November 24, 2024



पुनाढ़ गांव से जनपद मुख्यालय बनने की कहानी

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


पहाड़ के गांवों की इतनी कहानियां हैं की यह कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला है. हर गांव का अपना इतिहास है. जैसे – जैसे सड़क मार्गों का निर्माण हुआ वैसे ही सड़कों के आस पास के गांवों की तस्वीर भी बदलती गयी. दूर दराज पहाड़ों की चोटियों से लेकर घाटियों में फैले गांवों का अपना अलग तरह का मिजाज आज भी बना हुआ है लेकिन सड़कों के किनारे बसे गांवों में समय के साथ बड़े बदलाव देखे गये. मेरे गांव पुनाढ़ ने भी ऐसा ही कुछ देखा भोगा है. पुराने लोगो को आज भी आधुनिक रुद्रप्रयाग पुनाढ़ ही याद आता है. जी हाँ आज का रुद्रप्रयाग पुराना पुनाढ़ गांव ही है. पञ्च प्रयागों में प्रसिद्ध रुद्रप्रयाग अलकनंदा व मन्दाकिनी नदियों का संगम है. व बद्रीनाथ व केदारनाथ यात्रा का मुख्य पड़ाव स्थल भी है. अब आधुनिक सुख सुविधाओं, सडकों के विस्तार से भले ही यात्री सीधे बद्रीनाथ व केदारनाथ पहुँच जा रहे हों लेकिन अभी भी रुद्रप्रयाग यात्रा का प्रमुख पड़ाव है.

मेरा गांव पुनाढ़ का विस्तार गुलाबराइ चट्टी से सुरु होकर अनेक उप ग्रामों में विभक्त है. भानाधर, पयांखील, पुनाढ़, ओन्न, भकारी, अम्म्सारी, बरसू, जयमंडी, बोंठा तक लगभग 8 किलोमीटर बर्ग क्षेत्र में फैला हुआ है. पुनाढ़ गांव से कई एतिहासिक घटनाये जुडी हुई है. लगभग 126 लोगों की जान लेने वाले नरभक्षी बाघ को प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट ने  गुलाबराई में ही मारा था. आज भी वह आम का पेड़ खड़ा है जिस पर मचान बनाकर जिम कॉर्बेट ने कई रातों बाघ की दबिश की थी. बाद में इसी बाघ मारने की रोमांचकारी कथा ‘मेंन ईटिंग लेपर्ड ऑफ़ रुद्रप्रयाग’ पुस्तक के रूप में १९४५ में ऑक्सफ़ोर्ड प्रेस ने प्रकाशित की. इसका हिंदी अनुवाद डॉ. प्रकाश थपलियाल ने ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’ के रूप में किया. बाघ की समाधी स्थल को अब एक संग्रहालय के रूप में विकसित किया जा चूका है. विश्व भर के पर्यटक इस स्थल को देखने के लिये गुलाबराई में जरुर रुकते हैं.


गुलाबराई पुराने यात्रा मार्ग की प्रमुख चट्टी हुआ करती थी. यहाँ अनेक छप्पर व घर यात्रियों के ठहरने के लिये बने थे. यहाँ पानी का प्राकृतिक धारा आज भी मौजूद है. कुछ समय पहले ये धारा सुख गया था लेकिन इस बार की बारिश से यहाँ धारा पुनर्जीवित हो गया है. गुलाबराई बहुत पुराने जमाने से पशुमंडी थी, जहा ख़ास पट्टी टिहरी के पशु ब्यापारी भैंस, बैल आदि बेचने आते थे. यात्रियों व सारे बाज़ार व गांव की दुग्ध आपूर्ति यहीं से होती थी. लेकिन अब यह पशु मंडी बंद हो चुकी है. गुलाबराई ने अब शहर का रूप ले लिया है. यहाँ कई होटल व सरकारी प्रतिष्ठान बन चुके है.


पुनाढ़ गांव की भूमि शिव को समर्पित हैं. यहाँ की सिंचित खेती मलेथा व पनाई गौचर जैसी थी, लेकिन गांव के तेजी से शहरीकरण ने सिंचित खेती को लगभग समाप्त कर दिया है. सिंचित खेती व नजदीक बाज़ार होने से पुनाढ़ गांव के लोगो को रोजगार गांव में ही मिल जाता था जिससे पुनाढ़ गांव से पलायन न के बराबर हुआ है. भले आज कई लोग शहरों में भी बस गये हैं लेकिन उन्होंने घर नहीं छोड़े हैं, उनका गांवों से संपर्क बना हुआ है.

दरअसल रुद्रप्रयाग, संगम वाले इलाके को ही बोला जाता था, आज का मुख्य बाज़ार पुनाढ़ गांव की सीमा में था, यात्रा मार्ग, मुख्य डाकघर, तारघर, अस्पताल, पशु अस्पताल, डाक बंगला, पटवारी व पुलिश चौकी, स्कूल सभी पुनाढ़ गावं में ही बने, यहाँ तक की सन १९६२ के भारत चीन युद्ध के दौरान, रातों रात पुनाढ़ गांवं के सिंचित खेतों में सेना की छावनी बना दी गयी, जो आज भी यथावत है. स्वतंत्रता के बाद पुनाढ़ गावं पौड़ी जनपद के खिर्शु विकास खंड, का हिस्सा था, बाद में कुछ समय के लिये पुनाढ़ जनपद चमोली में शामिल रहा व रुद्रप्रयाग जनपद के गठन के बाद रुद्रप्रयाग का हिस्सा बन गया. ये भी जानना रुचिकर होगा की रुद्रप्रयाग का संगम क्षेत्र जनपद चमोली, अलकनंदा के पार टिहरी जनपद व पुनाढ़ गांव वाला क्षोर पौड़ी जनपद का हिस्सा हुआ करता था. स्वंत्रता से पूर्व टिहरी राजशाही के अंतर्गत थी तो चमोली व पौड़ी का इलाका अंग्रेजों यानि ब्रिटिश गढ़वाल का हिस्सा था. पुनाढ़ गांव स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश गढ़वाल का हिस्सा था.


ब्रिटिश गढ़वाल के दौरान प्रसिद्ध राजनेता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के पिता जी पुनाढ़ के पटवारी बनकर आये तो उन्होंने अपने सगे सम्बन्धियों को पुनाढ़ गांव में बसाना सुरु किया, सुमाडी गावं के काला व अन्य गांवों के नौटियाल लोगों ने पुनाढ़ गांव में बेहतरीन भूमि अपने नाम की. बरसू गांव जो पुनाढ़ गांव का मध्यवर्ती गांव है को अपना मुख्य स्थल बनाया व अपने संबंधियों सेमवाल लोगो को भी बसाया. जैसा की पूर्व में लिख चूका हूँ पुनाढ़ गांव को शिव भूमि कहा जाता है तो यहाँ गिरी, पूरी व भारती लोगों के पास भी काफी भूमि थी, गोपाल सिंह पंवार अंग्रेजों के मुशी थे तो उन्होंने भी पुनाढ़ गांव में अपने काफी रिश्तेदारों को बसाया व भूमि अर्जन की.

पुनाढ़ गांव में भानाधार उप ग्राम की धार में किसी जमाने में गढ़देश की चौकी हुआ करती थी. यहाँ पर घंटे घड़ियाल बजते थे जो ठीक सामने पंच्भयाखाल तक सुनाई देते थे. यही प्रक्रिया वहां पर दोहराई जाती थी. इस प्रकार श्रीनगर दरबार तक सुरक्षा ब्यवस्था सुनिश्चित होती थी. स्वतंत्रता के बाद भानाधर में प्राथमिक विद्यालय बना. पुनाढ़ गांव यानि आधुनिक रुद्रप्रयाग के निर्माता स्वामी सचिदानन्द  को कहा जाता है. स्वामी जी ने रुद्रप्रयाग में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, पशु चिकित्सालय, संस्कृत महाविद्यालय, आवासीय इंटर कॉलेज, बालिका इंटर कॉलेज, खेल मैदान बनवाए.




पुनाढ़ गावं धन धान्य गांव था, सिंचित खेती से सारे गांवों की खाद्यान आपूर्ति हो जाती थे हर परिवार के पास भैंस, गाय, बैल जरुर होते थे. धान, गेहूं, दाल, मंडुवा, कोदा,  झंगोरा के साथ – साथ कटहल, कद्दू, ककड़ी, आलू, मुला, राई, लौकी, भिन्डी, मिर्च, लिंगुडा जैसी सब्जियां, आम, अमरुद, नीम्बू, लिम्बा, जामुन की खूब पैदावार थी. अपना भरपूर जंगल था तो घास चारे, जलाऊ लकड़ी पर्याप्त थी. गांव के मध्य सुजुगी गाड सदा नीरा लघु नदी बनी थी तो पेयजल व सिंचाई की आपूर्ति इसी से होती थी आज भी होती है. इसी लघु सरिता पर एक दौर में छोटा जल विद्युत गृह भी बना था जो बाद में क्षतिग्रस्त हो गया. सभी वर्गों जातियों से बसे इस गांव की एकता व समरसता की लोग आज भी सराहना करते है.

पुनाढ़ के पांडव व रामलीला के मंचन की कहानी सदियों से चली आ रही है. यहाँ के पांडव व रामलीला के कलाकारों की कभी सारे इलाके में बड़ी डिमांड होती थी. पांडव निर्त्य की यहाँ की शैली को बाद में कई गांवों ने अपनाया. यहाँ तक की पुनाढ़ के लोगों ने कई मेलों समारोहों में पांडव निर्त्य का प्रदर्शन भी किया. हमारे बुजुर्ग बताते हैं की एक बार गांव में पांडव निर्त्य का आयोजन हो रहा था. रात को निर्त्य अपने सबाब पर था, लेकिन द्रोपदी का पात्र किसी कारणवस पौड़ी जेल में था. अचानक निर्त्य स्थल की उपरी धार से किलकारी गूंजी और देखते ही देखते द्रोपदी का पात्र पांडव स्थल पर पहुँच चूका था. बाद में पात्र ने बताया की उसको पांडव आयोजन का स्मरण आया तो जेल के दरवाजे खुद ही खुल गये.

बदलते समय के साथ- साथ पुनाढ़ को भी बदलना पड़ा, एक वक़्त ऐसा भी आया की पुनाढ़ के उपग्राम बरसू को भुतहा गांव ‘घोस्ट विलेज’ तक कहा गया, क्यूंकि यहाँ से लोगो ने पलायन कर दिया था. लेकिन कुछ बरसों से इस गांव के युवाओं ने इसे फिर से बसाना सुरु कर दिया है. ये बड़ी उपलब्धि कही जाएगी.

मेरे गांव पुनाढ़ ने कई उतार चड़ाव देखे है. स्वतंत्रता के पश्चात मेरे गांव के एक छोटे से हिस्से को नगर पंचायत का दर्जा दिया गया, जैसे – जैसे बसावट बढ़ती गयी फिर इसको नगर पालिका में बदला गया जिसने मेरे गांव पुनाढ़ का बड़ा हिस्सा अपने में समाहित कर दिया. गुलाबराई, भानाधार, मूल पुनाढ़ गांव, आदि को शामिल कर दिया गया है. पुनाढ़ गांव का पुराना अस्तित्व व पहचान कहीं गायब सी हो गयी है. अमसारी, बरसू, जयमंडी व बोंठा गावों को मिलाकर नया गांव बरसू अब ग्राम पंचायत बन गयी है. लेकिन खुसी की बात यह है कि आज भी पूरे पुनाढ़ गांव के लोगों की सामूहिक एकता, मेल मिलाप यथावत है. गांव की पुराणी संस्था शिव समिति के तहत आज भी वार्षिक शिव पूजा, पांडव निर्त्य आदि कार्यक्रमों का पारंपरिक तरीके से निर्वहन किया जा रहा है.

पुनाढ़ गांव यानि आज का आधुनिक रुद्रप्रयाग शहर व अब जनपद मुख्यालय तक की कहानी को यहाँ समेटना मुश्किल है. पुनाढ़ गांव देश दुनिया के कई इतिहास पुरुषों का मुख्य पड़ाव बना रहा, आज भी यह मुख्य आकर्षण का केंद्र है और आगे भी रहेगा.