मारखा घाटी की यात्रा
सुभाष तरान
कांग यात्से पर्वत श्रृंखला से नीचे की तरफ लहराते हुए लगभग सत्तर मील उतर कर जंस्कार घाटी में जाकर विलीन होने वाली मारखा घाटी का नामकरण मारखा गाँव के नाम पर ही हुआ है। सुबह स्कियू से नौ बजे चलने के बाद हम लोग दिन के लगभग तीन बजे तक मारखा गाँव की कैंप साइट में पहुँच गये थे। तकरीबन ग्यारह हजार से भी कुछ ज्यादा फीट की ऊँचाई पर पंद्रह मील के इस सफर के दौरान सूरज भले ही पश्चिम की तरफ हो गया था लेकिन धूप के तेवर अभी भी वैसे ही थे जैसे पूरे सफर के दौरान थे। हाँ, नदी के किनारे चलने वाली ठंडी हवा जब तब थोडी राहत पहुँचा रही थी। उपर निपट ढलानों में भरालों के झुंड यहाँ भी दिखाई दे रहे थे। खेतों में जौ, नदी के साथ उग आई कंटीली झाड़ियों और सफेदे के कुछ एक दरख्तों के चलते मारखा गाँव अपने आप में किसी नखलिस्तान की तरह लगता है। चारों तरफ दूर दूर तक फैले इस अलफ सूखे और रेतीले बियावान में नदी के किनारे से लगती हुई हमारी कैंप साइट बारीक हरी घास की कालीन ओढ़े अचानक से हुए किसी चमत्कार की तरह लग रही थी। हमे रास्ते में ऐसा बताया गया था कि मारखा गाँव में वाई-फाई मिल जाता है। क्योंकि घोड़े अभी बहुत पीछे थे इसलिए हमारे साथी अपने रक्सेक और बेग कैंप साइट पर पटक कर नेटवर्क पाने की चाह में गाँव की तरफ निकल लिए।
वैसे तो मारखा गाँव का इलाका घाटी में काफी दूर तक फैला हुआ है लेकिन जहां मुख्य गाँव है उसे मारखा घाटी के बांयी ओर से उतरता हुआ एक गदेरा दो भागों मे विभक्त करता है। जरा सी हवा से बिफर पड़ने वाले धूसर और भुरभुरे सूखे पहाडों पर बसे इस पुराने गाँव की स्थिति काफी सुरक्षित है। मारखा गाँव के घर, गाँव के चारों तरफ बने बौध चैत्य, एक भव्य बौद्ध मठ और गदेरे की वजह से अस्तित्व मे आई धार पर नजर आने वाले किलेनुमा खंडहर के अवशेष देखने वाले को सपने में होने का भान करवाते है। गाँव की शुरूआत में नदी के किनारे सरकारी स्कूल और डिस्पेंसरी के हाल के दौरान बाढ़ से दबे हुए भवन बताते हैं कि सरकारी तंत्र पहाड की इन दूरस्थ बसासतों को लेकर कितना गंभीर है। हम लोग गाँव में गये तो वहाँ काला चश्मा पहने एक बूढ़ी महिला के अलावा और कोई नजर नही आया। हमने उस महिला से बात करने की कोशिश की तो पता चला कि वह अपनी भाषा के अलावा और कोई भाषा नही समझ सकती।
थक हार कर हम लोग दूसरे रास्ते से नीचे किलेनुमा खंडहरों की तरफ उतरने लगे। हम थोड़ा ही आगे बढे थे कि तभी एक युवा नीचे से उपर की ओर आता दिखाई दिया। यह युवा नजदीक पहुँचा तो साथियों ने उससे वाई-फाई के पासवर्ड का तकाजा कर डाला। लेकिन उस लड़के ने यह कहकर वाई- फाई का पासवर्ड देने से इनकार कर दिया कि गाँव वालों को इसका बिल देना पड़ता है। मैने महसूस किया कि उस युवा का यह रवैया बाहरी लोगों के आने की वजह से उत्पन्न हुई असुरक्षा के चलते है। यह सारी दुनिया के आज का भयावह सच है। यह जानते हुए भी कि इन्ही बाहर से आने वाले पर्यटकों के चलते यहाँ के लोगों को रोजगार मुहैया होता है, उसका यह रवैया मुझे समझ नही आया, मुझे उसकी यह बात बहुत बुरी लगी।
बहरहाल, उस युवा का जवाब सुनकर साथी लोग बिना कुछ और कहे अपने कैंप साइट की तरफ आगे बढ गये। मैं सबसे पीछे चल रहा था। वह लड़का मेरे पास पहुँचा तो वह मुझसे मुखातिब होते हुए मेरे बारे में पूछने लगा। अपना परिचय देने के बाद मैने जब उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि वह मारखा गाँव के बौद्ध मठ में लामा है और उसका नाम स्तेंजिन सोनम है। उसका घर मारखा घाटी में उपर की ओर स्थित हंकर गाँव में है। मैने जब उससे मारखा गाँव के खाली घरों और आस पास में पसरे सन्नाटे के कारण को जानना चाहा तो उसने बताया कि सर्दियों के दौरान जब लद्दाख में पानी जम जाता है, मारखा गाँव आबाद मिलता है। आजकल यहाँ के लोग कारोबार के चलते या तो लेह में रहते हैं या जिनके पास पशु है वे अपने पशुओं के साथ निमालिंग चले जाते है। व्यक्तिगत और परिवेश परिचय के बाद हमारी बातचीत मारखा में मठ के निर्माण से होती हुई बुद्ध की उन शिक्षाओं पर आ गयी थी जिनमे हजारों सालों के बाद कुछ कुछ खराबियाँ आने लगी है। लामा स्तेंजिन सोनम को मेरी बातें सुनने में बडा मजा आ रहा था। उन्होंने मुझे मठ में चाय के लिए आमंत्रित किया तो मैने सहर्ष हामी भर दी। हम लोग बातें करते हुए मठ की तरफ हो लिए।
मठ के मुख्य द्वार से भीतर जाते ही दाईं तरफ लामा स्तेंजिन सोनम की रिहायश है जिसमे थोडा और अंदर जाने के बाद एक साफ सुथरी रसोई देखी जा सकती है। लामा स्तेजिन यहां ज्यादातर अकेले ही रहते है। वे रोज मठ में पूजा करते हैं। इसके लिए उन्हे बारह हजार रूपया सालाना मिलता है। लामा स्तेंजिन को मारखा के इस बौद्ध मठ के अलावा जरूरत पडने पर आस पास के गावों में भी पूजा करने जाना पड़ता है। स्टाइलिश कपड़े पहनने वाले, स्मार्ट फोन से लैस लामा स्तेंजिन के पास अपनी मोटर साईकिल है। जो उन्होने मारखा से थोडा पीछे, जहाँ तक मोटर साइकिल लायक रास्ता बना है, वहाँ पर किसी अस्थाई बसासत में रख छोड़ी है। उनका परिवार लेह में रहता है जिसके कारण वे कभी कभार लेह चले जाते हैं।
लामा स्तेंजिन ने चूल्हे पर चाय चढ़ाई ही थी कि तभी किसी ने बाहर से मठ का मुख्य दरवाजा खटखटाया। उसने मठ का बाहरी दरवाजा खोला तो बाहर एक बुजुर्ग खड़े थे। अपनी झुकी हुई कमर को और झुकाते हुए उस बुजुर्ग ने लामा स्तेंजिन को ‘जूले’ कहा। बदले में लामा ने भी ऐसा ही किया। पुरानी और मैली लद्दाखी पोशाक पहने यह बुजुर्ग भीतर आकर एक तरफ बैठ गया। झुर्रियों से भरा उसका थका हुआ चेहरा ऐसा प्रतीत करवा रहा था जैसे इस बुजुर्ग ने सदियों के दौरान कभी भी आराम नही किया है। उसकी एक आँख में पड़ा मोतियाबिंद उसकी नजर के संघर्षों की कहानी बयान कर रहा था।
लामा स्तेंजिन और बुजुर्ग के बीच होने वाली बातचीत मेरी समझ से परे थी। लामा स्तेंजिन इस बात को भांप गये। उन्होंने बुजुर्ग की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘यह मेरी माँ के पिता है। इनका नाम चांग रफ्तान है, ये हंकर से थोडा उपर की ओर बसे गाँव डोल्टोलिंग के रहने वाले है। बुजुर्ग के परिचय में थोडा और इजाफा करने के इरादे से लामा स्तेंजिन ने अपनी बात आगे बढ़ाई, – ये अस्सी बरस के होने वाले है। इनके पास दस गधे हैं और यह कल चिलिंग से एक ट्रैकिंग ग्रुप का सामान लेकर चले हैं। ये भी कांग यात्से बेस कैंप जा रहे है। इनका ग्रुप भी आज ही मारखा पहुँचा है। यह जितनी बार यहाँ आते हैं, मठ में अपने आराध्य को माथा जरूर टेकते है। मैने बुजुर्ग की तरफ नजर डाली तो वह मुस्कुरा दिया।
लामा स्तेंजिन ने हमारे लिए मठ का मुख्य कक्ष खोल दिया। बुजुर्ग के साथ मैं भी मुख्य कक्ष में चला गया जबकि लामा स्तेंजिन चूल्हे पर चढ़ी चाय देखने रसोई घर में चले गये। लकड़ी, पत्थर और गारे से लद्दाखी शैली में बना यह बौद्ध मठ भीतर से सजा संवरा हुआ नजर आता है। मठ के मुख्य कक्ष में बुद्ध की मूर्ति के अलावा लद्दाख के कुछ लामाओं की तस्वीरें भी देखी जा सकती है। मैं बुजुर्ग को प्रार्थना करते हुए देख रहा था। बुजुर्ग ने अपने बटुए से पचास का नोट निकाल कर पूजा स्थल के भेंट पात्र पर रखा और कितनी ही बार दंडवत होकर अपने उस ईश्वर का श्रद्धापूर्वक स्मरण करने लगा जिसके भरोसे उसने लद्दाख के इन सूखे रेतीले बीहडों में अस्सी बरस का संघर्षमय जीवन काट दिया है और अभी भी यहीं कई दशक और जीने के लिए जूझने के मंसूबे बांधे हुए है।
जब तक हम मठ के मुख्य कक्ष से वापिस लौटे तो लामा स्तेंजिन दो प्यालों मे चाय लेकर सामने खड़े थे। मैने और बूढ़े ने चाय पी। उसके बाद हम दोनों ने लामा स्तेंजिन को विदा कहा और अपने अपने ठिकानों की तरफ हो लिए। मठ से निकलते हुए लामा स्तेंजिन ने कहा कि वह कल सुबह जाने से पहले मुझसे मिलेगा।
अगले रोज सुबह जब हम सब लोग अपना अपना सामान बाँधने में व्यस्त थे, तभी लामा स्तेंजिन अपनी पारंपरिक पोशाक में कैप की तरफ आते दिखे। उनके हाथ मे एक रसीद बुक थी। लद्दाख में हर जगह टेंट्स लगाने का शुल्क अदा करना होता है। मारखा घाटी में एक टेंट का शुल्क तीन सौ रूपये है। अधिकतर जगहों पर यह शुल्क वही वसूल करता है जिसकी जमीन हो लेकिन जहाँ जमीन व्यक्तिगत नही है वहाँ यह अधिकार मठ का होता है और उसका हिसाब किताब संबधित लामा रखते है।
लामा स्तेंजिन जाने को हुए तो मैं शिष्टाचार वश उनको विदा करने थोडी दूर तक उनके साथ हो लिया। हम गाँव की हद पर पहुँचे ही थे कि एक अधेड़ महिला ने अपने घर से निकलते हुए लामा स्तेंजिन को रूकने हेतु आवाज लगाई। हम लोग रूक गये। वह महिला आई और उसने लामा स्तेंजिन को बहुत आदर के साथ ‘जुले’ कहा। लामा ने भी उसी आदर के साथ महिला को ‘जुले’ कहा। महिला ने झुक कर लामा स्तेंजिन को पूजा में चढाई जाने वाली कपड़े की पट्टियां कुछ प्रसाद और जूस का एक पैकेट लामा को दिया जिसे लामा ने बहुत आदर भाव के साथ स्वीकार किया।
मैंने लामा स्तेंजिन से विदा मांगी तो उन्होंने हाथ मिलाते हुए मुझे सर्दियों के दौरान मारखा आने को कहा। मैने उन्हें आने का आश्वासन दिया और वापिस अपनी उस कैंप साइट की तरफ लौट आया जहाँ मेरा बंधा हुआ रक्सेक मेरे अगले पड़ाव थातुँग्चे के सफर के लिए मेरा इंतजार कर रहा था।
लेखक हिमालय प्रेमी, कवि व यात्री हैं.