November 22, 2024



पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार – 1

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राकेश मोहन थपलियाल 


टीरी –बजार क्या था कि, सीधी सड़क, समतल. सुमन चौक से शुरू और बस अड्डे पे ख़तम. एक घंटे में चार चक्कर मार लो और थक गए तो थोड़ी देर हवा –घर में गंगाजी की ठंडी –ठंडी हवा खाओ

बतियाओ और फिर वापस लौट के सौदा –पत्ता खरीदो और कुछ देर या तो किसी दुकानदार का दिमाग खाओ या फिर उसकी दुकान में थोड़ी देर अपना अड्डा जमाओ और थोडा गपशप मारके फिर अपने घर जाओ ? टीरी –बजार की ये भी एक खासियत थी कि, वो अकेला ही पूरा बाजार था, कोई ब्रांच नहीं, बस मेन मार्केट . शाम को वहां कुछ परदेशियों समेत , छुट्टी में आये कुछ पुराने बाशिंदों सहित, दीदी – भुली ,चाचा –ताऊ , भैजी –भुला सब मिल जाते थे, किसी के घर जाने की भी जरुरत नहीं, बस आटोमेटिक मिलन ? यदि हमारे जैसे छोकरे हैं तो सुमन चौक में कहीं खड़े हैं किसी खोखे के आगे या पीपल के पेड़ के नीचे अर्थात पुराने बड़-डाले के भैरो देवता की बगल में खड़े हैं या फिर लईक की दुकान में बाल बनाने घुसे हैं या फिर सत्ये सिंह की कोने की दुकान में बैठकर चाय पी रहे हैं . और जो संभ्रांत नागरिक हैं तो वे महंतजी या श्यामू भाई के यहाँ पान चबाते हुए, नमो या नोटबंदी पर चर्चा में मशगूल हैं या फिर सलीम बूट हॉउस अथवा गैरोला डाक्टर साब की दुकान में बैठे मिल जाएंगे या आगे लाला जुगमंदर दासजी की दुकान की शोभा बढ़ाते हुए अन्यथा पैनुली बंधुओं की दुकान के आगे खड़े होकर कार्लमार्क्स, लेलिन, निक्सन, गाँधीजी से लेकर इंदिरा गाँधी तक, स्थानीय राजघराने और आम चुनाव तथा टिकट बंटवारे पर चर्चा करते हुए दिख जाते थे ? टेहरी में कभी त्रेपन सिंह नेगीजी आये हुए हैं तो कभी गोविन्द सिंग नेगी, विधायक जी उनके साथ बाजार में विद्यासागर नौटियालजी भी हैं, कामरेड प्रेम चौहान हैं और और भी दो –चार लोग हैं, दुआ –सलाम जारी है ? बाजार में कभी खुशहाल सिंग रांगड़ हैं तो कभी भूदेव लखेड़ा हैं और उनके साथ में स्थानीय लोग भी टहल रहे हैं. अचानक कोई नमस्कार करने के बाद अपनी समस्या का पिटारा खोल के बता रहा है ?  ये जो हमारे बाप ,चचा ,ताऊ लोग थे, ये कुंदनलाल सहगल की आवाज के फैन हैं, भारत भूषण की एक्टिंग के कायल थे. बलराज साहनी , राजकपूर ,शमशाद बेगम के साथ ही बड़े हुए थे ? जो लोग उस शहर में जो लोग नौकरी करने की मजबूरी में बाहर से आए हुए थे और किराएदार की हैसियत से रहते थे तो उनके भी अपने –अपने टाईम पास के लिए कोई न कोई ठिये रहते ही थे ? और जो लोग अपनी रिश्तेदारी में मिलने या किसी शादी –विवाह के बहाने टेहरी घूमने आये होते थे तो वो भी बाजार का एक आध चक्कर लगाने के बाद प्रदीप के आँचल होटल में या मुनीम के होटल में बैठकर चाय पीते थे, समोसे, टिक्की –छोले या रसमलाई खाते थे ? दोस्तों बाजार का संबंध केवल सामान खरीदने से ही नहीं होता है बल्कि शाम को बाजार जाने का मतलब एक –दो घंटे अच्छे से वक्त गुजारना भी होता है. अब ये कोई जरुरी नहीं कि, आप रोज -रोज ही सामान खरीदें पर अच्छी सेहत के लिए बाजार का एक- आध चक्कर लाजिमी है. बाजार जाने का मतलब अर्थात दोस्तों या परिचितों से मिलना, थोड़ा घूमना –फिरना और टहलना अथवा किसी –किसी के लिए चंद्रमुखी के दर्शन भी होता है ?
 
हमने टीरी बजार के कई रंग देखे थे 1965-70 तक तो इसका रंग थोड़ा फीका ही था. दिन में भी आधी दुकानें बंद रहती थी और गोदाम होती थी . शाम को और खासकर सर्दियों में 6 बजे के बाद, आधे लोग तो धनराजजी की दुकान, लिपटिसके पेड़ या अधिक से अधिक मार्तंड होटल तक ही जाकर वापस लौट जाते थे . उनके लिए, उनके शब्दों में, इसके आगे , बाजार घूमने लायक कुछ था ही नहीं या बाजार ही नहीं था बल्कि बस अड्डा ही था. हमने या हमसे 5 -7 साल बड़ी पीढ़ी ने विविध भारती या फिर बिनाका गीतमाला पर अमीन सयानी को सुनकर ही जिंदगी गुजारी थी. हम रेडिओ पर लता, मुकेश, मोहोम्मद रफ़ी और किशोर कुमार को दिन में भी सुनते और रात में भी सुनते थे. हम देवानंद , राजेंद्र कुमार, राजकपूर, धमेंद्र बनने का सपना देखते थे . रात को नींद में मीनाकुमारी, नूतन, आशापरेख, वैजंतीमाला, और मालासिंन्हा को अपने सपनों में देखते और फिर किसी लोकल सूरत –मूरत में उनकी छवि तलाशने की कोशिस करते थे. हमारी पीढ़ी ने हेमा, रेखा और जीनत अमान को बेइंतिहा प्यार चाह था ? और हमसे 8 -7 साल छोटी पीढ़ी जिसमे नरेंदर, कृष्णा, भीमू, सुधीर, बीरी –मल्ल, भुवनवीर, भवानी शंकर, बद्री सकलानी वगैरा आते हैं वो शायद शाहरुख खान, सलमान के हमउम्र हैं और कुछ –कुछ उनके जैसे दिखने की कोशिश भी करते होंगे ? जो उस समय तो छोटे थे पर बाद के सालों में और शहर डूबने से कुछ साल पहले, उन्होंने ने भी टेहरी बाजार में किसी दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा को अवश्य तलाश होगा, ऐसा मेरा विश्वास है ?
 
सन 75 -80 में तब अपनी एक शाम का नजारा कुछ कुछ ऐसा होता था, जैसे कि, मै शिवमंदिर के पास दिन्नू के पान के खोखे पर खड़ा होकर धुआं उड़ा रहा हूँ, कि तब तक सुशील भाई भी आ गए, घर भी उनका वहीँ पास में ही था. “ चल बे पनवाड़ी एक बीडी पिला ”, भाई ने हुकम दिया .अब भाई का हुकम है तो फिर हुकम है ? दिन्नू इस पर अधिक से अधिक थोडा भुनभुना ही सकता है. उसके लिए भाई का आदेश वैसे ही है ,जैसे किसी भाजपा वाले के लिए मोदीजी का आदेश ? भाई को बस दो दम ही मारने हैं तो फिर दिन्नू को मज़बूरी में नमो, नमो कहकर एक खाकी कैपेस्टन देनी ही पड़ेगी ? तब तक लो पुन्नू भाई भी आ गए, उन्होंने आते ही फ़रमाया कि, “ ला बे पनवाड़ी एक सिगरेट पिला ” ? पहले उन्होंने बड़े आराम से सिगरेट सुल्काई और फिर धुँआ छोड़ते हुए बड़े इतमिनान से कहा , “ पैसे बाद में लेना बे ” . बेचारे दिन्नु का मुंह छोटा हो गया, वो अपने आप में ही बडबडाने लगा, “ भाई बत्ती का टाईम है यार, माँ कसम. पुन्नू भाई ने कहा, अबे अभी बत्ती बाली तो नहीं है न ? साला – जा देखो रोता ही रहता है. वैसे पनवाड़ी को भी यह पता है कि, इनके यहाँ देर हो सकती है पर अंधेर नहीं है ?
 
इन लोगों की अधिकतर शामें फुटबाल खेलते ही गुजरती थी, भले ही उन्हें पेले या मैराड़ोना नहीं बनना था और न ही बर्मिंघम या यार्कशायर से खेलना था. तब तक दिन्नू के बड़े भ्राता छुन्नू मामू भी आ गए. वे चलते –चलते ही दुआ –सलाम करके बोले, मामू जरा एक मिनट मंदिर से होकर आता हूँ . मंदिर में समस्या ये थी कि, भगवान तो वहां चौबीसों घंटे मौजूद रहते थे पर उनके पुजारी बड़ी मुश्किल से मिलते थे और युवाशक्ति को जोश और जूनून पुजारी से ही मिलता था, उससे फरियाद करनी पड़ती थी, वरना तो घंटो खड़े रहो, मोहल्ले या जान पहचान की औरतों से मुंह छिपाते फिरो या फिर बुद्धी भाई के इंतजार में, नीचे बहती भिलंगना और सामने कंडल के खेतों को निहारते रहो ? फुटबालर तो चले गए और तब तक छुन्नी मामू भी लौट आये. आते ही उन्होंने मुझसे एक सिगरेट की फरमायश की. दिन्नु ने सिगरेट देते हुए कहा ,कि मामू आजकल ईधर गन्दी –मक्खी बहुत घूमती रहती हैं. टिहरीवालों के, डिक्सनरी से परे हटके कुछ अपने प्राइवेट शब्द भी रहते थे, मसलन —- औखई , पथेरी, टिक्की ठिंग और कुछ अन्य स्थानों में भी प्रचलित शब्द. जैसे कि, लुक्कर या ठुल्ला या जैसे “ एक ( रुपये ) का डॉलर ”. जिसे सुनकर ओबामा तो चकराए ही पर डोनाल्ड ट्रम्प भी चक्कर में पड़ जाएँगे?
 
यह धारावाहिक लेख जारी है
 
(लेख़क मुंबई में प्रवास करते हैं)