पुल – हिंदी कहानी
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
नाम की काली फाट यानी काली घाटी अलकनन्दा में समाने से लेकर चोरबाड़ी ग्लेशियर तक उफनती मन्दाकिनी नदी के मूड का कुछ पता नहीं चलता। पिछले तीन दिनों से घाटी अपने नाम के अनुरूप बादलों से काली, अंधियारा हो चुकी थी। बरसात ऐसी की लगता था कि सुबह बहा कर ले जायेगी। सौकू औजी के पठाल के घर के बगल से निकलने वाली छोटी नदी का देवर गधेरे से पानी फुंफकारने लगा था। पिछले साल बनी जिला पंचायत की सीमेण्ट की पुलिया को तीन दिनों की बारिश बहा ले गयी थी। इससे सारे परिवार के लोग गधेरे के दूसरे छोर पर कैद होकर रह गये थे। सौकू का खच्चर गधेरे के परली पार ही रह गया। सौकू ने पार जाने की बहुत मसक्कत की लेकिन देवर गधेरा फंफकारता था कि सौकू की हिम्ममत उसे पार करने की नहीं होती थी। आज दिन में कुछ देर जब बरसात रूकी तो पेड़ काटकर किसी तरह परली पार जाने का जुगाड़ किया व खच्चर को घास पानी दे पाया। सौकू पिछले एक दो हफ्ते से बौराया हुआ सा था। उसकी पत्नि झुमकी का प्रसव होने को था। सौकू की मां झबरा देवी अपनी बहु पर झल्ला भी जाती।
6 औलाद हो गयी तेरी पर एक कुल वंश चलाने वाला नहीं हुआ अभी तक और इस बार फिर आस बनी तो आसमान टूट पड़ा है। मेरे वंश का क्या होगा कुछ समझ नहीं आ रहा। झबरा को बड़बड़ाते देख सौकू भी उत्तेजित हो गया।
तू चुप रह मां देख नहीं रही मैं पहले ही आफत में पड़ा हुआ हूं। मकान के पीछे की दीवार ढह गई। खच्चर भूख में बिलबिला रहा है। 6 बेटियों का पेट भी भरना है तू मेरा दिमाग खराब मत कर बुढ़िया।
न न ना बेटा मैं कह रही थी कि तूने विजयनगर शारादा दाई को खबर की या नहीं। बुढ़िया सौकू के मूड को भांपकर थोड़ी सहम सी गई। वहीं जाने की तो कर्त-बर्त कर रहा हूं। खच्चर तीन दिनों से भूखा है। घर में भी राशन तेल खत्म हो गया। सोच रहा हूं थोड़ा बरसात कम हो तो विजयनगर जाऊं, देख नहीं रही नीचे मन्दाकिनी क्या तूफान मचा रही है। केदार की तरफ क्या कड़कताल मची हुई है। बम फूट रहे होंगे जैसे
हां वो मैं भी देख रही हूं बेटा ऐसा तो मैंने अपनी जिन्दगी में पहले कभी देखा ही नहीं। तीन दिनों से ऐसी बरखा हो रही है। लगता है सब बहने वाला है। जै केदार! तू ही रक्षक है। ब्वारी का प्रसव ठीक ठाक हो जाये व मुझे नाती का सुख दे दे झबरा ने केदार की ओर मुड़कर दोनों हाथ जोड़ दिये।
आसमान काले बादलों में ढ़का हुआ था। दोपहर में भी जैसे रात हो गई थी। बरसात थोड़ी कम होनी शुरू हुई पर रूकी नहीं। सौकू भी अब रूक नहीं सकता था। उसके उपर चारों ओर से आफत बरस रही थी। झुमकी की प्रसव पीड़ा बढ़ती जा रही थी। घर में खाने के लिए दाना-पानी नहीं, नल भी सूख गये थे। गधेरे में पानी बह रहा था। सौकू ने सिर पर बरसाती ओढ़ ली व उसे चारों ओर से रस्सी में लपेट लिया। पेड़ काटकर बनाये पुल से किसी तरह व परली पार गौशाली की ओर बढ़ा उसे देख खच्चर हिनहिनाने लगा। थोड़े से चने बचे हुये थे। सौकू ने थैला खच्चर के मुंह पर लगा दिया व उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा। खच्चर भी अपने मालिक के प्रेमवश शान्त हो गया। खच्चर को पानी पिलाकर सौकू ने रस्सी खोल दी व बरसात की झकमक में विजयनगर की ओर उतर पड़ा।
सारा रास्ता किच पिच हो गया था। कहीं पेड़ टूटे थे, तो कहीं रगड़ बगड़ होती रहती थी। कोहरे-धुंध व बारिश में सिर्फ मन्दाकिनी के सैलाब के तूफान की आवाज ही सुनाई देती थी। काफी दूर चलने पर भी उसे रास्ते भर काई प्राणी नहीं दिखा। कहीं-कहीं आवारा छोड़ी गयी गायें पेड़ों के नीचे दिख जाती व कुत्ते बड़े पत्थरों के नीचे सोये पड़े मिलते। सौकू कुछ ही देर में विजयनगर पुल तक पहुंच गया। वहां पुल के नीचे दो चार नेपाली मजदूर व गांव के लोग बरसात से बचने के लिए बैठे थे व बीड़ी फूंक रहे थे। सौकू भी काफी थक गया था वह भी भी थक उतारने के लिए वहीं रूक गया। उसने जेब से तम्बाकू की चिलम निकाली और धुंआ घूटने लगा। चन्द्रापुरी, सयालपौड़, सिल्ली में कई मकान बह गये हैं, नेपाली आपस में बात कर रहे थे।
क्या?
सौकू को जैसे झटका लगा।
हां हुजुर भौत नुकशान की खबर है। विजयनगर भी चपेट में है। जरा नीचे तो देखो पुल को छूने में अब बस एक मीटर ही रह गया है। ये पुल कहीं बह ना जाये।
अरे! ऐसा नहीं होगा। ऐसी बरसात में कई सालों से देख रहा हूं पर अपने विजयनगर के पुल को कभी कुछ नहीं हुआ। लेकिन मन नही मन सौकू विचलित भी था। उसे चिन्ता थी कि किसी तरह जल्दी परली पार विजय नगर पहुंच राशन तेल इक्ट्ठा करूं व शारदा दाई को खच्चर में बिठाकर घर ले जाऊं। झुमकी ना जाने कैसे स्थिति में होगी।
मन बुदबुदाता सौकू खच्चर की डोर खींचकर तेजी से पुल पार करने लगा। सामने मंदाकिनी फुंफकारती हुई चिंघाड़ रही थी। ऐसा दृश्य तो सौंकू ने वाकई कभी नहीं देखा। उसके मन में अनेक आशंकायें जन्म लेने लगी। उसे नेपालियों की बातों का अब थोड़ा भरोसा होने लगा था। विजयनगर में इतना पानी चढ़ गया तो चन्द्रापुरी, जवाहर नगर, सिल्ली तो नदी के और पास है। इसी उधेड़ बुन में कब पुल पार हो गया और वह सदानन्द की दुकान पर पहुंच गया। सौंकू को पता ही नहीं चला। दुकान पर ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। सड़कों पर लोग दिख नहीं दिख रहे थे। मरघट जैसा सन्नाटा था। विजयनगर बाजार में पता चला कि लोग सुरक्षित स्थानों की ओर चले गये थे।
अरे! सकू तू ठीक टाईम पर आया मैं भी दुकान बन्द करने वाला था। चारों ओर तबाही शुरू हो गई है। यहां कभी भी कुछ हो सकता है। जल्दी कर सदानन्द ने सौंकू की ओर मुखातिब होकर कहा।
सदानन्द के हाथों में पानी से तरबतर 300 रूपये पकड़ा कर सौंकू ने राशन की लिस्ट सुनानी शुरू कर दी। 300 रूपयों को देखकर सदानन्द का मुख सूख गया।
अबे पुराने उधार का क्या हेगा इससे कुछ नहीं मिलने वाला।
पण्डा जी सब दे दूंगा। इस बार मैं बहुत आफत में हूं। झुमकी का प्रसव होने को है। घर में एक दाना नहीं 6 बेटियां भूख से बिलबिला रही है। सौंकू ने सदानन्द के पांव पकड़ लिये।
तो तुझे किसने कहा इतनी औलादें पैदा करने को।
पण्डा जी इतनी ही अकल तुम्हारे जैसी भगवान मुझे देता तो ढ़ोल क्यूं पीटता। सौंकू ने सदानन्द को फुसलाते हुए कहा कि इन बरसातों मेंं बाजगी का काम भी ठप्प। सरकार ने खच्चर दिलाया तो इसको दाना खिलाने के लिए भी ध्याड़ी नहीं मिल रही है।
अच्छा अब तू ज्यादा बखान मत कर। मुझे दुकान बन्द कर जल्द ही रिश्तेदारी में निकलना है। सदानन्द ने सौंकू को हड़काते हुये कहा और राशन तोलने लगा।
सौकू ने राशन तेल कट्टों में पैक कर वहीं दुकान के बाहर बरसाती में ढ़ककर रख दिया। अब उसकी चिन्ता शारदा दाई को लाने की थी। खच्चर खींचकर विजयनगर के उपर गांव में शारदा दाई के धर के बाहर पहुंचकर सौंकू ने आवाज लगाई
शारदा बोड़ी कहां हैं? अरे कोई है घर में?
बाहर बरखा रूकने का नाम नहीं ले रही थी। चौक में खच्चर को बांधकर सौकू पठाल की झोप के नीचे आकर शारदा दाई को आवाज लगाता रहा। सौकू की आवाज को सुनकर एक छोटी लड़की बाहर आयी व बोली दादी अभी सो रही है।
अरे बेटी! जा अपनी दादी को बोल परली पार से सौकू औजी आया हुआ है। सौकू का ये बोलना था कि बुढ़िया खोली की सीढ़िया उतर कर सामने आ गई।
अरे बेटा! सौकू तू इस बरसात में यहां? सब ठीक तो है घर में?
सब ठीक है बोड़ी बस तुझे ही लेने आया हूं। झुमरी की प्रसव पीड़ा कल रात से बढ़ गयी है। मैं तो कल ही आने वाला था। पर इतनी घनघोर बरखा, रास्ते टूट गये, किसी तरह अब पहुंचा, सौकू ने अपनी व्यथा सुनाई। शारदा दाई बेचारे की स्थिति सुनकर पिघल गई।
हे! नन्दी जा जरा चाय बना सौकू के लिए शारदा ने अपनी नातिन को आवाज लगाई।
बौड़ी केदार बाबा लगते हैं बहुत नाराज हो गये हैं। रास्ते भर में जो भी मिला, कोई भी भली खबर नहीं है। क्या हुआ शारदा दाई ने उत्सुकता वश कहा।
बस बौड़ी बस लोग कह रहे हैं कि सौकू ने सारी खबर बुढ़िया के सामने उड़ैल दी।
ओह मां! बेटा ऐसा तो कभी नहीं सुना था। इस कलयुग में ना जाने और क्या क्या होने वाला है। हे मुनि जी! अब तुम ही बचाओ। 80 पार पहुंच चुकी शारदा भले ही बुढ़िया हो गई लेकिन जब प्रसव की बात हो तो उसने कभी भी किसी को नाराज नहीं किया। बरसाती ओढ़ कर बुढ़िया कुछ दूर पैदल ही सौकू के साथ चलती रही। नीचे दुकान से सौकू ने राशन खच्चर पर चढ़ा दिया। शारदा दाई व सौकू विजयनगर के पुल को पार ही कर रहे थे कि तभी भयानक आवाज हुई जैसे पहाड़ टूट गया हो। दोनों ने पीछे देखा तो उनके रौंगटे खड़े हो गये। देवल का मुनि जी का मन्दिर, धर्मशाला व कई मकान भरभराकर मन्दाकिनी में समा गये। दोनों भागकर किसी तरह पुल पार गये व हांफते हुये पुल से काफी ऊपर पहुंच गये। पेड़ के नीचे हांफते हुये शारदा ने मुनि जी के मन्दिर की ओर हाथ जोड़कर कहा
हे! केदार अब बस कर। शारदा की आंखों से आंसू झलक पड़े।
सौकू ने पेड़ के नीचे खच्चर बांध दिया बरसात लगातार जारी थी। चिल्लम जलाकर सौकू ने कुछ ही कस धुंआ घूटा कि सांय सांय गगड़ाट के साथ उफनती मन्दाकिनी विशाल जलराशि लेकर कब आयी और कब विजयनगर पुल को उड़ा ले गयी। कुछ पता ही नहीं चला। सौकू सन्न रह गया।
बौड़ी ये क्या हो रा है? शारदा की आवाज जैसे खो गई है। बुढ़िया आंखों को मीचती तबाही का मंजर देख सदमें में आ गई।
बेटा कुछ अब अपसगुन हो गया है। कुछ गलत कर दिया है हम लोगों ने। जो अपने सामने ये दिन देखन ेको मिल रहा है ऊपर नीचे ना जाने क्या हाल हो गया होगा। बुढ़िया अपने मायके वालों की याद में चिन्तित होनी लगी। बेटा मेरे मैत के खेत तो बह गये होंगे। गबनी गांव तो नदी के बहुत नजदीक है। हे! ईश्वर इस प्रलय को रोक बुढ़िया बुदबुदाने लगी।
बरखा थोड़ी कम हो गई। सौकू को घर पहुंचने की चिन्ता सताने लगी उसने सामान को खच्चर के दोनों ओर लगा दिया व शारदा दाई को खच्चर के ऊपर सहारा देकर बिठा दिया। बुढ़िया अब चढ़ाई चढ़ने की स्थिति में नहीं थी। भीगते भागते दोनों सौकू के घर पहुंच गये। सारे घर वाले उन्हीं की राह ताक रहे थे। झबरा ने जब सुना की सौकू और दाई पहुंच गयी तो वह भी किवाड़ खोलकर बाहर आ गई। शारदा के साथ सेवा नमस्ते हुई। ब्वारी की हालत कैसी है शारदा ने झबरा की और देखकर बोला।
क्या बोलूं दीदी कल रात से बेचारी पीड़ा से तड़प रही है। जितनी मेरी अकल थी सब लगा दी। अभी तक कुछ आसार नहीं दिख रहे हैं।
कोई बात नहीं तू चिन्ता मत कर बच्चों को बाहर निकाल अब ज्यादा देर नहीं करनी। शारदा ने झबरा को आश्वासन दिया।
शारदा बुढ़िया भी अन्दर घुस गई। बाहर बारिश ने तूफान मचाना शुरू कर दिया। सौकू वहीं देहली पर पसर गया। उसने चिल्लम सुलगा दी थी। अन्दर झुमकी पीड़ी से करराह रही थी। सौकू कश पे कश मार रहा था। आसमान में गड़गड़ाहट बढ़ गयी थी। सौकू अपने कुलदेवों को याद कर अपने आप में ही बड़बड़ाता जा रहा था। उसकी बेटी ने उसे चाय का गर्म गिलास पकड़ा दिया था। चाय की चुसकी ओर चिल्लम की कश से सौकू अपने तनाव को कम करने की जद्दोजहद कर रहा था। तभी बच्चे की किरकिराने की आवाज ने सौकू की तन्द्रा भंग कर दी। झबरा दरवाजे पर आकर सौकू से बोली बेटा केदार ने मेरी सुन ली, नाती हो गया है।
सौकू हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने केदारघाटी की ओर मुख कर हाथ जोड़ दिये।
पर मां झुमकी कैसी है।
वही तो चिन्ता की बात है बेटे। मैं खुशी भी नहीं मना सकती जब तक ब्वारी होश में ना आ जाये। झुमकी बेहोश है। बहुत खून बह गया है बेचारी का। शारदा दीदी कह रही है थोड़ी देर में होश में आ जायेगी। अगर कुछ दिक्कत हो गई तो ब्वारी को डॉक्टर के पास भी नहीं ले जा सकते। पुल भी बह गया। ये हमारे साथ कैसी ना इंसाफी हो रही है बेटा। झबरा रोने लगी
सब ठीक हो जायेगा मां तू रो मत। बड़ी मुश्किल से तो हमारे यहां कुलवंश पैदा हुआ है। झुमकी को कुछ नहीं होगा बाबा केदार की कृपा रहे। सौकू ने मां को सान्तवना दी।
शारदा भी कमरे से बाहर आ गयी। बड़ी बेटियां झुमकी व नवजात भाई की सेवा टहल करने लगी।
अच्छा बेटा! सौकू बच्चा तो सकुशल हो गया ब्वारी भी कुछ देर में होश में आ ही जायेगी। अब तो मैं वापस विजयनगर जा नहीं पाउंगी। तू मुझे मेरी दीदी के घर छोड़ दे। शाम भी घिरने लगी है। अंधेरे में फिर क्या करेंगे। शारदा ने सौकू को हिदायत देते हुये कहा
हां बौड़ी तू ठीक कह रही है।
सौकू ने बुढ़िया को पकड़कर खच्चर पर बिठा दिया और चल पड़ा। मैं अभी आता हूं। मां तब तुम अन्दर सम्भालों।
झुमकी को होश नहीं उसकी सांसे चल रही थी। वह शान्त पड़ी हुई थी। उसके मुख पर अजीब सी शन्ति जैसे उसने किसी का कर्ज चुका दिया हो। बेटा बीच-बीच में रोता रहा उसे दूध पिलाने वाली मां बेहोश थी। झबरा को कुछ नही सूझा उसने बच्चे को अपनी छाती से लगा दिया। बच्चा चुप हो गया था। बेटियां अपनी मां को होश में लाने का जतन कर रही थी। बाहर धुप्प अंधेरा छा गया था लेकिन बरसात की तड़तड़ और मनदाकिनी की फुंफकारती लहरों की आवाज कान फोड़ रही थी। रात के 9 बज चुके थे। तभी दरवाजे पर सौकू लड़खड़ात हुये पहुंचा आज सौकू खुश था। 6 बेटियों के बाद उसे पुत्र प्राप्त हुआ था। इसी पिनक में सौकू गल्लिया लुहार के यहां से खूब कच्ची दारू पीकर आया था। घर के अन्दर रोना चिल्लाना मचा हुआ था। सौकू ने सिर हिलाया उसकी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर रोने वाली बात क्या है। सौकू ने अपनी बड़ी बेटी रेखा को आवाज देकर पूछा
बेटी तुम रो क्यूं रही हो। आज तो हंसने का दिन है। रेखा सौकू की बात से और दहाड़ कर रोने लगी।
पिताजी मां नहीं रही।
क्या क्यया
सौकू का नशा उतर गया। वह धड़ाम से देहली पर बैठ गया। विजयनगर का पुल तो बह गया लेकिन सौकू के वंश का पुल बनकर पूरा हो गया था।
कहानीकार – जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’