ढुल मुल कृषि – उद्योग नीति
महावीर सिंह जगवान
जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद) को प्रभावित करने वाले दो बड़े क्षेत्र कृषि और उद्योग हैं।
भारत सरकार की कृषि नीति और उद्योगनीति के आधार पर ही कृषि क्षेत्र की सुरक्षा और विस्तार के साथ उद्योगों को बढावा देना और रोजगार के अवसरों के सृजन का लक्ष्य संजोया जाता है। भारत सरकार की नीतियों को राज्य सरकारें अपने राज्यों के हित मे लागू करती है और राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप उसमे बदलाव या लचीलापन लाकर अंतिम छोर के किसान उद्योगपति श्रमिक के हितों रक्षा करती है। हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की सेहत पर भी इन नीतियों का पुरजोर प्रभाव पड़ता है। राज्य सृजन की शुरूआत मे ही, राज्य की कृषि और उद्योग नीतियों को दूरदर्शिता के अभाव मे ऐसा अमलीजामा पहनाया गया जो तीन चौथाई पर्वतीय भूभाग को कतई लाभ नहीं देता। उत्तराखण्ड और उत्तरप्रदेश की कृषि और उद्योगनीतियाँ लगभग समान हैं जबकि हिमांचल और पंजाब की कृषि और उद्यान नीतियों मे जमीन आसमां का फर्क है।
उत्तराखण्ड के नीति निर्धारक सदैव इस भ्रम मे रहते हैं पहाड़ों पर न तो कृषि शसक्त है और न ही उद्योग इसलिये नीतियों का जो सीधे प्रभाव पड़ना है वह मैदानो मे ही, जिसकी परणति मैदान को तो लाभ मिल जाता है और उसी पैमाने से पहाड़ को तोलकर पहाड़ का बड़ा नुकसान हो जाता है। उत्तरप्रदेश के समय पर्वतीय क्षेत्रों की बनावट जरूरत और संभावनाऔं को देखकर पर्वतीय विकास मंत्रालय की शुरूआत हुई थी, यह मंत्रालय औसतन सभी योजनाऔं मे जमीनी न सही कागजी परिवर्तन दिखाकर विकास के पैमाने को चिन्हित कर योजना बनाता था। भले ही यह अधिक कारगर न हुआ हो लेकिन एक ऐसा मंत्रालय तो था ही जिसके नाम पर पर्वतीय शब्द लिखा था जो यह स्पष्टत: स्वीकार करता था विकट और दुरूह क्षेत्रों हेतु विशेष दृष्टि और नीति। यह लगभग अलग राज्य की परिकल्पना के संकेत सदृश परिस्थितियाँ तो थी ही।
हिमालयी राज्य बनने के बाद उस ओर समझना और बूझना ही बंद हो गया राज्य सरकार की नीतियों का सुदूर पर्वतांचलों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। लाभ और नुकसान तक का अध्ययन नही हो रहा है।निश्चित रूप से इक्कीसवीं सदी की जरूरत और समृद्धता मे राज्यों का योगदान राष्ट्र की प्रगति मे बहुमूल्य है। प्रगति के बड़े श्रोत कृषि क्षेत्र का विस्तार, अधिक उत्पादन और कृषि के प्रारूपो का विस्तारीकरण।उद्योग को बढावा, रोजगार के अवसरों का सृजन और जरूरत के उत्पादों का आयात से बचना। लोकतंत्र मे नेता और ब्यूरोक्रेट्स की बड़ी भागीदारी है लेकिन आधुनिक समय मे नेता, ब्यूरोक्रेट्स और उद्योगपति का बड़ा गठजोड़ है। यह सकारात्मक परिस्थितियों मे भले ही अधिक फलदाई है लेकिन क्षणिक राष्ट्रहित की अपेक्षा स्वहित का प्रभाव बढते ही यह लोकतंत्र की उत्पादकता को निगलना शुरू कर देता है।
राज्य बनते ही जल्दबाजी मे नीतियों का निर्धारण और उद्योगों की प्रकृति को संज्ञान मे लिये विना, पहले आऔ पहले पाऔ की लोकलुभावन नीतियों ने शुरूआती औद्योगिक पैकेजों पर बड़ा डाका मारा, एक एक रूपये मे हेक्टेयर के हिसाब से जमीनो का आवंटन हुआ। कई उद्योगों ने राज्य सरकार की गारण्टी पर बैंक से मोटा कर्ज प्राप्त किया और बड़ी सब्सिडियों को डकार कर अपने को दीवालिया कर किनारे हो गये। आज भी इन बंद पड़े उद्योंगो की शंख्या चालीस फीसदी से ऊपर है, बड़े बड़े दावे किये गये साठ फीसदी स्थानीय (उत्तराखण्डियों) को रोजगार मिलेगा लेकिन बीस फीसदी तक का आँकड़ा भी पार न हो सका। औसतन चार प्रकार के उद्योगपति एक्टिव हैं एक तो टाॅप लेवल के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के उद्योगपति जिनसे सरकारें प्रार्थना करती हैं हमारे राज्य मे उद्योग लगाऔ हम आपकी शर्तें मंजूर करेंगे और यह औद्योगिक घराने उद्योग लगाते हैं औद्योगिक पैकेज का पूरा लाभ लेते ही इनका उत्पादन घटने लगता है और यह उद्योग अपने मूल पुराने या जहाँ अधिक सुविधायें मिले वहाँ लौट जाते हैं। इनका कद इतना बड़ा होता है राज्य और केन्द्र सरकारें इनसे जबाब तलब करने से बचते हैं। दूसरे वो उद्योगपति हैं जिनका स्थानीय बाजार है वह सभी उद्योग शुरूआत तो उत्पादन से करते हैं लेकिन कुछ समय बाद इनमे आधे उद्योग अन्य राज्यों मे निर्मित उत्पादों को पैकेजिंग तक सीमित कर देते हैं। तीसरे उद्योग सभी सुविधाऔं को लेकर शसक्त स्वरूप मे चलते रहते हैं। चौथे प्रकार के उद्योग राजनैताऔं, ब्योरोक्रेट्स की शह पर खुलते हैं और सभी लाभ ग्रहण कर दिवालिया बन जाते हैं। परिणति बहुत बड़े औद्योगिक पैकेज जिसमे कृषि भूमि या अन्य प्रयोजन की भूमि का नुकसान तो हुआ ही है साथ ही बड़ी सब्सिडियाँ और सार्वजनिक बैंको की पूँजी तक नष्ट होकर ऊँचे लक्ष्य मे भारी गिरावट का कारण बनते हैं यह उद्योगनीतियों का प्रभाव है। उत्तराखण्ड के परिदृष्य मे उद्योगनीति अधिक सफल साबित नही हुई और इसकी सबसे बड़ी कीमत उत्तराखण्ड के उस तीन चौथाई भू भाग को चुकानी पड़ी जहाँ लोग रोजगार के लिये भारी पलायन कर रहे हैं जिसके समाधान के लिये राज्य बना था।
कृषि नीति का भी गजब हाल है रूड़की के अकरूद्दीन की सौ बीघा खेती और नीति घाटी के राम स्वरूप की चार नाली खेती के लिये एक जैसी नीतियाँ बनेंगी तो राम स्वरूप को खेती छोड़नी पड़ेगी क्योंकि न तो सुरक्षा के विकल्प होंगे न ही उत्पादन से आजीविका चलेगी और न ही योजनाऔं का लाभ मिलेगा। गैरसैंण मे विधान सभा का शीतकालीन सत्र प्रारम्भ हो रहा है काश तीन चौथाई भू भाग के विधान सभा प्रतिनिधि अपनी विधान सभाऔं के कृषि और उद्योग हितों को मध्य नजर रखते हुये उत्तराखण्ड सरकार से यह सुनिश्चित करवाने की सामर्थ्य रखते हमे हमारी भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप कृषि और उद्योग नीति दो ताकि हम पहाड़ों मे रोजगार के अवसर बढा सकें, ताकि हम पहाड़ की कृषि को लाभकारी बना सकें। लोकतंत्र मे सरकारों की नीतियों का प्रभाव इतना शक्तिशाली और उत्पादक होता है मानो परमेश्वर का निर्णय हो। बशर्ते विजन बड़ा, दृढ संकल्प और आमजन के साथ हिमालय और हिमालय के लोगों के हितो की रक्षा का ध्येय हो।
ये लेखक के विचार हैं