November 22, 2024



गोली खानी है तो फौलादी सीने पर खाओ

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स्टाफ


सेवानिवृत्त आनरेरी कैप्टन सुजान सिंह नेगी के अंदर देशभक्ति का जुनून कूट-कूटकर भरा था। मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों की परवाह न कर कई बार दुश्मनों से दो-दो हाथ किये। आज भले ही यह वीर सपूत हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी जिंदादिली हमेशा सभी के लिए प्रेरणादायक रहेगी। 1971 में भारत- पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में दुश्मनों के छक्के छुड़ाने वाले इस सैनिक को तत्कालीन राष्ट्रपति बीबी गिरि ने वीर चक्र से सम्मानित किया था। सुजान सिंह नेगी का जन्म अगस्त्यमुनि विकास खंड के चोपडा क्षेत्र के बजूण गांव के एक साधारण किसान काशी सिंह नेगी के घर में हुआ था।

परिस्थितियों की मार के चलते वे आठवीं कक्षा से आगे की शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए। वर्ष 1942 में उनके बड़े भाई सोबन सिंह नेगी स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गए। देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा उन्हें अपने बड़े भाई से मिली। उन्होंने नौ जनवरी 1950 को पांचवीं गढ़वाल राइफल में बतौर सैनिक प्रवेश किया। उन्होंने 1962 में चीन, 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ लड़ाई लड़कर अपनी वीरता और जज्बे का परिचय दिया। 1971 में पाकिस्तान वार के दौरान नेगी ने अन्य सैनिकों के साथ मिलकर दुश्मनों को मुंह तोड़ जवाब दिया और चौकी पर कब्जा किया। इस जंग में नेगी को चार गोलियां लगी थीं। युद्ध में अदम्य साहस दिखाने वाले इस सपूत को 30 अक्टूबर 1974 को तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि ने वीर चक्र से विभूषित किया।


पांचवीं गढ़वाल राइफल का नाम रोशन करने वाले नेगी को 15 अगस्त 1977 को तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने आनरेरी कैप्टन के पद से नवाजा। राइफल के 25वें स्थापना दिवस पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया। एक फरवरी 1978 को वे सेना से रिटार्यड हो गए। उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र नरेन्द्र सिंह नेगी को 1975 में गढ़वाल राइफल में भर्ती कराया। अब उनका पौत्र सत्येन्द्र सिंह नेगी सेना के 14वीं गढ़वाल राइफल में सेवारत है। सेवानिवृत्ति के बाद नेगी अपने गांव बजूण में समाज सेवा में जुट गए। उन्होंने स्वयं के संसाधनों और ग्रामीणों के सहयोग से जूनियर हाईस्कूल खड़पतियाखाल और राइंका चोपता के मुख्य द्वार, सरस्वती विद्या मंदिर चोपता में एक कक्ष, बजूण में दो मंदिरों और धर्मशाला का निर्माण कराया। साथ ही संस्कृत विद्यालय कांडई के पुस्तकालय के लिए पर्याप्त पुस्तकें उपलब्ध कराई। उन्होंने वर्ष 1980 से 1989 तक वन पंचायत सरपंच के रूप में भी काम किया। उनका कहना था-जीना है तो इज्जत से जिओ, मरना हो तो इज्जत से मरो। यदि गोली खानी है तो अपने फौलादी सीने पर खाओ।


साभार – रुद्रप्रयाग कोटेश्वर दर्शन पेज