बिटिया लौटी पहाड़
अविकल थपलियाल
नाम – आरुषि नौटियाल, उम्र – 10 साल, क्लास – 4th, स्कूल – सरस्वती शिशु मंदिर, घंडियाल, पौड़ी गढ़वाल।
चार पांच दिन पूर्व पितृ पूजा पर अपने गांव नैथाणा जाने का मौका मिला। स्वर्गीय नवल किशोर नैथानी जी के मासिक श्राद्ध पर गांव वासियो को दिए गए भोज में एक नई कहानी से रूबरू हुए। इस पितृ भोज में गांव की कुछ कन्याएं खास तौर पर बुलाई गई थी। और पितृ भोज का आयोजन 1885 में निर्मित गांव के ही प्राथमिक स्कूल के प्रांगण में किया गया था। ये अलग बात है कि एक समय इस इलाके के प्रमुख शिक्षा केन्द्र रहा नैथाणा प्राथमिक स्कूल में अब 10 से भी कम बच्चे रह गए हैं। और गांव के भी अधिकतर बच्चे 3 km दूर घडियाल के शिशु मंदिर में पढ़ते हैं। इन बच्चों ने ही बताया कि शिशु मंदिर में करीब 300 से अधिक बच्चे 12 वी तक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, सुखद था यह सुनना। ये तो तस्वीर का एक पहलु हुआ। दरअसल, सिक्के के दूसरे पहलु में गुदे आरुषि नौटियाल का नाम कुछ अलग कहानी बयां करता है। और ये सोचने को विवश भी करता है कि क्या आरुषि ने उत्तराखण्ड में पलायन के एक अहम कारकों में एक बेहतर शिक्षा को क्या अंगूठा नही दिखाया है। इसी गांव के मेरे परिचितों ने बेहतर शिक्षा के लिए कोटद्वार, पौड़ी समेत अन्य सुविधाजनक स्थानों में मय परिवार पनाह ले रखी है। ऐसे में आरुषि ने दिल्ली के बजाय अपने ननिहाल नैथाणा गांव की डगर पकड़ी। ननिहाल में पढ़ना कोई बड़ी खबर नही है, लेकिन दिल्ली की तमाम सुविधा व मनोरंजक साधनों को छोड़, माँ-पिता से अलग आरुषि का 300 km दूर पौड़ी गढ़वाल की मनियारसूं पट्टी के नैथाणा गांव में ही रहने की जिद सतरंगी तस्वीर तो पेश करती है। आरुषि के माता-पिता दिल्ली में रहते है। और आरुषि ने गांव से जुड़ी असुविधाओं के बीच नाना – नानी के साथ पढ़ने का फैसला किया। गांव में सहेलियां भी बहुत कम है। मनोरंजन के वो शहरी साधन भी नही। गुड्डे – गुड़िया के खेल के लिए भी पर्याप्त सहेलियां भी नही। गांव में हरदम हरपल उड़ती गोबर की अजीब महक। फिर भी आरुषि को दिल्ली से 300 किमी दूर गांव का ही वातावरण ही भाया। इस उम्र में हर बच्चा अपने माता – पिता के करीब ही रहना चाहता है। एक भावनात्मक स्पर्श की भी सख्त जरूरत होती है लेकिन आरुषि गांव की हर मौसम में डराने वाली रात गुजारने के बाद हर सुबह किताबों का बस्ता बांध अपने स्कूल की राह नापती है। बातचीत में यह भी पता चला कि दिल्ली में पढ़ रही आरुषि की एक बड़ी बहन भी गांव में पढ़ने को उत्सुक है। उसकी दोनों बहनें दिल्ली में ही है। ऐसा नही कि माता पिता अपनी बेटी पर दिल्ली जाने का दबाव नही बनाते होंगे लेकिन वो कहती है गांव में पढ़ना अच्छा लगता है। हालांकि, आरुषि को अभी पलायन का मतलब नही पता लेकिन चुप-चुप रहने और बाल सुलभ मुस्कान सहेजे शांत स्वभाव की आरुषि का दिल्ली से अपने ननिहाल में ही शिक्षा ग्रहण करने की जिद ने गांव के खेत – खलिहान, और जंगलों में एक नये नगमे की इबारत तो लिख ही दी। बच्चा आरुषि तुझे सलाम।
लेख़क वरिष्ठ पत्रकार हैं
लेख पर टिप्पणियां
भार्गव चंदोला – कमाल है आरुषि की गांव में पढ़ने की जिद्द बहुतों को प्रेरणा तो देगी ही साथ ही आरुषि को दिमागी व शरीरिक रूप से भी मजबूती देगी वर्ना मैदान में पढ़ने वाले बच्चे तो थोड़ा सा चलने में हांफने लगते हैं. दूर दूर मकान, बाग भालू, कीड़े मकोड़े का डर, लाइट का पता नहीं गई तो दो दो दिन बाद आती है.
सुधाकर थपलियाल – हमारे पूर्वजों की भूमि नैथाना की पावन भूमि की माटी को नमन। हमारे पूर्वज मा. बासवानन्द जी को यमकेश्वर, उदयपुर पट्टी ग्राम पोखरी के थोकदार ठाकुर मंगल सिह, ठा. भीम सिह गुरू बनाकर लाए थे। 1वर्ष बाद काँण्डी, कस्याली, नाली वाले दूसरे भाई पं. जीवाजी को गुरू बनाकर लाए थे। उनको ढाँगल गाँव दक्षिणा में मिला था। उन्होने पूरा ढाँगल गाँव अपनी लडकी (तब जोशी परिवार) को दहेज में दे दिया था। जिसको बाद में कुकरेती लोगों ने खरीद दिया। आज भी हम इस भू भाग में कुल गुरू की परम्परा को निभा रहे है। पुनः पूर्वजों की इस थाती का बन्दन। उत्तराखण्ड बनने के बाद जब यहाँ के निवासी मूलभूत सुविधा (शिक्षा, सडक, चिकित्सा, जल,) से बंचित हो गये तो अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य, भौतिकता की चकाचौंध में हम आगे बढने की कोशिश में हमने पूर्वजो की धरोहर को छोड दिया है। बेटी आरूषि को ननिहाल से भरपूर दुआ मिले। भविष्य मे पलायन के लिए यही बेटी मार्गदर्शी एवम् मिल का पत्थर साबित होगी। अनेको बधाइयाँ। शुभम् अस्तु।
राय संजय – आरुषि नाम की बच्चियों का नाना नानी, दादा दादी की ओर रुझान अधिक होता है मैन स्वयं देखा है अब सिद्ध भी हो गया इस बालिका से इसको आशीर्वाद और शुभकामना, मेरी बिटिया का नाम भी आरुषि है और उसका स्वभाव भी ऐसा ही है।
अजय कुकरेती – नमस्कार, दिल्ली की सुविधाओं को छोड़ना व तमाम प्रकार की असुविधा के बीच ननिहाल मैं शिक्षा की हठ, आरुषि को आशीर्वाद, जीवन मे आगे बढती रहना, आरुषि एक नजीर है, एक उम्मीद है।
अजय रावत – निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस इलाके के कम से कम 120 परिवारों के पलायन पर इस स्कूल ने ब्रेक भी लगाया है, और आरुषि जैसे अन्य नौनिहाल भी इस स्कूल में अध्ययनरत हैं, जो अपने माता पिता से दूर हैं। यहां तक कि कुछ मुस्लिम बच्चे भी यहां तालीम हासिल कर रहे हैं।
संपादक – आरुषी को पलायन का ब्राण्ड अम्बेसेडर बनाया जाना चाहिये