सेम-मुखेम यात्रा
डॉ. अरुण कुकसाल
सेम-मुखेम यात्रा-
गंगू रमोला, सिदुवा – बिदुवा और श्रीकृष्ण
14 अप्रैल, 2023
श्रीनगर से भोर में चले हैं। गूगल बता रहा है कि श्रीनगर (गढ़वाल) से सेम-मुखेम 130 किमी. है। श्रीनगर, मलेथा, डांगचौरा, दुगड्डा में सड़कों के किनारे इस भोर में ही नजीबाबाद और ऋषीकेश से आयी सब्जी और राशन से लदे ट्रक जगह-जगह खडे़ मिल रहे हैं। सुबह होने तक दुकानदारी के हिसाब से लोकल दुकानदारों तक ये सब्जियां और राशन पहुंच जायेगा।
ज्यादा समय नहीं हुआ ये इलाके समृद्ध खेती के लिए जाने जाते थे। जिस माधोसिंह भण्डारी को मलेथा की जमीन उपजाऊ बनाने का श्रेय है, उसी मलेथा की जमीन पर आजकल रेलवे लाइन निर्माण की धूम है। टिहरी रियासत काल में डांगचौरा-दुगड्डा से दादा दौलतराम खुगशाल के नेतृत्व में सन् 1946 में जन्मे किसान आन्दोलन ने स्थानीय खेती को तब के क्रूर शासकों से बचाने में सफलता अर्जित कर ली थी। आज वही खेती बेजान और वीरान बन रही है।
ये नया विकास उपजाऊ जमीनों को भी तेजी से निगल रहा है। उसकी दृष्टि पहाड़ी जमीन पर उपजाऊ और अनुउपजाऊ की नहीं वरन मात्र उसे अधिकतम बिकाऊ बनाने की है। पहाड़ों में खेती की जमीनों को सिकोड़ कर सड़कें चौड़ी हुई हैं। लेकिन, इन चौड़ी सड़कों ने गांवों की स्थानीय उद्यमशीलता को वीरान कर उसमें बाहरी बाजार को ही विस्तार दिया है। ये सब चिन्तनीय विषय हैं। लेकिन, नीति-नियन्ता समाज के भविष्य की चिन्ता और चिन्तन की नहीं आज के चकाचौंध को बनाये रखने की जरूरत ज्यादा समझ रहे हैं।
कांडीखाल पहुंचने से पहले ही उसकी ऊंची धार चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित चन्द्रबदनी मंदिर (समुद्रतल से 2277 मीटर ऊंचाई) दिखने लगा है। चन्द्रबदनी की स्थिति ऐसी है कि गढ़वाल के अधिकांश स्थानों से उसके दर्शन हो जाते हैं। आद्य शक्ति देवी भगवती का रूप चन्द्रबदनी इस क्षेत्र की इष्ट देवी है। उल्लेखनीय है कि चन्द्रबदनी मंदिर देश में देवी के कुल 51 सिद्ध पीठों में एक प्रमुख सिद्धपीठ है।
कांडीखाल को पार करते ही पौखाल की खुली घाटी है। खेती और जंगल से यह क्षेत्र सरसब्ज है। विगत शताब्दी के 70 के दशक में टिहरी बांध के निर्माण के दौरान पौखाल में नई टिहरी नगर को विकसित करने पर विचार किया गया था। यह विचार उपयुक्त भी था। खुली और समतल घाटी होने से इसमें अवस्थापना व्यय काफी कम रहता। साथ ही, इससे श्रीनगर और कीर्तिनगर से जुड़ा एक नया नगर विकसित होता। जो इस क्षेत्र की आर्थिकी और सामाजिकी को मजबूती प्रदान करता। परन्तु, ऐसा हो न सका। इसका कारण यह भी है कि शासन-प्रशासन की नई टिहरी नगर को बसाने के लिए अवस्थापना खर्च को कम करने की मंशा नहीं रही होगी। स्वाभाविक रूप में, ऐसा करना उसके लिए भी लाभप्रद था।
पौखाल से आगे बढ़ते ही भिलंगना नदी (टिहरी बांध के लिए रोकी गई नदी) के दूसरी ओर खैट पर्वत (समुद्रतल से 10500 फीट ऊंचाई) की ओर नजरें जाती हैं। थात गांव से 6 किमी. की पैदल दुर्गम चढ़ाई के बाद गुम्बदाकार चोटी खैट पर्वत है। खैट पर्वत सन् 1995 में पृथक राज्य आन्दोलन के दौरान उत्तराखण्ड क्रांति दल के नेता दिवाकर भट्ट और अन्य साथियों के आमरण अनशन के कारण चर्चित रहा है।
किवदन्तियां है कि ‘खैट पर्वत पर 9 बैंणी आछरियों ( परियां ) का राज है। इसीलिए, खैट पर्वत को परियों का देश भी कहा जाता है। ये आछरियां मन्दोदरी और रावण की पुत्रियां हैं। जिन्हें, देवी के रूप में पूजा जाता है। यह भी मान्यता है कि आंछरियां नागकन्यायें हैं। अप्सराओं की तरह सुन्दर ये आछरियां मनुष्यों का हरण भी करती हैं।
गढ़वाल की ऐतिहासिक लोककथाओं में अपनी बहिन की ससुराल के गांव जाते हुए वीरान और घने जंगल में सुर्दशन युवा जीतू बगड्वाल और तिब्बत युद्ध को जाने को तैयार वीर योद्धा सूरज कुवंर को आछरियों द्वारा अपहरण करने की लोककथा और लोकगीत बहुत प्रसिद्ध है। तब, आछरियों ने इन्हें इस वायदे पर छोड़ा कि वे वापस आने के बाद, उनके हवाले हो जायेंगे।’
पौखाल से जाखधार पहुंचने पर दांये घनसाली-बूढ़ाकेदार और सीधी सड़क पीपलडाली की ओर सड़क है। पीपलडाली से मुख्य सड़क सीधे आगे नई टिहरी की ओर है। हमारा रास्ता दांई ओर पीपलडाली पुल पार करके लम्बगांव और सेम-मुखेम की ओर है। पीपलडाली पुल टिहरी बांध के भिलंगना नदी वाले हिस्से की ओर है।
यहां से भिलंगना गुमसुम झील में तब्दील एक ठहरी हुई नदी सी दिखती है। जैसे, वह अपने नैसर्गिक प्रवाह को जबरदस्ती रोकने के कारण बेहद उदास हो गई हो। और, इसी उदासी में व्याकुल उसका गुस्सा बार-बार झील की तह से ऊपरी सतह पर आकर उधर-उधर तरंगित पानी में झलकता है। जैसा कि, वह अब भी किसी भी तरह से आगे बहने की जद्दो-जेहद में है।
टिहरी बांध देश का सबसे ऊंचा (260.50 मीटर) और विशालकाय बांध (44 किमी. क्षेत्र) है। विगत शताब्दी के 70 के दशक से निर्माणाधीन टिहरी बांध ने वर्ष-2006 से बिजली उत्पादन आरम्भ कर दिया था। यह कहा गया था कि इस परियोजना से 2400 मेगावाट की बिजली उत्पन्न होगी, जिसका 12 प्रतिशत हिस्सा उत्तराखण्ड को दिया जायेगा। आज हालत ये है कि सामान्यतया बमुश्किल 700-800 बिजली उत्पादित करने में ही यह डेम हांफ जाता है। इसका कारण भागीरथी और भिलंगना में निरन्तर जल के प्रवाह मात्रा कम होते जाना है।
उत्तर-प्रदेश और एनटीपीसी के आधिपत्य वाले टिहरी डेम में अपनी उपजाऊ जमीन, एक ऐतिहासिक नगर और सैंकड़ों गांवों को डुबाने वाले उत्तराखण्ड की इसमें भागेदारी आज मात्र एक दृष्टा की रह गई है। कहा ये जाता है कि दिल्ली की पेयजलापूर्ति में टिहरी बांध का महत्वपूर्ण योगदान है। और, यहां टिहरी बांध के इस ऊपरी हिस्से में स्थित गांवों की सड़कों के किनारे हैण्डपाइप और नलों पर पानी पाने के इंतजार में ग्रामीणों की आवा-जाही सुबह से ही जहां-तहां दिखाई दे रही है। नीचे भीमकाय झील में विलीन अपनी पैतृक नदी (भागीरथी और भिलंगना) को देखते हुए रोज पीने के पानी को प्राप्त करने के लिए परेशान होना स्थानीय लोगों की नियति है।
ये अप्रैल का महीना है। स्वाभाविक है कि, गर्मियों में पानी की किल्लत इन गांवों में और ज्यादा होने वाली है। बांध के पानी के वर्तमान सतह से ऊपरी पहाड़ी हिस्से में उग आये पानी के भयावह निशानों को देखते हुए प्रश्न यह है कि आखिर, ये डेम किसकी खातिर बना। सवाल ये वाजिब है पर फिलहाल इसका जवाब लापता है। हम टिहरी बांध के लम्बगांव और प्रतापनगर वाले क्षेत्र में हैं। यह इलाका उद्यमशील व्यक्तित्वों के लिए चर्चित और लोकप्रिय रहा है। देश – दुनिया में यहां के लोगों ने अपनी कर्मशीलता से सराहनीय सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल की है। लेकिन, बिडम्बना यह है कि, टिहरी बांध से यह क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित हुआ है।
टिहरी बांध निर्माण के बाद यहां पहुंचने की भौगोलिक दूरी बड़ी है, जिससे यह क्षेत्र मुख्य धारा से अलग – थलग हुआ है। यहां आने के लिए एक तरफ भिलंगना नदी पर पीपलडाली पुल है तो दूसरी ओर भागीरथी नदी पर डोबरा-चांठी पुल है। (डोबरा-चांठी पुल देश का सबसे बड़ा झूला पुल है जिसे बनने में 14 साल (वर्ष-2006-2020) लगे। इस पुल की कुल लम्बाई 725 मीटर है जिसमें 440 मीटर झूला पुल है।)
रास्ता तीव्र चढ़ाई और उतराई का है। चिथड़ी हो गई सड़क पर जगह – जगह पसरे गड्डे इंगित कर रहे हैं कि, यहां के लिए ये सामान्य बात है। इस सबके बावजूद गाडियां धांय से आ – जा रही हैं। अचानक सामने से तेजी से आती अन्दर और छत पर ठुसें हुए लोगों वाली जीप से हमारी गाड़ी की मुठभेड़ होते-होते बच गई है। ड्रायवर महाशय एक हाथ से मोबाइल कान पर लगाये और दूसरे से स्टेरिंग थामें हुए हैं। दुर्घटना को न्योता देने जैसा यह दृश्य है। पर उनके लिए चिन्ता की कोई बात नहीं। यह तो अपने घर की सड़क में रोज की बात है। पहाड़ों पर आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं से पूर्व का यह सामान्य दृश्य होता है।
वैसे, सच बतायें, चलती गाड़ी की छत पर बैठा आदमी अपने को उस समय हीरो जैसा समझता है, जबकि हकीकत यह है कि लोगों को वह लोफर जैसा ही दिखता है, और कुछ नहीं। पीपलडाली से धारकोट और उसके बाद काण्डाखाल गांव है। (काण्डाखाल से एक सड़क प्रतापनगर (समुद्रतल से 7800 फीट ऊंचाई) की ओर है। टिहरी नरेश प्रताप शाह (सन् 1871-86) का सन् 1877 में बसाया प्रतापनगर एक खूबसूरत हिल स्टेशन है। प्रतापनगर से भी सेम – मुखेम को जाया जा सकता है।)
काण्डाखाल के बाद लम्बगांव एक बड़ा बाजार है। नाम के जैसे ही लम्बगांव का बाजार सीधे एक लाइन में लम्बी दूरी तक है। सेम – मुखेम क्षेत्र से जन्म लेने वाली जलकुर नदी लम्बगांव की तलहटी में बहती है। यह आगे चल कर भल्डियाना स्थान पर भागीरथी में विलीन हो जाती है। अभी सुबह के 10 बजे हैं और नजदीकी गांवों से जीपों में यात्रियों का आना शुरू ही हुआ है। फिर भी, लम्बगांव बाजार से गुजरते हुए लम्बे जाम को हम झेल रहे हैं। दिन तक दूर – दराज के गांवों से लोगों से भरी कई जीपें आयेंगी तो जाम की जटिलता और विकट होगी। लेकिन, पहाड़ी कस्बों के लिए यह एक सामान्य और रोज की बात है।
लम्बगांव बाजार से बांये ओर की सड़क पर जलकुर नदी के ऊपर बने पुल को पार करते ही तीखी चढ़ाई का रास्ता है। दोनों ओर की पहाड़ियों पर बसे गांवों की सृमद्धता उनके खेतों से बखूबी नज़र आ रही है। इस क्षेत्र के निवासियों की कर्मठता इस बात से दिख जाती है कि कोई भी खेत और आस-पास की जमीन वीरान और बंजर नहीें है। उत्तराखण्ड की यात्राओं में वीरान और बेजान खेत अक्सर दिखते हैं। लेकिन, यहां सुखद आश्चर्य यह है कि जहां खेतों में भरपूर फसल है तो ढ़लानों में मिश्रित चारे पत्ती वाले घने जंगल। महिलायें और पुरुष बराबरी में अपने-अपने काम धन्धों में लगे हैं। उनके चेहरे की रंगत बता रही है कि अच्छी खेती और आबोहवा के कारण उनका स्वास्थ्य भी बेहतर है।
दूर-दूर तक सुनहरी होती गेहूं की फसल अब पकने को है। आम और आडू के पेड़ों में खूब बौर आई है। मन हो रहा है कि जब दो महीने बाद ये आम-आडू पकेंगे तो फिर मुझे यहां तुरंत दौड़ा चला आना चाहिए। धन – धान्य से भरपूर यहां के गांवों का एक आकर्षण और भी दिख रहा है। सभी गांवों में एक सीधी कतार में लम्बे और केवल एक मंजिला मकान ही हैं। एक मंजिल से ऊपर के घर कहीं नहीं दिख रहे हैं। अधिक ऊंचाई पर लगातार तेज चलने वाली हवाओं के प्रतिकूल दबाव से बचने का यह एक कारण हो सकता है। गांवों के घरों की कलात्मकता देखती ही मन मोह ले रही है।
ये गांव इसलिए भी सुन्दर लग रहे हैं कि कोई उजाड़ और खण्हर भवन कहीं नहीं हैं। पहाड़ के अन्य भागों में उजाड़ घर दिखना आम बात है। यहां ऐसा न होना एक सुखद आश्चर्य है। वैसे भी, प्रतापनगर – लम्बगांव इलाके के लोगों की निर्माण कार्य (सड़क और भवन) में निपुणता होने कारण उनकी ख्याति समूचे गढ़वाल में है। ऋषीकेष-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग में व्यासी से आगे और साकनीधार से पीछे की तोता घाटी इसका प्रमाण है। यह मार्ग सन् 1931-35 में ठेकेदार तोता सिंह के अदम्य साहस और धैर्य से बन पाया था। तत्कालीन टिहरी राजा नरेन्द्रशाह ने तोता सिंह के सराहनीय योगदान के लिए इस घाटी का नाम ‘तोता घाटी’ घोषित करके राजपत्र जारी किया था। बताते चलें कि, इस घाटी की कठोर चट्टानों को काट कर सड़क बनाने वाले तोता सिंह प्रतापनगर इलाके के रहने वाले थे।
दीनगांव पहुंचने पर मुख्य सड़क अब आगे चौरंगीखाल – उत्तरकाशी की ओर है। दीनगांव में मुख्य सड़क से बांये ओर सेम – मुखेम के लिए संपर्क मार्ग है। अंधाधुध तेज रफ्तार में दौडती जीप और टैक्सियों का आतंक इधर नहीं दिख नहीं रहा है। अधिकतर, बच्चे, बूढ़े और जवान मंदिर की ओर पैदल ही चल रहे हैं। सेम – मुखेम के लिए सड़क मार्ग मढ़भागी सौड़ नामक जगह पर खत्म हुआ है। बांज, बुरांस और देवदार के घने जंगल से घिरा एक विशाल और समतल मैदान मढ़भागी सौड़ हमारे सम्मुख है। इसके शुरुआती हिस्से में गढ़वाल मंडल विकास निगम का आवास गृह है। मैदान के दांई ओर स्थानीय दुकानों की एक लम्बी कतार पैदल रास्ते के शुभारम्भ गेट तक है।
आज बिखोत (बैशाखी) है। मेले का दिन है, इसलिए, मंदिर जाने वालों की भीड़ अन्य दिनों ज्यादा है। जलेबी की दुकाने जगह – जगह पर सजी हैं, बच्चे रंगीन चश्मा पहने पूं बाजा बजाने मस्त हैं। होटलों में बड़े – बड़े गढ़तौलों (तांबे के बड़े बर्तन) में बन रही पहाड़ी राजमा – उड़द की दाल की मनमोहक खुशबू चहुंओर महक रही है। बड़ी मुश्किल से अपने मन को समझा कर इन होटलों के आस-पास बिठा आया हूं कि सेम – मुखेम मंदिर से वापस आने पर ही इस लाजवाब भोजन को ग्रहण करके मन की तृप्ति हो पायेगी।
मढ़भागी सौड़ से सेम – मुखेम तकरीबन 2 किमी. की पैदल दूरी पर है। हल्की चढ़ाई से शुरू हुआ यह मार्ग तुरंत ही तीखी चढ़ाई में तब्दील हो गया है। थकान होने पर किसी पत्थर पर बैठ कर पीछे आने वाले साथियों की ओर देखो तो सामने हिमालय की चोटियों में मन अटक कर रम जाता है। बांज, देवदार, थुनेर, काफल, बुरांस और जंगली फूलों से यह रास्ता लकदक है। पगडंडी के इधर – उधर बड़ी मात्रा में तेज हवाओं से गिरे रंग – बिरंगे फूलों से लगता है कि ये हमारे स्वागतार्थ ही बिखेरे गए हैं।
‘हे भगवान! मैं कैसे चलूं इन फूलों के ऊपर? फूलों पर पैर रखने को मन नहीें हो रहा है।’ सौम्या कहती है।
नजदीकी गांवों से आए बच्चे और युवा अपने स्वाभाविक चाल में आ – जा रहे हैं। उनके लिए यह रास्ता जाना – पहचाना है। उन्हें न थकान है और न आने – जाने वालों से कोई मतलब। वो अपनी ही मस्ती में हैं। वो, निर्धारित रास्ते से हटकर कहीं का कहीं शार्टकट रास्ता अपनाये हुए हैं। रास्ते के किनारे बनी बैंचों पर अलग – अलग मुद्राओं में बैठे बच्चों की फोटो खींचने मन होता है। मैं जैसे ही मोबाइल अपनी आंखों के सामने लगाने की कोशिश करता हूं कि एक 10 – 12 साल का बच्चा तेजी से आगे रास्ते की ओर यह कह कर भाग रहा है कि-
‘मेरा अपना यू-टूयूब चैनल है, मैं दूसरे से क्यों फोटो खिचंवाऊं?’
अन्य बच्चें भी फोटो खिंचवाने में अनमने हो रहे हैं। लिहाजा, मैं सकपका कर अपना मोबाइल जेब में रख रहा हूं। ये बात तय है कि, आज के बच्चे बडों से फोटो खिंचवाने से उकता गए हैं। ठीक इस समय, मुझे अपना बचपन याद आ रहा है, तब हमारी साल भर में 3-4 बार ही किसी विशेष प्रयोजन पर ही फोटो खिंच पाती थी। और, खिंची फोटो का प्रिंट देखने के लिए हम कई दिनों तक लालायित रहते थे। मैं इस प्रसंग को बदलते हुए चलते – चलते बच्चों से बात की शुरुआत करता हूं-‘आप लोग बने – बनाये रास्ते पर नहीं चल कर अनावश्यक शार्टकट से क्यों चल रहे हो? ‘अरे अकंल, वो बच्चे ही क्या जो बने-बनाये रास्तों पर चले! हम तो वहां चलेंगे जहां से हमारा मन होगा’ उनमें से एक बच्चे ने कहा।
‘ये तो ठीक है पर जानते पहाड़ों में शार्टकट रास्तों से कितना नुकसान होता है। इससे पेड-पौधों की अनावश्यक बरबादी और जमीन पर गंदगी अधिक फैलती है।’ परन्तु, ये क्या? जिनसे मैं कह रहा हूं, वो मेरे सुने को अनुसुना करते हुए तेजी से ऊपरी मोड़ पर पहुंच चुके हैं। ‘कौन सुन रहा है तुम्हारी?’ दीना जी कहना है। ‘इस समय नहीं सुन रहें हैं पर थोड़ा बड़ा होने पर वो इस बात को समझेगें। क्योंकि, एक बात उन्होने आज बस सुनी ही है, समझ आने पर वो भविष्य में इस पर विचार और अमल अवश्य करेंगे।’ अपने बचाव के लिए इस समय मैं यही कह सकता हूं।
प्रकृति बेहद खूबसूरत है, पर हम मानव उसे कितना खराब कर सकते हैं उसी में अपना आनंद खोजते हैं। यह इलाका तेज हवाओं वाला है। और, इस समय भी यहां तेज हवा बराबर चल रही है। नतीजन, रास्ते के दोनों ओर बिखरी प्लास्टिक की बोतलें और पैकेट उड़-उड़ कर जंगल के अंदर तक घुसपैठ करती नज़र आ रही हैं। कहीं कोई ऐसा प्रबंधतत्र नहीं दिखता कि जो इस पर नियंत्रण रख पाये। आधा रास्ता तय हुआ है। यहां पर भैरव शिला है। शिला के सम्मुख बैठे पुजारी सुभाष भट्ट मुखेम गांव के हैं। रामा – रामी के बाद उन्होने प्रेम से धाराप्रवाह सेम – मुखेम के बारे में बताना शुरू किया है। इस समय चढ़ते रास्ते की थकान उतारते समय सेम – मुखेम का महात्म को जानना हमारे वरदान ही है।
वाह! सुदंर सत्संग का संयोग बन गया है-
‘सेम-मुखेम क सौड़, जख रीखा चौकीदार, बाघ थानेदार, यन जगा भगवान, तुम लेन्दा अवतार’। अर्थात, ‘सेम के घने जंगल में जहां भालू चौकीदार और बाघ थानेदार है। वहां भगवान आप अवतार लेते हो।’
टिहरी (गढ़वाल ) जनपद के प्रतापनगर तहसील के रमोली पट्टी में सेम – मुखेम (समुद्रतल से 8500 फीट की ऊंचाई) स्थित है। यह सिद्धपीठ नागराजा एवं श्रीकृष्ण के गुप्त निवास के रूप में प्रसिद्ध है। सेम से तात्पर्य नमी (सेमन्दा/सिलाप) वाले स्थान से है। सेम एक निर्जन जगह है और आबादी मुखेम गांव में है। मुखेम गांव सेम की तलहटी पर बसा है। यहां तलहटी से लेकर चोटी तक जाड़ों में 4 से 10 फुट तक बर्फ रहती है। यह मंदिर वर्ष भर खुला रहता है। मनौती की पूजा लिए आने वाले यात्रियों की संख्या यहां अधिक होती है। लोग अब जाड़ों में भी आने लगे हैं, परन्तु वे तीर्थयात्री कम पर्यटक ज्यादा होते हैं।
सेम – मुखेम के रावल और पुजारी मुखेम गांव के हैं। रावल सेमवाल जाति के हैं जो मुख्य गर्भगृह की पूजा करते हैं। पुजारी भट्ट जाति के जो मंदिर के बाहर हवन कार्य करते हैं। सेम – मुखेम मंदिर से जुड़े हुए लोग जाड़ों में गढ़वाल और अन्य क्षेत्रों भिक्षाटन के लिए जाते हैं। सामान्यतया, इनको फिक्वाल कहा जाता है।
नागतीर्थ सेम – मुखेम मंदिर के जन्म की गाथा को रैंका – रमोली गढ़पति गंगू रमोला, सिदुवा – बिदुवा और श्रीकृष्ण के साथ जोड़ा जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण इस स्थल के नैसर्गिक सौन्दर्य से अभीभूत हुए। उन्होने यहां रहने के लिए गंगू रमोला से ढाई गज जमीन उन्हें दान करने का आग्रह किया। गंगू रमोला के मना करने पर श्रीकृष्ण के शाप से इस क्षेत्र में कई विनाशकारी घटनायें घटित होने लगी। आखिर में, गंगू रमोला के क्षमा मांगने पर फिर से यह क्षेत्र अपने पूर्ववर्ती खुशहाल स्थिति में आ गया।
सेम – मुखेम क्षेत्र को कलिया नाग से भी जोड़ा जाता है जो श्रीकृष्ण की सलाह पर अपनी रानी विमला के साथ हिमालय के इस क्षेत्र में रहने लगा था। लोक कथाओं और लोक गीतों में इनके 9 पुत्रों और 9 कन्याओं का उल्लेख मिलता है। मान्यता है कि, गंगू रमोला ने इस क्षेत्र में सात मंदिर बनाये जिसमें सेम – मुखेम प्रकट रूप में और शेष छः अदृश्य मंदिर माने जाते हैं। गंगू रमोला के पुत्र नाथपंथी सिदुवा और बिदुवा गुरू गोरखनाथ के अनुयायी, परमवीर और महान तांत्रिक थे। गढ़वाल और कुमाऊं में अनिष्ट निवारण एवं दैवीय आपदा से रक्षा के लिए प्रतिष्ठापित लोक देवता के रूप में इनकी पूजा की जाती है।
सेम – मुखेम मंदिर परिसर के ऊपरी ओर की चोटी के ठीक नीचे घने जंगल से घिरा एक लम्बा – चौड़ा मैदान है। जिसे ‘शतरंजू सौड़’ कहते हैं। इसी के पास कृष्ण से सम्बधित घोड़ा-खुरी पवित्र पत्थर है। इस स्थल पर हर तीसरे वर्ष माघ महीने की 11वीं तिथि में विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। पुजारी जी सुभाष भट्ट से सेम – मुखेम के बारे में मिली महत्वपूर्ण जानकारी को आत्मसात करते हुए आगे की चढ़ाई पर हम चल रहे हैं। तीखी चढ़ाई पर लगातार चलने की थकान से चूर सौम्या को देखकर मंदिर के दर्शन से वापस आती एक महिला हंसते हुए कहती है- ‘यूं रस्तों चलण म ज्वान हैंरणा अर बुढ़यां दौड़ना लग्यां’ (इस पैदल रास्ते पर चलते हुए जवान हारने लगे हैं और बुजुर्ग दौड़ रहे हैं।)
पहले से ही परेशान सौम्या के चेहरे पर उस महिला की बात सुनकर अब गुस्सा भी साफ झलक रहा है। पर, करे क्या? बात तो सही है। ‘मंजिल पर पहुंचने के आखिरी क्षणों में खत्म हो रहे धैर्य और ताकत को बनाए रखना होता है।’ मैं सौम्या की ओर मुखातिब होते कहता हूं ताकि उसका हौंसला कायम रहे। सेम – मुखेम मंदिर की घण्टियों की लगातार सुनाई दे रही साफ आवाज बता रही है कि हम अब बिल्कुल उसके पास है। इस निचले मोड़ से आगे की चढ़ाई इतनी तीखी है कि आगे के रास्ते की ओर झुरमुट में इधर – उधर जाते लोगों के केवल पैर ही पैर दिख रहे हैं। पता लगा, वह पानी का धारे के इर्द – गिर्द की भीड़ है। जहां यात्री अपने को अपने को तरोताजा कर रहे हैं।
बांज की जड़ों से खिलखिलाते हुए बाहर आता पानी इतना स्वच्छ और मीठा कि सीधे गले से अंदर तक जाता हुआ महसूस हो रहा है। इस अमृत पानी को पीते हुए, न प्यास बुझती है और न मन। इस धारे के ठीक ऊपर मंदिर परिसर में भी एक और पानी का धारा है। पानी के इस धारे से मंदिर की ओर घुमावदार सीढ़ियों की रेलिंग के हुक पर एक ही तरह की सैकड़ों घण्टियां कतार से लटकी हुई हैं। आने – जाने वाले यात्री दोनों तरफ की घण्टियों को बजाने का मोह और मौके का भरपूर आनंद ले रहे है। दो विशाल नागों के फनों को मिलाए मंदिर का मुख्य द्वार है। मेले का दिन है इसलिए भीड़ होना स्वाभाविक है। रंग – बिरंगी स्थानीय पोशाक में लोगों का यह समूह इस पूरे वातारण को अनुपम बना रहा है।
मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार पर घण्टियों और लाल चुनरियों से सजा – धजा एक वहृद संसार दिखता है। ये सब मनौती की घण्टियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में एक प्राकृतिक शिला है। इस शिला में नारद की वीणा और शेषनाग के फनों की आकृति मानी जाती है। इसी के पास कृष्ण, रुकमणि और राधा तथा हनुमान की मूर्तियां है। नागराज के रूप में भी कृष्ण यहां विराजमान हैं। (गढ़वाल में कृष्ण को नागराजा के रूप में पूजने का प्रचलन भी है।) एक लोहे का चाबुक है, जिसकी थपकी रावल जी हर यात्री के पीठ पर देते हैं। इसे नागराजा का विशेष आशीर्वाद माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह के दूसरे हिस्से में गंगू रमोला, मैनावती, सिदुवा और बिदुवा की मूर्तियां हैं। गर्भगृह के बाहरी भाग में हवन कुण्ड है। गर्भ गृह के दर्शन के बाद हर कोई हवन की आहुति देते हुए मंदिर से बाहर जा रहे हैं।
मंदिर के बाहर बांई ओर के एक हिस्से पर सभा कक्ष है जिसके एक किनारे गंगू रमोला की घ्यान मुद्रा में भव्य मूर्ति है। मंदिर के दांई ओर कुछ ही दूरी पर दो दुकानें सजी है। बताया गया कि पहले ये एक धर्मशाला थी। देख-रेख के अभाव में भवन की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। दीवारों पर अपने और अपने प्यार को अमर करने के लिए कोयले से आड़े – तिरछे लिखे नामों की भरमार है। इन दो दुकानों में मैगी, चाउमिन, चने – आलू, पकौड़ी, कोल्ड ड्रिंक, चाय – बिस्कुट, प्रसाद, कुरकुरे सभी कुछ है। दुकानदार बताते हैं कि मंदिर से थोड़ा हट कर ही रात्रि निवास और खाने के लिए सुविधाजनक होटल भी है। हमारे सामने हिमालय का विराट रूप है। मन्दिर के ऊपरी हिस्से की ओर हरा-भरा बुग्याल ‘शतरंजू सौड़’ दिखाई दे रहा है। चारों ओर घनघोर जंगल से घिरे शतरंजू सौड़ स्थल को देख कर मन हो रहा कि अब वहां जाऊं और उस बिछी हुई हरी घास पर अपनी जीवन की सारी थकान बिसरा दूं।
यात्रा के साथी – जगदम्बा घिल्डियाल, दीना कुकसाल, आशीष घिल्डियाल, सौम्या घिल्डियाल
अरुण कुकसाल
ग्राम – चामी, पोस्ट- सीरौं- 246163
पट्टी – असवालस्यूं, ब्लाक- कल्जीखाल
जनपद – पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड