बचपन-बारात और बाराती – 01
डाॅ. अरुण कुकशाल
आज जब तन की घुमक्कड़ी लाकडाउन है, तब मन की घुमक्कड़ी के द्वार अपने-आप ही खुल रहे हैं। और मन तो हमेशा बचपन की चौखट पर जाकर ही आनंदित रहता है। बात होगी, सन् 1963 के आस-पास की। मेरी दुनिया अपने गांव चामी तक ही सिमटी थी। मोटर गाड़ी तो क्या सड़क भी नहीं देखी थी। तब घुमक्कड़ी का एक ही मौका होता कि गांव की बारात में दूसरे गांव जाना। बारात में पैदल जाना होता था, इसलिए बच्चों को ले जाने पर बड़ों की सख्त पांबदी होती। उसकी तोड़ हम बच्चों ने यह निकाली कि बारात के घर से निकलने से बहुत पहले ही उसी रास्ते में बहुत दूर पहुंच जाते। बारात जब उस जगह पहुंचती तो हम बच्चों की पिटाई तो होती पर बाराती बन कर दूसरे गांव घुमक्कड़ी का जो आनंद मिलता उसके सामने वो पिटाई हमारा तुच्छ त्याग ही था।
ऐसी ही घुमक्कड़ी में आपको लिए चलता हूं, बचपन में हम बच्चों की एक तमन्ना बलवान रहती थी कि गांव की बारात में हम भी किसी तरह बाराती बनकर घुस जायं। हमें मालूम रहता था कि बडे हमको बारात में ले नहीं जायेगें। पर बच्चे भी ‘उस्तादों के उस्ताद’ बनने की कोशिश करते थे। गांव से बारात चलने को हुई नहीं कि आगे जाने वाले 2 मील के रास्ते तक पहुंच कर गांव की बारात का आने का इंतजार कर रहे होते थे।नैल गांव जाने वाली बारात की याद है। हम बच्चे अपने गांव की पल्ली धार में किसी ऊंचे पत्थर पर बैठ कर सामने आती बारात में बाराती बनने को उत्सुक हो रहे थे। बारात जैसे-जैसे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था। हमें मालूम था पिटाई तो होगी परन्तु मार खाकर बाराती बनना हमें मंजूर था। वैसे भी रोज की पिटाई के हम अभ्यस्थ थे। शाम होने को थी। बड़े लोग वापस हमको घर भेज भी नहीं सकते थे। क्या करते ? नतीजन, बुजुर्गों की सिफारिश पर हमें भी बारात में शामिल कर लिया गया।बाराती का तगमा लगते ही हम ‘फन्नेखां’ हो गये।
कभी बारात से आगे तो कभी उसके दायें-बायें। हम अनचाहे बारातियों पर बडों का कान उमेठने अर धौल जमाने जैसा जुल्म सारे रास्ते भर चलता रहा। पहले नगर गांव की चढाई, फिर मिरचोड़ा गांव तक का लम्बा रास्ता तय करने में हम पस्त हो गये। बडे ताने कसते ‘और आंदी बरात मा’ (और आते हो बारात में)। नगें पैरों पर छाले ही छाले। बारात का उत्साह हममें अब कहीं दुबक गया था। फुरकी (पतले कपडे) पहनकर आये थे। शाम होने को आई तो अक्टूबर की ठंडी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। रुमक (शाम का झुरपुट अंधेरा) पड़ गयी अर नैल गांव पहुंचने की कोई बात तक नहीं हो रही थी।शाम होते ही नैल गांव के पास की धार में बारात पसर सी गयी। इधर-उधर से ढोल-दमौ की आवाजों का आदान-प्रदान हो रहा था। तीन-चार जगहों पर आग के चारों ओर बैठ कर पौणें थकान उतार रहे थे।‘अ भणजा म्यार दगड बैठ’ (आ भानजे, मेरे साथ बैठ) मशकबीन (पाइप जैसा वाद्य यंत्र) बजाने वाले बुजुर्ग ने कहा। ‘हां ममा’ (हां, मामा) कह कर मैं उनकी चदरी में दुबक गया।
‘अभि लोडि वलूं पर देर च’ (अभी लड़की वालों की तैयारी में देर है।) किसी ने कहा।बाजे दोनों तरफ बज रहे थे। एक तरफ चुप होते तो दूसरी तरफ शुरू हो जाते। ‘अरे यी त नखंरि गालि दीणां छन।’ (अरे ये तो गंदी गाली दे रहे हैं, हमको) ढोल बजाने वाले एक मामा ने ‘पिड बैंणा मैंश’ कहा और तेजी से ढोल बजाने लगे। साथ में दमों वाले मामा भी नये जोश से उनका साथ दे रहे थे।मशकबीन वाले मामा चुप-चाप मुस्करा रहे थे। उन्होने मुझे बताया ‘‘भणजा द्वी बज्जों म बथ्यों कि लडै हूंणी च। ’’(भानजे दोनों ओर के बाजों में बातों की दोस्ताना लड़ाई हो रही है।) ‘‘अयं! कन क्वै ममा जी। (अरे! कैसे, मामा जी)’’ मुझे जिज्ञासा हुई।वो बोले ‘‘बाजे भी आपस में बोलते हैं। जब हम इस धार में पहुंचे ही थे कि लडकी वालों के बाजों ने बताया अभी तैयारी पूरी होने में समय लगेगा। बारात तुम लोग जल्दी ला गये हो। फिर हमने बताया कि ठीक है, हम यहां बैठ कर इंतजार करते हैं, चाय-पाणी भेज दो। पर वहां से जबाब आया कि यह संभव नहीं है।
वहां (लडकी वाले) के एक ढोल वाले ने मजाकिया लहजे में इधर (लडके वाले) के ढोल-दमो वाले को कुछ गालीनुमा कहा दिया। जिससे ये भडक गये हैं। ये भी उनको दोस्ताना गाली दे रहे हैं।’’ पर उन मामा ने मुझे बच्चा समझकर गाली नहीं बताई, हां कितने बाराती हैं और स्याह पट्टे वालों को भेज दो ये सूचना बाजों ने कैसे दी ये जरूर समझाया। बहुत देर बाद उन्होने ही ढोल खुद बजा कर सयानेपन की सलाह देकर उन बाजगीरों के वाकयुद् को विराम दिया।(ढोल विद्या पर उन मामा जी का ज्ञान लगभग 30 साल बाद विख्यात कहानीकार मोहन थपलियाल जी कहानी ‘पमपम बैंड मास्टर की बारात’ पढ कर और पुख्ता हुयी।)नैल गांव में बारात के साथ पंहुचते ही दूल्हे की दान वाली चारपाई के आस-पास सारे बच्चे लमलेट हो गये। पर पौणें की पिठाई मिलेगी ये लालच नींद पर हावी था। पिठाई लगाने वाले सज्जन जैसे ही पास आये हमने चम्म से खडे होकर अपना माथा लगभग पिठाई की थाली में घुसा ही दिया था। पिठाई लेने की जल्दी और उनींद में जो थे हम। आस-पास के लोग हंसे पर उसकी किसको परवाह। चव्वनी की उम्मीद में एक रुपया ‘हे ! ब्ई।’ हमको लगा दान की चारपाई में बैठे आसमान में उड रहे हैं। बाद के ठाठ् देखिए।
अचानक बारातियों को दी जाने वाली मांगलिक रस्मी गालियों में हमारा नाम भी आया तो मारे शरम गरदन नहीं उठी पर अपने बड़ते कद का गुमान भी हुआ। नींद को अब कौन पूछे वो कोसों दूर थी।दूसरे दिन बारात की विदाई से पहले पिठाई के वक्त हम फिर मुस्तैद थे। उस दौर में पिठाई नाम पुकारकर दी जाती थी। कल रात के एक रुपया मिला कर अब दो रुपये की सम्पत्ति के हम मालिक थे। अपनी दुनिया की सभी ख्वाइशों को खरीदने की हिम्मत आ गयी थी हममें। खो न जाये इसलिए मेरे दो रुपये दादा जी की जेब रूपी गुल्लक में जो गये वो वहीं समाये रहे। मेरे कभी हाथ नहीं आये। पर जब तक मेरी मुठ्ठी में थे तब तक की बादशाही अमीरी की गरमाहट अब भी दिल में महसूस होती है। ……जारी है
डाॅ. अरुण कुकसाल चर्चित लेखक व घुमक्कड़ हैं