November 22, 2024



धरोहर देहरादून की

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विजय भट्ट


अधिकतर हम लोग देहरादून शहर के एक ही घंटाघर से परिचित हैं जो आजादी के बाद बना षठ्कोणीय आकार का है जिसकी छ घड़ियां हमें समय का भान कराती रहती हैं। सौन्दर्यीकरण के नाम पर हुए कुछ बदलावों के साथ इस घंटाघर की पुरानी ऐतिहासिक घड़ियां भी बदल दी गई हैं। क्या करें आज के निजाम का अपनी विरासतों को संजोकर रखने का यही शऊर है, पर जनाब अभी‌ यहां एक और भी है एक सौ अड़तालीस साल पुराना घण्टाघर अपनी ओरिजनल तकनीक व घड़ियों के साथ अपने शहर में। जी हां यह सच है और यह घंटाघर मौजूद हैं ईसी रोड़ स्थित सर्वे आफ इण्डियां के म्यूजियम गेट पर।

दरअसल हुआ यूं कि पिछले जून महिने की 29 तारीख को भारत ज्ञान विज्ञान समिति द्वारा आयोजित “वाॅक एंड टाॅक” प्रोग्राम के तहत सर्वे आफ इण्डियां के म्यूजियम भ्रमण का कार्यक्रम संपन्न हुआ था। 29 जून की सुबह बारीश होने के बावजूद साढ़े दस बजे तक 24 साथी म्यूजियम में पहुंच गये थे जहां “पांच का सिक्का” जैसी उम्दा कहानी संग्रह और गणित तथा विज्ञान जैसे जटिल विषय पर साधारण भाषा में आमजन के लिये लिखित “78 डिग्री” पुस्तक के लेखक साथी अरूण कुमार ‘असफल’ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। असल में अरूण कुमार ही इस कार्यक्रम के सुत्रधार रहे जो आजकल यहां पुस्तकालय व म्यूजियम के प्रभारी भी हैं।


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म्यूजिम में प्रवेश करने से पहिले ही प्रवेशद्वार पर तीन दिशाओं में स्थित घड़ियों वाले घंटाघर के घंटे की आवाज सुनाई दी। मालूम करने पर अरूण कुमार जी ने बताया कि यह यहां का घंटाघर है जो हर पन्द्रहमिनट में बजता हैं। इस घंटाघर की स्थापना सन् 1874 ईसवी में की गई थी और आज भी अपने उसी मूल तकनीक पर काम कर रही है। इसके रख रखाव की जिम्मेदारी भी यहां के स्टाफ की होती है। यह सुनकर घड़ी को देखने की उत्सुकता प्रबल होती गई। आखिर घड़ी की कार्यप्रणाली को देखने हम संकरी घुमावदार सीढ़ी से चढ़कर उपर पहुंच ही गये। उपर जाकर देखा तो यह उस जमाने की विज्ञान व तकनीक का बेहतर नमूना लगी जो गुरूत्वाकर्षण बल के सिद्धांत पर बनी थी और आज भी उसी तकनीक पर काम कर रही है। इस पर तीन दिशाओं में तीन घड़ियां लगी हैं कहा जाता है कि पहले इसके घंटे की आवाज को मसूरी में सुना जा सकता था। सर्वे आफ इण्डिया के इस कार्यालय की स्थापना सन् 1861 में की गई थी उस समय इसे दि ग्रेट टिगनोमेट्रीकल सर्वे आफ इण्डिया कहा जाता था।


संग्रहालय में प्रवेश करते ही जेम्स रनेल के निर्देशन में सन् 1788 ई0 में प्रकाशित तत्कालीन हिन्दुस्तान का मानचित्र दिखलाया गया था। 1600 मील की आधार रेखा और 78 डिग्री के महानतम चाप के साथ त्रिकोणीय सर्वेक्षण को दर्शाता चार्ट, इस आधार रेखा में विलियम लैम्बटन द्वारा प्रयोग में लाई गयी सौ फुटी चेन रखी गयी थी जो धरती को नापने के साथ विज्ञान व तकनीक के विकास की कहानी को बयां कर रही थी। समय समय पर विकसित उन्नत किस्म की थियोडोलाईट के साथ इस्तेमाल होने वाले तमाम किस्म के उपकरण वहां रखे गये थे। जगह जगह पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण को मापने वाले यंत्र, समुद्र में आने वाले ज्वार भाटा को मापने व उसको रेखांकित कर दर्शाने वाले उपकरण भी हमने देखे। भूगर्भीय गतिविधियों से लेकर जीपीएस तक को दर्शाने की तकनीक को वहां समझा गया। और भी बहुत कुछ। पंडित नैन सिंह ने अपने साथियों के साथ कैसे बौद्ध भिक्षु बन कर उस काल के रहस्यमयी भू भाग तिब्बत को कैसे माला के मनको, और अपने कदमों को गिनकर कैसे वहां का मान चित्र तैयार किया, यह जानना भी अपने आप में मजेदार रहा। इन सबकी जानकारी हमे दे रहे थे साथी अरूण कुमार असफल। वहां और भी बहुत कुछ देखा और समझा गया जिसका यहां वर्णन करना संभव नही है। मेरे ख्याल से जितनी बार वहां कोई जायेगा उतनी ही बार वह कुछ नया सीखकर आयेगा।

चलते चलते एक और विशेषता आपको बता दूं जिस पर देहरादून वासियों को गर्व करना चाहिये कि आजादी के बाद तैयार भारतीय संविधान की पहली प्रति भी सन् 1949 को देहरादून में सर्वे आफ इण्डिया ने प्रिंट की थी, जिसकी एक प्रति भी इस संग्रहालय में सुरक्षित रखी गयी है। तो दून का रिश्ता हमारे संविधान के छपने से भी है।