November 23, 2024



 पीड़ा है ‘ललिता’ उपन्यास

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चंद्रशेखर तिवारी
 
पहाड़ के परिवेश पर केंद्रित ‘ललिता’ मानवीय संवेदनाओं से भरपूर एक  पठनीय उपन्यास है।

जिसमें रचनाकार ने ललिता को उपन्यास का केंद्र बिंदु बनाकर एक आम पहाड़ी स्त्री मन की व्यथा कथा और समाज परिवार में उसकी स्थिति को बेहद सुरुचिपूर्ण तरीके से उकेरने की कोशिस की है। उपन्यास के कथानक पर गौर करें तो इसकी नायिका ललिता एक निपट सीधी सादी औरत है। अपने सरल और निश्छल स्वभाव के चलते वह अपने परिवार व समाज में लाटी नाम से चर्चित रहती है। गढ़वाल के चन्दोलाराई गाँव में जन्मी ललिता को जहां बचपन में उसके जन्म के बाद पैदा हुए अन्य भाई-बहनों के असमय मौत का जिम्मेवार समझते हुए एक अपशकुनी लड़की के तौर पर देखा जाता रहा वहीं जब उसके पिताजी उसे और उसकी माँ को अपने साथ मुंबई ले गए वहां तमाम घरेलू काम करने के बाद भी वह जब-तब मां की खीज और प्रताड़ना का शिकार बनती रहती थी। कुछ सालों बाद जब पिता द्वारा इन्हें फिर से पहाड़ पहुंचा दिया गया तब ललिता वहां की प्रकृति की सुंदरता और ग्रामीण जीवन में पूरी तरह रम गई। गायों को चराना, उनका दूध दुहने से लेकर गधेरे से पानी लाने और रोटी बनाने तक का सारे काम का जिम्मा उस पर आ चुका था। यहाँ भी ललिता की दुश्वारियां कम नहीं हुई। काम करने के बाद भी छोटी -छोटी बात पर मां से डाँठ और मार खाना उसके लिए एक सदाबहार नियति सी बन गयी थी। 
 
सयानी होने पर  माता- पिता ने उसकी शादी पौड़ी के बैंगवाडी गांव के गजेन्द्र से कर दी। परदेश में ठीक-ठाक नौकरी कमाने वाले गजेंद्र का परिवार गांव में भरे-पूरे परिवार की हैसियत रखता था। ललिता के ससुराल में रौबदार छवि के ससुर, ममतामयी सास, चुलबुले देवर देवेंद्र तथा एक शांत और दूसरी पल-पल में स्वभाव बदलने वाली दो नंदें साथ ही ललिता से डाह रखने वाली छोटी व बड़ी दो जेठानियां व उनके बच्चे भरेपूरे परिवार के साथ इकठ्ठा रहते थे। भाग्य की विडंबना ऐसी रही कि सीधी-सादी ललिता यहां भी बार-बार अपनी जेठानियों के कुचक्र का शिकार बनती रही। जेठानियाँ ललिता को परिवार के समक्ष अक्सर नीचा दिखाने की कोशिस लगी रहती पर भलमनसाहत की वजह से वह हमेशा चुप ही रहती। एक-दो बार तो उन्होंने ललिता को निपट रात के अंधियारे में लकड़ी बीनने के बहाने जंगल में अकेला तक छोड़ दिया था। किसी तरह ठंड की कंपकपी और डरते-डरते जब घर पहुंची तो बुखार के कारण कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही। एक बार तो वह बरसात के दौरान गायों के लिए चारा लाते समय गधेरे के भंवर में डूबते-डूबते बची। बावजूद इन स्थितियों में उसने अपने आप को हमेशा संयत रखा और कभी भी किसी विषय पर कोई भी प्रतिवाद करने की हिम्मत नहीं की। यहां तक अक्सर उसकी शरारती नंद सौम्या ललिता के सामने रात को चोरी-छिपे रसोई में खीर बनाकर उसे चट कर जाने, घर के बगीचे से माल्टा चोरी करने और चैत की नवरातों की रात्रिकालीन रामलीला में अपने साथ चलने जैसे कई जोखिमपूर्ण प्रस्तावों को रखकर जिद पर अड़ जाती। ललिता यह जानकर भी कि चोरी छिपे ऐसे काम ठीक नहीं है फिर भी नंद का मन रखने के लिए वह साथ दे ही देती।
 
ललिता जब अपने पति के साथ गुजरात गई तो डेढ़ दो साल बाद पुत्र को जन्म देने के बाद से ही बहुत बीमार रहने लगी। किसी तरह दवा दारू कर गजेंद्र ने उसे पहले की तरह चलने फिरने लायक बना दिया। बाद में गाँव में ललिता के दो और पुत्र पैदा हुए। यहां भोली ललिता के साथ पुनः पहले की तरह बर्ताव होने लगा। पुत्र जन्म के बाद शुद्धिकरण के नाम पर उसे ठंड भरी सुबह में गदेरे में नहाने और कपड़े धोने भेज दिया गया जिससे उसे निमोनिया हो गया और बमुश्किल जान बची। यही नहीं उसके पीठ पीछे बच्चों को दूध की जगह मडुवे का घोल पिला दिया जाता। कुछ  महीनों बाद उसके पति तीनों बच्चों सहित ललिता को फिर से गुजरात ले आये। समय ने करवट बदली और दो एक दशकों के दौरान तीनों बेटे अच्छी खासी नौकरियों  में लग गए। बड़े बेटा जो नीदरलैंड में रहता था उसने वहीं की लड़की से शादी कर ली थी। दो अन्य बेटों की शादी भी कुछ अंतराल पर हो गई। अब तो  ललिता के पति गजेंद्र नौकरी से रिटायर्ड हो गए हैं और ललिता घर में अपने पोतो की देखभाल करती है।
 
अंत मे जिंदगी के तमाम झंझावतों से उबर चुकने के बाद ललिता अब बस यही सोचा करती है कि जीवन के इन पलों में अपने लोगों को खुश ऱखने में वह कहां तक सफल रही और इस दौरान उसने क्या खोया और क्या पाया। ‘क्या खोया क्या पाया’ यही इस उपन्यास में सबसे महत्वपूर्ण और अहम सवाल बनकर उभरा है। सही मायने में ललिता का यह यक्ष प्रश्न आज भी पहाड़ के स्त्री मन और उनकी स्थितियों के साथ खड़ा दिखाई देता है। आज के दौर में पहाड़ों से पलायन की बढ़ती रफ़्तार, लोगों का स्थानीय खेती-बाड़ी से विमुख होकर शहर-कस्बों में बसने की ललक ने पहाड़ के अस्तित्व और उसके भविष्य पर कई सवाल खड़े किए हैं। सम्भवतः पहाड़ की इन्हीं स्थितियों ने ही रानी कुकसाल को ‘ललिता’ उपन्यास रचने को विवश किया है। निःसंदेह एक सकारात्मक सोच के साथ यह उपन्यास जहां नायिका ललिता की तमाम मूक संवेदनाओं को उजागर करने में सक्षम हुआ है वहीं यह अपनी भाषा-बोली, रीति-रिवाज और संस्कृति के प्रति लोगों को पहाड़ की जड़ों से जुड़ने की ओर प्रेरित करता है।  खास बात यह है कि लेखिका रानी कुकसाल का सम्पूर्ण जीवन मैदानी भाग में बीतने के बाद भी उन्होंने पहाड़ के परिवेश पर इस तरह के एक बेहतरीन उपन्यास की  रचना की जिसके लिए वे सच में बधाई की पात्र हैं। इस उपन्यास को देहरादून के समय साक्ष्य ने प्रकाशित किया है।