रेतीले मारवाड़
मुकेश नौटियाल
रेतीले मारवाड़ में जब दुपहरी का सूरज चमकता है तो खोपड़ी जैसे चटखने लगती है. देर शाम जब रेतीली आंधियां चलती हैं तो लगता है कि क़यामत बस द्वार पर दस्तक देने लगी है. लेकिन जब मध्य रात्रि में आप रज़ाई ढूंढते हैं तो पता चलता है कि पारा खासा गिर गया है. मीलों तक यहां बस्तियों का नामों निशान नहीं. बसायतों के खण्डहरो से मारवाड़ अटा पड़ा है. खेती नहीं है, उद्योग नहीं तो मारवाड़ी समाज जन्मजात व्यापारी बन गया.
हमारे यहां बीसेक साल पहले एक मारवाड़ी ने किराए पर किसी के घर की चारदीवारी के बाहर चाय का एक ठेला लगाया था. बीस बरस हुए, वहाँ अब मारवाड़ी का विशाल भोजनालय है और उस समय किराए पर अपनी चारदीवारी चढाने वाला मालिक उसके होटल में बिल काटता है. वह घर मारवाड़ी ने खरीद लिया है . मारवाड़ी समाज को यह जिजीविषा इसी रेगिस्तान ने दी है. आज भारत भर में उनकी उपस्थिति देखी जा सकती है.
वरिष्ठ लेखक और कहानीकार