परियों के देश की यात्रा- 01
डॉ. अरुण कुकसाल
जंगल की आग देखते रहना अब हमारे लिए आम बात है-
7 जून, 2023
‘क्या बोळि तुमन, खैट कु डाडां!!!, किलै जाणा छवा? तुम तै पता, अंछरि रैंदन वख, हर भि दैंदि वु।’
(क्या बोला तुमने, खैट पर्वत!!! क्यों जा रहे हो? तुम्हें पता है परियां रहती हैं वहां, जो अपहरण भी कर लेती हैं।)
‘अंछरि त सुंदर लोगों तैं हरदिन, अर तुमर हि बोळ च कि, मि कै भि तरौ स्य सुंदर नि छौं, इलैकि वख जाण म, मी तैं कुई डौर नी।’
(परियां तो सुन्दर लोगों का अपहरण करती हैं, और तुम्हारा ही कहना है कि, किसी भी तरह से मैं सुन्दर नहीं हूं, इसलिए वहां जाने में, मुझे कोई डर नहीं है।)
‘घरौ काम छोड़ि कि, यु छौ तुम नौनौं दगड़ डांडां-डांडां डबकणों जाणा, वूंकि सैर करना, अपणि उमर त द्य्ख्या…’
(घर का काम छोड़ कर, तुम लड़कों के साथ पहाड दर पहाड में भटकने के लिए जाते हो, उनकी देखादेखी में अपनी उमर तो देखो…)
श्रीमती जी की चिन्ता और उलाहना के प्रत्युत्तर में अपनी दलील का असर अन्य दिनों की तरह आज भी नहीं हुआ, फिर भी खैट पर्वत जाने की जारी नाराजगी में भी उनकी मूक अनचाही सहमति मिल ही गई है।
गाड़ी अभी श्रीनगर बाजार से बाहर निकली है। कीर्तिनगर आने को है, और, भूपेन्द्र इस यात्रा का शुरुवाती बयान जारी कर रहा है कि ‘हम पांचों में राकेश जुगराण जी सबसे खूबसूरत पुरुष हैं। इसलिए, हमको उनका विशेष घ्यान रखना होगा। खैट पर्वत की आंछरियां (परियां) उन्हें लापता कर सकती हैं।
‘हां ऐसा हो सकता है, इसीलिए, गाडी में जुगराण जी को बीच में बिठाया है। बाद में, पैदल चलते हुए भी उनके आगे-पीछे विशेष सुरक्षा रखी जायेगी।’ विजय ने भूपेन्द्र की बात को आगे बढ़ाया है।‘
‘भाई सहाब, इन लड़कों की बात छोड़ो, ‘ये बताओ, क्या वाकई, खैट पर्वत पर आंछरियों का राज है।’ विजय और मेरे बीच में बैठे राकेश ने मेरी ओर मुखातिब होकर अपनी उत्सुकता जाहिर की है।
‘हां, ऐसा मानते तो हैं।’ मैं कहता हूं।
‘आंछरियों का ये क्या चक्कर है? जरा बता दो भाईसहाब।’ अपनी जानी-पहचानी मनमोहक मुस्कराहट को लिए राकेश जानना चाह रहे हैं।
‘चलो, मैं बताता हूं, मैंने बोला ही था कि-
‘अब आप सब, चलती गाड़ी में एक लम्बी किस्सागोई सुनने के लिए तैयार हो जाओ।’ गाड़ी चलाते हुए सीताराम बहुगुणा ने अपनी बात में मुझे इंगित करते हुए चुटीले अन्दाज में कहा है।
‘अच्छी बात है, आंछरियों के मिथक को जानना जरूरी है और ये, सही मौका भी है।’ विजय की जिज्ञासा ने हल्की-फुल्की बातचीत को गम्भीरता दी है।
और, मैं शुरू हो जाता हूं-
‘आछरी / धाकुडी / भराड़ी / वन देवी/ ऐड़ी / मांतरी / परियां / अप्सरायें सामान्यतया ये सब छोटी आयु में असमय मृत्यु को प्राप्त अतृप्त लालसाओं को लिए कुवांरी कन्याओं की आत्मायें मानी जाती हैं। ये अक्सर पर्वत शिखरों, निर्जन जंगलों अथवा पानी के आस-पास निवास करती हैं। गढ़वाली लोक जीवन में खैट पर्वत की आंछरियां बहुत प्रसिद्ध हैं।
किवदन्तियां है कि खैट पर्वत पर 9 बैंणी आंछरियों का राज है। इसीलिए, खैट पर्वत को परियों का देश/परियों की भूमि भी कहा जाता है। मान्यता है कि ये आंछरियां मन्दोदरी और रावण की पुत्रियां हैं। किवदन्ती यह भी है कि ये नाग कन्यायें हैं, जिन्हें देवी के रूप में पूजा जाता है। भूतांगी स्वरूप में अप्सराओं की तरह खूबसूरत ये आछरियां मनुष्यों का अपहरण भी कर देती हैं। इस डर से बचने के लिए स्थानीय जनमानस इनके प्रति ध्याणी (बहिन/बेटी) के रिश्ते की भावना रखते हैं। उनका विश्वास है कि पारिवारिक रिश्ता होने से आंछरियां उन्हें कोई हानि नहीं पंहुंचायेगीं।
तभी तो, उत्तराखण्डी समाज में आंछरियों को सम्बोधित यह देवगीत प्रचलन में है-
‘न्यूंति कै बोल्यूळा त्वीकैं बैणा, पूजिके पठूंळा हो,
तुकणि दिउंळा बैणा, तूल्या भनार हो,….
तुमी पुतल्यों का बैणा, छमराट पड़ी हिरैहुं हो,
तुमरो हर्यो छ बैणा, कंचनी को नाच हो।
(अर्थात् ‘हे बहिन! तुझे निमंत्रण देकर बुलायेंगे। तुम्हारी पूजा करके तुम्हें विदा करेंगें।….हे बहिन! हमें तुम्हारे आभूषणों की छमछमाहट सुनाई दे रही है। हमारी आंखों से तुम्हारा कंचन नृत्य दिखाई दे रहा है।)
लेकिन, यह बात भी जनश्रृत्रियों में खूब है कि आंछरियों द्वारा मनुष्यों विशेषकर पुरुषों का अपहरण किया जाता रहा है। गढ़वाल-कुमाऊं की लोककथाओं और लोकगीतों में कई ऐतिहासिक नायकों के आंछरियों द्वारा अपहृत करने का अनेकों बार जिक्र है।
किवदन्तियां है कि, खैट पर्वत की आंछरियों ने वीरान-घने जंगल में सुन्दर युवा जीतू बगड्वाल और वीर सूरज कौंळ/कुवंर/नाग को अपहरण करने के उद्धेश्य से घेर लिया था। और, इस वायदे के साथ उन्हें छोड़ा कि वे अपने कार्य को पूरा करने के बाद वापस आते हुए उनके हवाले हो जायेंगे। और, ऐसा ही हुआ भी था।’
मैं, इस संदर्भ को विराम देते हुए, चलती गाडी से बाहर दिख रहे मलेथा के सेरा (सिंचित खेतों) की प्रस्तावित रेल योजना के लिए खुर्द-बुर्द स्थिति पर यात्रा मित्रों से विमर्श शुरू करता हूं।
मलेथा तिराहे से टिहरी की ओर आगे बढ़ते ही हमारे बायें ओर वीराने में खड़ा ‘वीर माधोसिंह स्मृति द्वार’ है। हमेशा की तरह आज भी ये द्वार मुझे ताकते हुए पूछ रहा है कि ‘बेहद उपजाऊ मलेथा की भूमि को ही रेल आने के लिए क्यों कुर्बान किया जा रहा है?’
महत्वपूर्ण है कि, ऐतिहासिक व्यक्तित्व माधोसिंह भण्डारी ने लगभग 3 शताब्दी पहले मलेथा की इसी भूमि को सिंचित और उपजाऊ बनाने के लिए कठोर चट्टान काट कर नहर खोद दी थी।
‘विकास प्रक्रिया में उपजाऊ भूमि को बचाये रखने की नीति और नियत हमारे योजनाकारों के पास नहीं है?’ विजय ने तहस-नहस हो गए मलेथा के खेतों को देखते हुए कहा है।
‘ऐसा ही रहा तो, समतल जमीन और बहती नदी देखना कुछ दशकों बाद पहाड़ों में दूभर हो जायेगा।’ सीताराम बहुगुणा का मत है।
‘जमीन और नदी ही नहीं तब यहां हरियाली और पहाड़ी आदमी भी तो नहीं दिखेगा। एक तरफ, पहाड़ी गांव वीरान हो रहे हैं। दूसरी ओर, पहाड़ की छाती पर जगह-जगह तेजी से चिपक कर फैलते नए कस्बे उसे निचोडेगें ही, वे हरियाली लाने से तो रहे।’ भूपेन्द्र ने अपनी बात कही है।
’हरियाली लाने के लिए अभी परसों ही 5 जून को पर्यावरण दिवस का शोर-शराबा तो हुआ। खूब पेड़ भी लगे और क्या चाहिए तुम्हें?’ सीताराम ने भूपेन्द्र से चुटकी ली।
‘भाई मेरे! सरकार और पर्यावरणगिद्धों मतलब पर्यावरणविदों से कह दो कि मत लगाओ पेड़, बस जो हैं उनको बचा लो, जंगल बनाया नहीं जाता स्वयं प्रकृति बनाती है। देख रहे हो हाल, हमारे दोनों तरफ के पहाड़ों पर जगह-जगह जंगल जलने से धुंये के बादल मजे से टहल रहे हैं।’ भूपेन्द्र जरा जोश में है।
वाकई, जंगलों में लगी आग के कारण चारों ओर फैले धुयें की घुटन से हमारी आंखों में मिचमिची मची हुई है। इसलिए, गाडी के शीशे चढ़ाकर एसी चलाना मजबूरी है। संकरी घाटी और रुकी हुई हवा के कारण धुयें की धुंध और गहरी है।
लेकिन, ताज्जुब है कि, सड़क के आस-पास के भवनों, दुकानों और खेतों में दिख रहे लोगों को देख कर ऐसा लगता है कि, उनके लिए यह आम बात है। यह कहना मुश्किल है कि, अपने गांवों के आस-पास के जंगलों में लगी आग के प्रति वे लाचार हैं या उदासीन अथवा लाचार होने के कारण उदासीन।
ज्यादा दशक नहीं बीते हैं जब गांव के लोग जंगल की आग बुझाने तुरंत दौड़ पड़ते थे। तब, इन ग्रामीण इलाकों के जनजीवन में सरकार नहीं जन सरोकारों की पैठ और सक्रियता थी। वे यह बखूबी जानते थे कि उनके जीवन और जीविका की जीवंतता के लिए जंगलों का होना नितांत जरूरी है।
बदलते वक्त के साथ, सरकारी तंत्र के पालने में पलती तथाकथित नवीन विकास की अवधारणा ने ग्रामीणों की मनोदशा को बदला है। जिसके कारण, सिमटती खेती और घटते पशुपालन ने ग्रामीणों की जंगलों के प्रति दायित्वशीलता की भावना को कमजोर किया है। लापरवाह एवं अक्षम सरकारी तंत्र ने इस प्रवृत्ति को और प्रबल किया है।……
यात्रा जारी है….
अरुण कुकसाल
यात्रा के साथी-
विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, राकेश जुगराण