November 22, 2024



खैट पर्वत यात्रा- 05

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डॉ. अरुण कुकसाल


दिव्यता और भव्यता को निहारते हुए – राक्स देवता (राक्षस देवता) की धार तक हमारे पहुंचने से काफी पहले ही सभी बहिनें पहुंच चुकी हैं। उनमें से कुछ रास्ते के इधर-उधर सुस्ताने बैठी हैं। कुछ राक्स मन्दिर में पूजा कर रही हैं। पत्थरों को करीने से सजा कर बनाया यह छोटा सा मन्दिर कैटभ राक्षस का है। स्थानीय मान्यताओं की यह विशिष्टता है कि अक्सर बुरे बर्ताव वाले ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को भी देवता मान लिया गया है। इस कारण अपनी मृत्यु के बाद वे भी विधिपूर्वक पूजा-अर्चना के हकदार माने जाते हैं।

यह धार दो पहाड़ियों के सन्धि स्थल वाली है। जिस रास्ते हम आये हैं वह रास्ता अब इन पहाड़ियों की ओर दो भागों में बंट गया है। हमारे सामने दांयी ओर की पगडण्डी खैट शिखर की ओर है, तो पीछे बायें ओर की पगडण्डी पीढ़ी की भराड़ी के शिखर की ओर है। राक्स देवता (राक्षस देवता) की धार से खैट शिखर 3 किमी. और पीढ़ी की भराड़ी शिखर 7 किमी. की दूरी पर है। इस समय दोनों पहाड़ियों के शिखरों की ओर सीधे चढ़ती-उतरती ये पगडण्डियां हमें चुनौतियां देती लग रही हैं। जैसे कह रही हो कि आओ तो सही हमारी ओर। देखें कितना दम हैं, तुममें?


हमने बैठते ही रास्ते के लिए रखी खाने-पीने की चीजें आदतन निकाली और, पास बैठी बहिनों से भी खाने का आग्रह किया तो उनमें से एक महिला ने कहा कि- ‘हम सबका तो व्रत है। अब तो खैट मन्दिर के भण्डारे में ही वे प्रसाद ग्रहण करेंगी।’ एक हम है कि सुबह डटकर नाश्ता करने के बाद रास्ते भर मुंह चबाते हुए आ रहे हैं। और, फिर भी, पस्त हुए जा रहे हैं। अभी तो हमने आधा रास्ता ही पार किया है। और, हमारे चेहरे की हवाईयां हमारे थकान से चकनाचूर होने का प्रमाण हैं। दूसरी ओर, इन बहनों के खिले चेहरे इनके आत्मबल की अभिव्यक्ति है।


‘ये राक्स देवता (राक्षस देवता) की कुड़ी (घर) है। यहीं पर देवी ने मधु राक्षस को मारा था। बाद में उसे भी देवता माना गया। यहां पर घर से लाई मरसू (चौलाई) और आस-पास की घास-पत्ती चढ़ाई जाती है। महिलायें पुरानी चूडियां, बिन्दी और अन्य श्रृंगार का सामान भी यहां अर्पित करती हैं। यहां से एक रास्ता पीढ़ी की भराडी के डांडा की ओर है। वहां भी देवी का मन्दिर है। कुछ लोग एक ही दिन में खैट और भराड़ी के डांडा की यात्रा भी कर लेते हैं।’ एक बहिन यह जानकारी देती है।

सीधी चढ़ाई के बाद दूसरी धार का रास्ता पहले ज्यादा संकरा है। पहाड़ के माथे पर लम्बे फेर वाली वक्राकार लकीर लिए इस रास्ते के दायीं ओर इस कदर गहरी और सीधी खाई है कि देखकर ही डर लग रहा है। फिसले तो, सीधे खाई की तलहटी में ‘राम नाम सत्य है’ के उपरान्त ही औरों को दर्शन दे पायेंगे। हम बायें हाथ से पहाड़ के ऊपरी हिस्से को इसलिए छूकर चल रहे हैं ताकि डर पर कुछ नियंत्रण हो। साथी महिलायें अपनी स्वाभाविक चाल चल रही हैं, जैसे अपने घर-गांव के रास्तों में ही हो।


रक्षपाल ( क्षेत्रपाल देवता) के मंदिर खैटखाल में पहुंचे है। यह थात गांव और कोल गांव से खैट पर्वत आने-जाने वाले दोनों रास्तों का मिलन स्थल है। खैट पर्वत जाने के दो रास्ते हैं एक रास्ता जिससे हम आयें है जैसे- जागधार, पीपलडाली पुल, रजाखेत, भटवाड़ा-कोल गांव तक सड़क मार्ग उसके बाद 7 किमी. पैदल। दूसरा रास्ता जागधार, घनसाली, सुनहरी गाड (मुलानी), थात गांव तक सड़क मार्ग से और उसके बाद 3 किमी. पैदल चल कर खैट पर्वत पहंचा जाता है।

‘देवी मन्दिर से पहले रक्षपाल देवता गांव-इलाके की रक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। यहां से मन्दिर परिसर आरम्भ हो जाता है।’ एक महिला हमें बताती है। ‘इसी खैटखाल के नजदीक आंछरियों (वन देवियों) ने जीतू बगड्वाल और सूरज कौंळ का अपहरण किया था। आप लोग कहें तो सूरज कौंळ वाली लोक गाथा का एक अंश आपको सुनाता हूं।’ मैं साथ चल रही बहिनों से कहता हूं। ‘हां भैजी, जरूर सुनाओ’ एक बहिन ने तुरंत कहा है। और, मैं बिना अपने साथियों की इजाजत के उन्हीं को सुनाते हुए यह देव गीत गुनगुनाता हूं-




‘उच्चा खैटखाल मा घोडी चरणू को छोडी,

धार म बैठिक मर्दों, सुरजि सुस्ताण बैठिगै,

बजौण बैठिगे सुरजु नौसुरों बांसुळी

खैटखाल रंदी होळी खैट की आंछरी…

मुरुळि कि धुन पौंछे अछरियों का कान….’

‘ऊंचे खैट खाल में सुरजि (सूरज कौंळ) ने अपनी घोड़ी को चरने के लिए छोड़ दिया है, और अब वह आराम करते हुए अपनी नौ सुरों वाली बांसुरी बजाने लगा है। खैटखाल में रहने वाली आंछरी के कान में उसके मुरुली की धुन पंहुची…..’

‘हे! भैजी, आप तैं त सब पता च। पैळि यख सभ्भि नंग्या खुट्या अर बिणा रंग-बिरंग्या लत्तया पैरि औंदा थो। यख भडैकि बोळुण कि भि मनै छै। अब कुछ नि रै ग्ये। पर, क्वी-क्वी सादा लत्तों म अर नग्यां खुट्यों म यीं जात्रा तैं अभ्भि भि करदा छन। (हे! भाई सहाब, आपको तो सब पता है। यहां पहले सभी नंगे पैर और बिना रंग-बिरंगे कपडे पहन कर आते थे। जोर की आवाज करना भी मना था। अब तो कुछ भी प्रतिबन्ध नहीं है। पर कुछ लोग अभी भी पहले के रिवाज की तरह सादे कपड़ों और नंगे पैर यहां आते हैं’ एक बहिन ने इस जागर को सुन कर कहा है।

मन्दिर की घण्टियों के आवाज के साथ देवी भागवत के पूजन की कथा से खैट का मन्दिर (समुद्रतल से ऊंचाई 10500 फीट) गुजांयमान है। यहां आकर तुरंत कार्तिक स्वामी मन्दिर का ध्यान आ रहा है। चारों ओर की खुली धार के बीचों-बीच खैट का यह शिखर है। हर तरफ एक विहंगम दृश्य शोभायमान हो रहा है। हवा का एक सार शोर चारों ओर है। मां भगवती का मन्दिर सबसे ऊपर हैं। उसके नीचे एक चौक और धर्मशाला है। मन्दिर में चल रहे प्रवचन इस जगह की दिव्यता को और भव्यता प्रदान कर रहे हैं।

हमारे मित्र प्रेम दत्त नौटियाल ‘कामिड’ इस आयोजन के मुख्य कर्णधार हैं। ‘खैट पर्वत मंदिर निर्माण एवं जन जागरण समिति के माध्यम से सन् 1984 से इस स्थल पर वे हर साल (कोरोना काल को छोडकर) मां भगवती का भागवत करा रहे हैं। निःसंदेह, बिना पानी की इस विकट जगह पर यह आयोजन करना अथक साहस और परिश्रम का कार्य है। प्रेम दत्त नौटियाल ‘कामिड’ बताते हैं कि ‘इस स्थल पर मां भगवती ने मधु-कैटभ राक्षसों का वध किया था। मधु राक्षस चम्पावत (कुमाऊं) और कैटभ का मृत्यु शरीर यहीं रहा था। कैटभ से बाद में इस स्थल को खैट कहा जाने लगा। यह क्षेत्र आंछरियों (वन देवियों) के लिए जाना जाता है। ये वनदेवियां हमारे पशुधन और भूमि की रक्षा करती हैं। मुख्यतया नजदीकी थात और चौंदाणा गांव से इनका घनिष्ठ संबंध माना जाता है। थात गांव के पवांर लोग देवी के पश्वा (जिन पर देवी-देवता अवतरित होते हैं) हैं।’

मन्दिर में अच्छी खासी भीड़ है। मन्दिर के दर्शन के उपरान्त भक्तगण कथा वाचक के लिए बनाये गए मंच के सामने बैठे हैं। पूरे आयोजन के दौरान दोपहर 12 बजे से रात्रि 8 बजे तक यहां भण्डारा चलता है। सारी व्यवस्थायें दानदाताओं से होती है। सड़क से यहां तक सारा सामान स्थानीय लोग निःस्वार्थ भक्तिभाव से पहुंचाते हैं। जिन रास्तों पर अकेले चलना कठिन हो वहां राशन लेकर सामान लेकर चलना दुष्कर है। परन्तु लोगों की अटूट आस्था उनसे यह विकट श्रमदान भी करा देती है।

प्रेम दत्त नौटियाल ‘कामिड’ जानकारी देते हैं कि ‘खैट मन्दिर परिसर में पानी की आपूर्ति के लिए दो वाटर हारवेस्टिंग टैंक बनाये गये हैं। इन टेंकों में साल भर वर्षा का पानी जमा होता रहता है। इन टेंकों के माध्यम से मंदिर मे आने-जाने वालों की पेयजल आवश्कताओं की पूर्ति होती है।’ वे बताते हैं कि ‘खैट पर्वत शिखर से हिमालय की लगभग सभी चोटियां दिखाई देती हैं। इस कारण यह स्थल सामरिक सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।’

फरफराती हवा में धीरे-धीरे तेजी और ठण्डक आने लगी है। मौसम बिगड़ने पर वापस जाने के लिए जंगल के रास्ते से गुजरना ज्यादा कष्टप्रद और जोखिम भरा है। और, सबका मन है कि खैट पर्वत की भव्यता और दिव्यता को कुछ देर और आत्मसात किया जाय। पर, ये भी तो है कि, हमारे जीवन में अक्सर मन की कहां होती है? दिमाग तुरंत हमें यर्थाथ का आईना दिखाता जो रहता है। इसलिए, साथियों की राय में अपने को भी शामिल करते हुए वापस भटवाड़ा गांव के रास्ते की ओर पर हम सब चल रहे हैं। लेकिन चलते-चलते वापसी के कदम थमतें जरूर हैं, थकान के कारण नहीं, पीछे मुड़कर फिर खैट पर्वत की दिव्यता और भव्यता को निहारने के लिए।

फोटो- विजय पाण्डे

यात्रा के साथी-

विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, राकेश जुगराण