मेहरानगढ़ के दुर्ग
मुकेश नौटियाल
मेवाड़ के रणाओं से अलग मारवाड़ नरेश मुगलों और अंग्रेजों से टकराने से अमूमन बचते रहे -परिणामस्वरूप यहां चित्तौड़ की तरह जौहर-स्थल नहीं मिलते, अलबत्ता सतियों की कथाएं यहां के लोक में भी ख़ूब सुनी-गुनी जाती हैं। विशालकाय मेहरानगढ़ के दुर्ग के द्वार पर हथेलियों के ये निशान देख मैं चौंक गया। बताया गया कि राज-परिवार की महिलाएं जब सती होने जाती थीं तब स्मृतिस्वरूप अपनी हथेली को द्वार पर छाप देती थीं।
एक नहीं, ऐसे अनेक निशान दुर्ग के द्वारों पर आज भी देखे जा सकते हैं। आश्चर्य कि ख़ुद को ज़िंदा जलाने का जुनून रखने वाली इन राज – स्त्रियों की यादें इन महामहलों में अगर कहीं ज़िंदा भी हैं तो हथेलीभर जगह पर। बहरहाल.….राजस्थान का इतिहास साहस भरता है, कभी डराता भी है और अक्सर मुड़ -मुड़कर देखने को बाध्य कर देता है।
लेखक वरिष्ठ कहानीकार व साहित्यकार हैं.