशभूषा से अचंभित है- ‘तीर्थयात्रा पर जा रही थी, इसलिए बहुत प्रेम से गहनों और आभूषणों के द्वारा अपने पूरे शरीर को सुसज्जित कर तैयार हुई थीं। पैरों में चांदी की पायल, हाथों में तीन-तीन सोने-चांदी के कंगन। नाक में बड़ी सी सोने की नथ। पूरा तीर्थ मार्ग पैदल चल कर देव-दर्शन करने वे हमारे साथ साहस कर निकल पड़ी थी। केवल पहाड़ी औरतों में ही इतना साहस संभव होता है।’

ये वो दौर था जब पैदल यात्रायें अपना अस्तित्व खोने की कगार पर थी। दूरदर्शी लेखक चित्त भाई आशंका व्यक्त करते हैं कि नये मोटर मार्गों को पुराने पैदल मार्गों से दूर और उनके दिशा परिवर्तन से अनेक तीर्थस्थल भविष्य की तीर्थ मार्ग से अलग-थलग हो जायेंगे। नतीजन, उनका तीर्थयात्रा की दृष्टि से महत्व गौंण हो जायेगा। अतः जहां तक संभव हो प्रचलित पैदल मार्गो को ही नया मोटर मार्ग बनाया जाना चाहिए। ताकि, वे उपेक्षित न हो और उनका महत्व आने वाले समय में भी कायम रहे। निश्चित रूप में इस तथ्य को तब समझा जाना चाहिए था।




पैदल मार्गों में स्थित चट्टियों के भविष्य को लेकर वे लिखते हैं कि ‘इन चट्टियों में कोई जातिभेद नहीं मानता। थका-मांदा, धूल से सना यात्री जब किसी दुकान के सम्मुख खड़ा होता है तो कोई उससे उसकी जाति के विषय में कोई प्रश्न नहीं करता। दुकानदार उठकर उसे अतिथि मानकर उसका स्वागत करता है। हो सकता है कि कुछ और सालों में मोटर मार्ग आगे बढ़ता जाये। तीर्थमार्ग की ये चट्टियां अपने आप समाप्त हो जायें। पेट भरने के लिए अन्य व्यवसाय की खोज में हो सकता है, दुकानदार अन्यत्र चले जायें। इन चट्टियों के द्वारा उत्तराखण्ड के अधिवासियों की जिस सरलता, अच्छाई और भद्रता का परिचय हमें आज मिलता है, वह तब नहीं मिल पायेगा।’ यह तथ्य आज के संदर्भ में सटीक और सच के बहुत करीब है।

समाजविज्ञानी डॉ. ललित पंत ने ‘अजपथों से हिमशिखरों तक’ यात्रा किताब में उच्च-हिमालयी क्षेत्र में बसे चौदांस, ब्यांस और दारमा क्षेत्र एवं समुदाय के माध्यम से हिमालय को जानने-समझने की कोशिश की है। पिथौरागढ़ जनपद (उत्तराखण्ड), नेपाल और तिब्बत से सटे काली, गोरी और धौली नदी क्षेत्र (समुद्रतल से 4000 से 15000 फिट ऊंचाई) की अधिकांश बसासत शौका समाज की है। उच्च-हिमालयी क्षेत्र में पल्लवित शौका समाज का आधार, अतीत और आयाम घुमक्कड़ी रहा है। डॉ. ललित पंत इस यात्रा-पुस्तक में उत्तराखंड के सीमान्त क्षेत्र के परिदृश्य के साथ-साथ अतीत, विगत और वर्तमान में भारत, नेपाल, तिब्बत और चीन के आपसी रिश्तों और विवादों की पड़ताल भी करते हैं। इस किताब में भारत-नेपाल के मध्य हुई स्न 1815-16 की सुगोली संधि और सन् 1962 का भारत-चीन युद्ध का जिक्र इन देशों के सीमान्त क्षेत्रों में उक्त दो महत्वपूर्ण घटनाओं के बाद के बदलावों को भी रेखांकित करते हैं।

यह किताब उच्च-हिमालयी पारिस्थिकीय में विकसित समाज के मन-मस्तिष्क में समायी विराटता और वैभव को महसूस कराते हैं। तभी तो लेखक अपनी यात्रा में इस बात को प्रमुखता से इंगित करता है कि ‘ यदि हिमालय में विनम्र होकर, उससे तादात्म्य स्थापित कर लिया जाय तो हिमालय की हर विकटता व विकरालता भी सुन्दर लगने लगती है और उसकी स्मृतियां अधिक गहरी हो मन में समाती स्थाई हो जाती हैं।’ इसी क्रम में, डॉ. ललित पंत की दूसरी यात्रा किताब ‘हिमानियों और हिम दर्रों की दुनिया में’ इस पथारोहण के सह-यात्री शेखर पाठक लिखते हैं- ‘हम भारतीय उपमहाद्वीप के लोग, जो हिमालय में या इसके बहुत पास रहते हैं, इसको बहुत ज्यादा नहीं जानते हैं।’ कृष्णनाथ जी कहते थे कि ‘हिमालय भी हिमालय को नहीं जानता है। इसका एक छोर दूसरे को नहीं पहचानता है। हम सिर्फ अपने हिस्से के हिमालय को जानते हैं। इसे जानने के लिए भी एक जीवन छोटा पड़ जाता है, पर इसी एक जीवन में हिमालय को जानने की कोशिश करनी होती है।

इस किताब में ललित पंत ने आज से लगभग 34 साल पूर्व उत्तराखण्ड के उच्च-हिमालय के अन्तर्वती क्षेत्र में स्थित दो छोर यथा- मिलम (समुद्रतल से ऊंचाई 3, 500 मीटर) से मलारी (समुद्रतल से ऊंचाई 3, 100 मीटर) तक 200 किमी. की पैदल यात्रा को उल्लेखित किया है। ज्ञातव्य है कि, जनपद-पिथौरागढ़ का मिलम, जोहार घाटी में और जनपद- चमोली (गढ़वाल) का मलारी, नीती घाटी के दूरस्थ गांव हैं। हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के गोरी गंगा घाटी (जोहार) और पश्चिमी धौली गंगा घाटी (नीती-मलारी) के मध्य के 200 किमी. के विहंगम कैनवास में यह यात्रा फैली है। जोहार मिलम से मलारी तक की यह यात्रा हिमालय को समझने की ऐसी ही एक विशिष्ट यात्रा है। महान हिमालय के पराहिमालयी हिस्से का यथार्थ इस यात्रा से देखा-समझा जा सकता है।

शिक्षाविद प्रो. अतुल जोशी ने ‘भारतीय हिमालय-जीवन और जीविका’ पुस्तक में भारतीय हिमालय क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रदेशों की समग्र पारिस्थितिकीय संरचना, प्राकृतिक एवं मानवीय विकास-क्रम, पर्यावरणीय संवेदनशीलता, समृद्ध संस्कृति एवं सभ्यता में मानवीय जन-जीवन से जुड़े विविध पक्षों और चुनौतियों को प्रामाणिक तथ्यों के साथ उजागर किया गया है। पुस्तक के माध्यम से इस किताब ने सार स्वरूप यह स्पष्ट संदेश दिया है कि हिमालयी पारिस्थितिकी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए जन सामान्य में सतत् वैज्ञानिक चेतना के माध्यम से उसे ‘बिकाऊ’ नहीं, ‘टिकाऊ’ रखने की सख्त जरूरत है।

वास्तविकता यह है कि, ‘हिमालय बहुत नया पहाड़ होते हुए भी मनुष्यों और उनके देवताओं के मुक़ाबले बहुत बूढ़ा है। यह मनुष्यों की भूमि पहले है, देवभूमि बाद में, क्योंकि मनुष्यों ने ही अपने विश्वासों तथा देवी-देवताओं को यहां की प्रकृति में स्थापित किया। हिमालय के सम्मोहक आकर्षण के कारण अक्सर यह बात अनदेखी रहती आयी है। यह आशा करनी ही होगी कि हिमालय की सन्तानों और समस्त मनुष्यों को समय पर समझ आयेगी, पर यह याद रहे कि यह समझ न अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में उपलब्ध है और न कोई बैंक या बहुराष्ट्रीय कम्पनी इसे विकसित कर सकती है। यह समझ यहां के समाजों और समुदायों में है, वहीं से उसे लेना होगा। बस, हमें और हमारे नियन्ताओं को इस समझ को समझने की समझ आये।’

शेखर पाठक की ‘दास्तान-ए-हिमालय’ किताब में लिखी उक्त पक्तियां आम जन से लेकर अध्येताओं के हिमालय के प्रति विचार और व्यवहार को सचेत करती है। हिमालय पृथ्वी का मात्र 0.3 प्रतिशत है, लेकिन पृथ्वी की जैव विविधता का 10 प्रतिशत हिमालय में सांस लेता है। परन्तु, आज जिन हालातों से हिमालय और उसका जनजीवन गुजर रहा है, उसमें उसकी इस अदभुत वन्यता की सांसों की हिफाज़त करना चुनौती बनता जा रहा है। हिमालय एक तरफ आज भी स्वयं निर्माण की प्रक्रिया में है, तो दूसरी ओर यहां की वन्यता और जनजीवन का मां-पिता के रूप में पालनहार भी है। शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘हिमालय का विशिष्ट संसाधन वन्यता यानी यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य है। दरअसल, यह हिमालयी प्रकृति के विभिन्न घटकों का समुच्चय है। अनेक बार इसमें मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत भी जुड़ जाती है। यह एक पूर्ण प्राकृतिक अवदान है। आज की पूंजी, तकनीक और युद्ध से ग्रस्त दुनिया में वन्यता का असाधारण महत्त्व है और यह विभिन्न व्यवस्थाओं के दबाव के कारण लील लिये गये मानवीय तत्त्वों को पुनर्सृजित कर सकती है।’

यह गौरतलब है कि हिमालयी वन्यता की न तो पुनर्रचना हो सकती है और न ही इसकी वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है। अतः यहां के समाजों और समुदायों को यह मजबूती से समझना होगा कि हिमालय की वन्यता ने ही उसे देवभूमि की दिव्य पहचान दी है। अतः उनके सुरक्षित और खुशहाल जीने का एक मात्र आधार हिमालय की वन्यता की हिफ़ाजत और सलामती में ही है। वैश्विक स्तर पर हिमालय पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन का नियामक होने के साथ मानव संस्कृति एवं सभ्यता के विकास क्रम का भी साक्षी है। हिमालय क्षेत्र अपनी अनुपम वन्यता के बदौलत नैसर्गिक सुन्दरता और आध्यात्मिक शांति के लिए लोगों को आकृष्ट करता है तो साथ ही, प्राकृतिक संसाधनों, उत्पादों, वस्तुओं और सेवाओं के रूप में एक विश्व बाजार के बतौर लोकप्रिय भी है। इन्हीं खूबियों के कारण संपूर्ण हिमालय क्षेत्र दुनिया में 1.3 बिलियन लोगों के जीवन और जीविका का प्रमुख आधार है।

हिमालय हमारे देश का शुभ्र मुकुट कहा जाता है। ‘हिम’ याने ‘बर्फ’ और ‘आलय’ माने ‘घर’ अर्थात हिमालय का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘बर्फ का घर’। लगभग 6 करोड़ साल पहले अफ्रीका से सरककर आये भारतीय उपमहाद्वीप प्लेट का उत्तर-पूर्व की दिशा में लगातार बढ़ते रहने के कारण टैथिस सागर की जगह पर नया भूगोल उग आया था। टैथिस सागर के भूगर्भ से निर्मित इस भूगोल को हिमालय कहा गया। हिमालय पर्वत श्रृंखला विश्व की सर्वाधिक नवीन पर्वत श्रृंखला है। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। इसीलिए इसे भूकम्प की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जाता है। हिमालय का एक खूबसूरत हिस्सा अतुल्य कैलास मानसरोवर है। कैलास मानसरोवर के आसपास से जन्म लेने वाली चार नदियां यथा- सिन्धु, सतलुज, गंगा और बहृमपुत्र भारत के 44 प्रतिशत भू-भाग की प्राण रूपी जलवाहिनी हैं। देश की कुल जल सम्पदा का 63 प्रतिशत का श्रोत हिमालय है। हिमालय को इसीलिए ‘पानी की प्राचीर’ का खि़ताब दिया गया है।

हिमालय के इन शिखरों की गोद में उच्च-हिमालयी क्षेत्र में पल्लवित समाज के घर-गांव हैं। हिमालय उनके लिए चुनौती नहीं, रहवासी है। हिमालय में रह कर वे प्रकृति की विकटता का नहीं, उसकी विराटता को महसूस करते हैं। इस विराटता में ही दोनों का सह-अस्तित्व और वैभव विकसित हुआ है। हिमालयवासियों का जीवन और जीविका का आधार, अतीत और आयाम घुमक्कड़ी रहा है। स्वाभाविक है कि, हिमालय के प्रति इस समाज का आकर्षक पारिवारिक आत्मीयता से ओत-प्रोत है। भारत, तिब्बत-चीन, और नेपाल की सीमाओं से घिरे इस क्षेत्र में आज भी देशों की परिधि से बेफिक्र हिमालयी समाज अपनी जीवंतता और समग्रता में जीता है। जिनके, दिलों में देश की सीमाओं का कोई मतलब नहीं है।

‘राजनैतिक दृष्टि से भले ही दो राष्ट्रों की अस्मिता आमने-सामने हो पर मानवीयता के दायरे में गहरे सांस्कृतिक बोध में समानधर्मा ग्रामीण समाज का समजीवन अन्तः सूत्रों से अनस्यूत है। इस सीमावर्ती क्षेत्र को देखकर विचार उठता है कि हमारी राजनैतिक विचार दृष्टि के ताने-बाने में, हमारी विदेश नीतियों-कूट नीतियों की घेराबंदी में जीवन का बहता यह सतत प्रवाह अवरुद्ध नहीं हो चाहिए।’ (‘अजपथों से हिमशिखरों तक’-डॉ. ललित पंत)

घुमक्कड़ और शिक्षक दीपा तिवारी ने ‘कच्चे रास्ते पक्के सबक’ किताब में कैलास-मानसरोवर यात्रा में देश-दुनिया की सीमाओं से परे मानवीय आचरण के मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक पक्षों को भी उजागर करते हुए लिखा हैं कि ‘कैलास सीमाओं के शोरगुल, आडंबर या पाखंड का विषय नहीं है। यह हमारे फिज़िकल टेम्परामेंट को डिस्क्राइब करता है। हमारे चलने की खूबी और ट्रैंकिंग के हुनर को दिखाता है। लोग तीर्थ यात्राओं के नाम पर पागलों की तरह हो जाते हैं। धर्मान्ध व्यक्ति किसी भी पर्वत या स्थान में जाकर, वहां की शांति को भंग कर देता है, पर वह वहां की कठिनाईयों को अनुभव ही नहीं कर पाता क्योंकि वह अपनी मादकता में रहता है।’

भारतीय हिमालय 2500 किमी. लम्बे और 400 किमी. चौड़े क्षेत्र में फैला है। इसमें 11 हिमालयी राज्य हैं। उत्तराखंड मध्य हिमालयी राज्य है। उत्तराखण्ड के पूर्व में नेपाल, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में उप्र. और उत्तर में तिब्बत क्षेत्र है। उत्तराखण्ड हिमालय के परिपेक्ष्य में बात करते हैं। उत्तराखण्ड राज्य का संपूर्ण क्षेत्रफल 53483 वर्ग किमी. (जिसमें, 88 प्रतिशत पर्वतीय और 12 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र) है। उत्तराखण्ड के तीन भौगोलिक क्षेत्र- उच्च हिमालय (भोटान्तिक यानी तिब्बती सीमान्त का क्षेत्र), मध्य हिमालय (मध्यवर्ती पहाड़ी क्षेत्र) तराई-भाबर (दून और गंगा-यमुना का मैदान) है। पारम्परिक तौर पर इनको क्रमश:- भोट, पहाड़ और माल कहा जाता है।

अंग्रेज मूलतः पहाड़ी इलाकों के वाशिंदे थे। इस कारण गढ़वाल-कुमायूं के पहाड़ों से उनका आत्मीय लगाव होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों का संघर्षमयी जीवन, उत्तम स्वास्थ्य और ईमानदारी का फायदा वे उन्हें सेना में भर्ती करके लेना चाहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में गढ़वाल के युवाओं का सेना में भर्ती होना आम बात हो गई थी। उतराखण्ड हिमालय में सिमटती खेती और स्थानीय उद्यमों की शिथिलता ने गांवों से नगरों की ओर अत्यधिक मानव प्रवास को बाध्य किया है।

इस संदर्भ में, वरिष्ठ सामाजिक चिंतक और अर्थशास्त्री प्रो. पी. सी. जोशी का एक कथन मुझे हमेशा अपने हिमालयी गांव चामी से जोड़े रखने के लिए प्रेरित करता है, बहुत सटीक है कि ‘मेरी उन्नति अपने ग्राम और इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है। जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है, वह कभी स्थाई नहीं हो सकती। उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उन्नति में योगदान से उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है। यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है।’

इस प्रवृति पर शेखर पाठक का तंज है कि ‘यह सिर्फ शहरीकरण भी नहीं है, यह जड़ विहीन हो जाना है।…सिर्फ ‘नराई’ (याद) से पहाड़ को याद करने वालों के लिए भी उनके गांव का होना और गांव में उनके लोगों का होना ज़रूरी है।’ इसी सच को जातोली गांव के घुमक्कड़ दिनेश दानू की इस बात से भी समझा जा सकता है कि, ‘बात यह है कि आप लोग हिमालय को देखते हैं और हम इनमें रहते हैं। आप और हमारे बीच यह देखने और रहने का अन्तर ही हिमालय को जानने-समझने के दृष्टिकोणों को असमान बना देता है। मूलभूत सुविधाओं से अनछुए ये पेड-पहाड़ आपको दिखने में सुन्दर लगेंगे ही पर जब आपको इनमें ही रहना हो तब आपका यह विचार, विचार ही रह सकता है।- दिनेश कुछ ऊंची आवाज़ में कहता है।’ (‘चले साथ पहाड़’- अरुण कुकसाल)

यह बात दीगर है कि, हिमालयी पलायन स्थान विशेष, समय अन्तराल, उद्वेश्य एवं परिस्थितियों की प्रकृति और प्रवृति के अनुरूप ही होता है। अतः पलायन के पुश फैक्टर (रोजगार की कमी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मूलभूत सुविधाओं का अभाव, जंगली जानवरों द्वारा कृर्षि व्यवस्था को चौपट करना, प्राकृतिक आपदा, अव्यवहारिक सरकारी नीतियां एवं उनका कमजोर क्रियान्वयन) और पुल फैक्टर (रोजगार की उपलब्धता, शिक्षा-स्वास्थ्य की गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था, सामाजिक सुरक्षा एवं सम्मान, आधुनिक जीवन शैली) के प्रभावों को इसी आधार पर विश्लेषित किया जाना चाहिए। हिमालयी विकास पर वैश्विक बहसों को अकादमिक दायरे से बाहर आकर आम-जन और नीति नियंताओं और उनके क्रियान्वयकों के लिए व्यवहारिक हो तभी बात बनेगी। (भारतीय हिमालय क्षेत्र से पलायन: चुनौतियां एवं समाधान- प्रो. अतुल जोशी)

अपने उत्तराखण्डी हिमालयी गांव चामी में रहते हुए दूर-दूर तक के गांवों के ग्रामीणों से हिमालय को तनिक भी खतरा है, ऐसा मुझे नहीं लगता है। उनके जीवन और जीविका की दिन-चर्या में कहीं भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर हिमालय को चोट पहुंचाने का विचार और व्यवहार है ही नहीं। यदि है भी तो प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत उसकी भरपाई खुद ही हो जाती है। और, मैं दावे के साथ कह सकता हूं मेरे चामी गांव की तरह ही समस्त हिमालयी गांवों का हिमालय के प्रति यही प्रकृति सम्मत व्यवहार है।

असल में, हिमालय जो भारतीय महाद्वीप के सम्पूर्ण पारिस्थिकीय तंत्र का जनक, नियंता और नियंत्रक है की गहन भूगर्भीय, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक चिन्तन किए जाने की आवश्यकता है। इस माध्यम से हिमालयी भू-क्षेत्र और जीव-जगत की गूढ़ जानकारियों को जन सामान्य तक पहुंचाया जाना चाहिए। यह सुझाव कि हिमालयी सीमाओं से हो रहे अत्यधिक पलायन पर युक्तिसंगत नीति बनाने एवं लागू करने हेतु केन्द्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर प्रभुत्व सम्पन्न हिमालयी राज्य विकास मंत्रालय का गठन करे। साथ ही, प्रवासियों द्वारा पहाड़ों अपनी पैतृक वीरान भवनों और बंजर जमीन से होने वाले नुकसानों से बचने और उनका सदुपयोग करने के लिए सरकार स्पष्ट नीति बनाये और कड़ाई से लागू करे।

मैं यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गांव से पलायन रोकने की बात कही जाती है तो उन्हें स्वयं इस तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी। हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा। पहाड़ के गांव में आना-जाना और गांव में ग्रामीणों जैसा रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है। गांव में जीवकोपार्जन करके जीवन को चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गांव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है। बावजूद इसके, ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं। यही उनकी ताकत और पहचान है।

यहां पर, उल्लेखनीय है कि हिमालयवासियों ने हिमालय की विकटता और विराटता को स्वीकार करते हुए उसके पारिस्थितिकीय स्वरूप के अनुरूप अपनी जीवन शैली को अपनाया और जीवनीय कर्मठता के बल पर अपने समाज को समृद्ध, वैभव और आनंद से परिपूर्ण करने में सफलता हासिल की है। आज जरूरत, हिमालयी राज्यों के स्थानीय जन-जीवन को सहज और सरल बनाने के लिए नई वैज्ञानिक चेतना और तकनीकी के बल पर आर्थिक-सामाजिक प्रगति की आवश्यकता है।

डॉ. अरुण कुकसाल
ग्राम-चामी, पोस्ट- सीरौं-246163
पट्टी- असवालस्यूं, विकासखण्ड-कल्जीखाल
जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड