बिड़ला कैंपस की याद
हेम गैरोला
घनश्याम दास बिड़ला, ये नाम पिछले 40 वर्षों से मेरी मन – चेतना में एक ख़ास स्थान रखता है।
शुरुवात हुई 1977 से जब स्कूली शिक्षा की सीढ़ियाँ गिरते – पड़ते बेफिक्री के साथ चढ़ लेने के बाद हरिद्वार से डिग्री कॉलेज में पढ़ने के लिए श्रीनगर गढ़वाल पहुंचा। महाविद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया के पहले दिन ही मुख्य गेट के ऊपर बोर्ड पर लिखा नाम “घनश्याम दास बिड़ला स्नातकोत्तर महाविद्यालय” कुछ छणो के लिए ठिठका सा गया…उच्च शिक्षा संस्थान से यह पहला परिचय था। पता नही क्या हुआ की स्वतः ही स्कूली जीवन की पाली कुछ पेंट – हाफपेंट आदतें इस गेट के बाहर अपने आप ही उतर गयीं। विधुत गति से ये हुआ। फिर गेट के नीचे से महाविद्यालय परिसर में पहला कदम रखा, नई-नई उग रही मूछों को उँगलियों से छूकर उनकी मौजूदगी सुनिश्चित करते हुए। महाविद्यालय में प्रवेश फार्म के पश्चात मिले पहले परिचय पत्र से लेकर 1982 में मिले अंतिम शैछणिक प्रमाण पत्रों सहित ‘बिड़ला कॉलेज’ में अध्ययन के दौरान प्राप्त सभी अच्छे – बुरे प्रमाण पत्रों में “घनश्याम दास बिड़ला” नाम एक ‘सत्य’ की तरह आज भी मौंजूद है।
‘बिड़ला कॉलेज’ के उन 6 सालों ने सही मायने में उच्च शिक्षा दी और शिक्षित बनाया। यद्यपि मेरा 6 वर्षों का अध्ययन काल तो बेफ़िक्रों के गुट में ही व्यतीत हुआ लेकिन बिड़ला कॉलेज में सही प्रतिभाओं को पल्लवित होते हुए हमेशा ही देखा। आज इतने वर्षों बाद देखता हूँ तो वे प्रतिभाएं सर्वश्रेष्ठता के हर छेत्र में विराजमान मिलती हैं। और नजर दौड़ाता हूँ तो हमसे पहले और बाद में भी बिड़ला कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त प्रतिभाएं निकलीं और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की। कई तो गूदड़ी के लाल थे। उच्च शिक्षा की डिग्रीधारी होने के बाद भी लड़खड़ा कर जीवन जी रहे मेरे जैसे लोग बिड़ला कॉलेज से निकली इन प्रतिभाओं के कारण आज भी अपनी गर्दन में अकड़ रखते हैं।
बार – बार मन में सवाल उठता है कि यदि वह “महामनीषी” अंदरुनी गढ़वाल के भीतर इस सबसे पहले महाविद्यालय की स्थापना नही करता तो क्या होता? उस काल में कितने छात्र इस हैसियत के थे कि देहरादून, मेरठ, लखनऊ या इलाहाबाद जाकर उच्च शिक्षा ले पाते? स्वाभाविक जवाब है कि यदि बिड़ला कॉलेज की स्थापना नही हुई होती तो बड़ी संख्या में गढ़वाल के दूर दराज गावों में उत्पन्न प्रतिभाएं पलटन या होटलों व प्राइवेट लिमिटिड कम्पनियों में अपने भीतर की योग्यताओं को मरते हुए देख रही होती। सही मायने में गढ़वाल में उच्च शिक्षा की ज्योति जगाने में मनीषी घनश्याम दास बिड़ला का सर्वोच्च स्थान है। गढ़वाल विश्वविद्यालय की श्रीनगर में स्थापना के पीछे सबसे बड़ा कारण भी यही था कि वहाँ पर घनश्याम दास बिड़ला पहले ही एक उच्च शिक्षा संस्थान की नींव रख चुके थे। इस पोस्ट को लिखने का कारण यही है कि क्या हम इस मनीषी के योगदान को सर्वोत्तम सम्मान दे पाये हैं ? चाहे वह विश्वविद्यालय के नामकरण के रूप में हो या विश्वविद्यालय में किसी पीठ की स्थापना या फिर और किसी अन्य रूप में ? छेत्रियता के संकीर्ण चश्मे से देखने वाले गढ़वाल के बौद्धिक – राजनेतिक पुरोधाओं के पास इस स्वार्थपरकता का जवाब है भी की नही.
लेख़क समाजसेवी हैं