‘पथ्यला’ – गीत, कविता संग्रह
मथुरा दत्त मठपाल
पिछले पंद्रह – बीस वर्षों के अंतराल में गढ़वाली /कुमाउनी भाषाओँ के काव्य रचना कर्म में बड़ा त्वरण आया है|
इस बीच बड़ी संख्या में दोनों ही भाषाओँ में काव्य संग्रहों का प्रकाशन हुआ है| उमेश चमोला द्वारा ‘पथ्यला’ नाम से रचित चवालीस गीत / कविताओं का संग्रह इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है| संग्रह को गीत और कविता इन दो भागों में विभाजित किया गया है| दोनों ही प्रकार की ये रचनाएँ सशक्त और प्रभावशाली हैं जो पाठक को भीतर तक झकझोरने में सफल हैं| इस संग्रह का कवि एक गीतकार के रूप में अधिक सफल लगता है| गीत / कविताओं का फलक काफी विस्तृत है| प्रकृति एवं प्रेम, संयोग एवं वियोग, समकालीन राजनीति, समाज विपन्नता, जन्मभूमि के प्रति अपार भक्ति आदि अभी कुछ तो इन कविताओं में विद्यमान है| अपने रचनाकर्म में रचनाकार पूर्वाग्रहों से मुक्त है और साथ ही अध्यापन के अपने व्यवसाय की सहज परिणिति उपदेश देने के अपने अधिकार एवं वर्ण्य विषय को अनावश्यक रूप से विस्तृत कर देने के स्वभाव से भी मुक्त है| इसलिए प्राय: सभी रचनाओं का आकार काफी लघु है परन्तु इससे भाव सम्प्रेषण में कोई बाधा नहीं आई है|
संकलन के प्रारम्भ की अधिकांश रचनाएँ प्रेमपरक हैं| ‘त्वेतैं बुलोणा’, ’सुपीन्यों मा’, ‘ऐ जा मेरा गौं मा’, ’कैकी यन याद आई’, बुरांस का डाल्यों’, आदि एक दर्जन से अधिक रचनाएँ इसी कोटि की हैं परन्तु प्रत्येक गीत, भाव, विषय, शिल्प आदि की दृष्टि से पृथक –पृथक हैं| कवि को लोक्छंदों का अच्छा ज्ञान है और उसने रचना के मिजाज को ध्यान में रखकर सटीक छंदों का प्रयोग किया है| प्रेमपरक रचनाएँ होते हुए भी इनमें अश्लीलता कहीं भी नहीं दिखाई देती है|
कवि को अपने मुलूक से बहुत प्रेम है| हिमाच्छादित उच्च पर्वत, नदी –नाले, वन, पशु-पक्षी, यहाँ के निवासी, गाँव, गोचर, फल –फूल, भोज्य पदार्थ सभी से कवि का गहरा लगाव है| उसे अपनी जन्मभूमि के कठिन भूगोल, प्राकृतिक विपदाओं, आर्थिक विपन्नताओं से भी कोई शिकायत नहीं है| अनेक गीतों में कवि ने यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का मोहक वर्णन किया है| प्रारंभ में शारदा और जन्मभूमि की वंदना में भी कवि अपनी जन्मभूमि के प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर इंगित करना नहीं भूला है| इस प्रकार की आपदाओं – विपदाओं के बीच रहकर भी कवि कहता है – ‘ये रोंतेला मुलूक ना छोडि जावा’|
संग्रह का एक गीत ‘पथ्यला बोण का’ भाव और शिल्प दोनों ही स्तरों पर इस संग्रह की एक उच्चकोटि की उपलब्धि है जो पाठकों के हिया को बरबस ही झकझोर देती है| एक आम पहाडी जन की नियति सटीक चित्रण है यह गीत –
‘ठौर नी, ठिंगणू नी,
बथों चो जख लिजौ,
केका खूटीन कूर्ची जौ,
बटवे रोडू गाली खों,
अपडी छ्वीं लगोण क्या,
हम पथ्यला बौण का|
आधुनिक काल की राजनीति पर कवि ने सटीक कटाक्ष किए हैं| ‘गौ कु नेता’, ’ पहाड़’, ‘भ्वीन्चलु’, ‘देखि धों’ जैसी कविताओं में कवि एक योग्य व्यंग्यकार के रूप में आया है| पृथक उत्तराखण्ड राज्य बन जाने से कवि के ह्रदय में कुछ नई आशाएं बंधती हैं| कुछ कविताओं में यह भाव स्पष्ट है| कवि का दृष्टिकोण आशावादी है –
‘हैका मोल्यार फ्येर औला,
रीति डाल्यों तैं सजोला,
आज छन हम उदास,
भोल खुश्या गीत गौला|’