नौकरी वाले
जगमोहन सिंह जयाड़ा ‘जिग्यांसू’
1970 के लगभग की बात है, हमारे गांव के चाचा बोडा जी बग्वाळ पर दिल्ली चंडीगढ़ से गांव आते थे.
बदरीनाथ मार्ग पर कंडोळ्या या बग्वान में बस से उतर कर पैदल 15 किलोमीटर का सफर तय करके जब वे मेरे गांव के पास दमैं घेरा पहुंचते तो उनके हाथों में टिमटिमाती टार्च की रोशनी से अहसास होता था, आज नौकर्याळ (नौकरी वाले) गांव आ रहे हैं. दीपावली त्यौहार की रौनक उनके आने से बढ़ जाती थी़. गांव के सभी लोग उनसे मिलते थे और खुंटेलि में बैठकर उनसे शहर के बारे में चर्चा करते थे. रेडियो पर समाचार सुनने उनके पास जरूर जाते थे. नौकर्याळ सभी को चना इलाईची बांटते थे. गांव में तब खूब चहल पहल होती थी. जब वे धारे पर नहाने जाते तो उनके नयें रंगीन तौलिया, बीड़ी – सिगरेट, खुशबूदार साबुन देखकर अनोखा अहसास होता था. एक दिन सभी इकठ्ठे होकर बकरा मारते, कुछ पीने पिलाने का इंतजाम भी होता. बग्वाळ के दिन मंडाण लगाते, सभी लोग भैला खेलते थे. दाळ की पकोड़ि स्वाळि घर घर बनती थी. गांव के लोग नौकर्याळों को अपने घर बुलाकर उन्हें तस्मै(खीर) खैंडवड़ी, घी दूध खिलाते पिलाते थे.
छुट्टि खत्म होने पर नौकर्याळ जब परस्थान करते तो गांव के लोग बहुत दूर तक उन्हें विदा करने जाते थे. उनके चले जाने के बाद गांव में ऊदासी सी छा जाती थी. आज सभी चाचा बोडा स्वर्गवासी हो चुके हैं. मैंने भी 12/3/1982 को दर्द भरी दिल्ली रोजगार के लिए प्रस्थान किया. 17/9/1984 को मैं पर्यावरण मंत्रालय में नौकरी पर लगकर नौकर्याळ बन गया. गांव की बहुत याद आती थी. जिस दिन गांव जाता, मन में अति ऊमंग का अहसास होता था. माता पिता परिवार से मिलने की अनोखी ऊमंग होती थी. सुबह ऋषिकेश पहुंचने पर पहाड़ के दर्शन करके सुखद अहसास होता था. जामणीखाळ पहुंचने के बाद दो घंटे का पैदल सफर तय करके गांव पहुंचता था. अपने चौक से अपने पूरे मुल्क को निहारकर पाड़ की खुद मिट जाती थी. आज माता पिता जी स्वर्गवासी हो गए, पाड़ से बहुत प्यार करता हूं, पर आज वो बात नहीं रह गई. अब अक्सर ही गांव जाना होता है. जब जाता हूं, मेरे घर के दरवाजे खुले देख गांव के लोग मेरे घर पर आते हैं और खुशी व्यक्त करते है. मन को अति खुशी होती है गावं के लोगों के बीच बैठकर. पलायन के कारण अब गांव में वो रौनक नहीं है. आज मेरे गांव तक काली सड़क पहुंच गई है. नौकर्याळ के प्रति वो भाव आज नहीं रह गया है.