उर्गम, नीती और माणा घाटी की ओर-05
अरुण कुकशाल
(10-17, दिसम्बर, 2021) वो, हनुमानजी की पूजा नहीं करते लाता के बाद एक समतल भूमि की बसासत सुराईंथौटा है। सड़क के दोनों ओर चाय-पानी, राशन और जनरल स्टोर की कुछ दुकानें हैं। पीछे छोड़ आये गांवों की अपेक्षा यहां चहल-पहल है। जहां-जहां धूप के टुकड़े हैं, वहां-वहां लोग खड़े-बैठे अपनी-अपनी बातचीत में हैं। गाड़ी से उतरते ही हम आस-पास की दुकानों का नज़रों से ही सर्वें कर रहे हैं कि सुबह के नाश्ते के लिए कौन सी दुकान ठीक रहेगी। ‘राणा मैगी सैंटर’ सुराईथौंटा ज्यादा सुविधाजनक लगा, उसी ओर हम हैं। तभी, सामने आये व्यक्ति ने सीधे पूछ लिया कि ‘आप आगे कहां जा रहे हैं?’‘मलारी घूमने जा रहे हैं’ विजय ने उत्तर दिया है। ‘अच्छा, मलारी से आगे बिना परमिट के जाने की परमिशन नहीं है। आप मलारी से तुरंत वापस आ जांए। क्योंकि, मौसम और सड़क उस ओर ज्यादा ठीक नहीं हैं।’ पुलिस में तैनात उन सज्जन ने बिना मांगे सलाह दे दी है। हुकम सिंह राणा के मैगी सैण्टर में खाने-पीने से लेकर घर की जरूरत के अन्य सामान भी है। हुकम बताते हैं कि सुराईथौंटा तोलमा ग्राम सभा का तोक गांव है। वे स्वयं ग्राम प्रधान रह चुके हैं और सामाजिक कार्यों में बड़-चढ़कर भाग लेते हैं।
हुकम कह रहे हैं कि, यहां से आगे जाने वाले व्यक्तियों (विशेषकर नये) पर पुलिस नज़र रखती है। आगे के ऊपरी हिमालयी इलाकों से ज्यादातर गांवों के लोग अपने ग्रीष्मकालीन गांवों की ओर चले गए हैं। इसलिए, सुनसान गांवों की ओर लोगों के आने-जाने पर निगरानी और प्रतिबन्ध रहता है।हुकम ने जानकारी दी है कि, यह क्षेत्र मल्ला पैनखण्डा पट्टी का है। यहां के 12 गांवों के तकरीबन 5 हजार लोग शीतकालीन प्रवास में गांव छोड़ देते हैं। प्रति वर्ष अक्टूबर मध्य से लेकर अप्रैल मध्य तक यह प्रवास रहता है। खेती, उद्यान और पशुपालन यहां की प्रमुख आर्थिक गतिविधियां हैं। विगत कुछ वर्षों से उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कीड़ाजड़ी ढूंढने और एकत्र करने का कारोबार यहां बहुत बड़ा है। यह कार्य मुख्यतया जून से अगस्त माह तक किया जाता है, जिसमें प्रति परिवार औसतन 50 हजार रुपये कमा लेते हैं।सुराईथौंटा से तमक के बाद है जुम्मा गांव। जोशीमठ से जुम्मा तक 45 किमी. का अब तक सफर तय हो चुका है।
जुम्मा से धौली गंगा के झूला पुल को पार करके 13 किमी. के पैदल रास्ते पर द्रौणागिरि गांव है। अब इस ओर सड़क निर्माण अन्तिम दौर पर है। मान्यता है कि राम-रावण युद्ध में मूर्छित लक्ष्मण के उपचार हेतु सुषैन वैद्य के कहने पर हनुमान संजीवनी बूटी इसी द्रौणागिरी पर्वत से लाये थे। क्योंकि, हनुमान संजीवनी बूटी को पहचान नहीं पाये थे, इसलिए, वह इस पर्वत का एक समूचा हिस्सा ही उठा कर ले गए। जिससे इस क्षेत्र के स्थानीय देवता और लोगों को बहुत कष्ट और दुःख हुआ। तभी से, नाराजगी स्वरूप द्रौणागिरि इलाके के लोग आज भी हनुमान की पूजा नहीं करते हैं। द्रौणागिरि गांव से 6 किमी. ट्रैक के बाद ‘नन्दी कुण्ड’ है। नन्दी कुण्ड से द्रौणागिरि पर्वत की चोटी (समुद्रतल से ऊंचाई 7068 मीटर) और हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
जुम्मा के बाद जेलम और तब भापकुण्ड गांव है। आज इतवार का दिन है। लिहाजा, बीआरओ के मजदूरों की आज छुट्टी है। सड़क के दांये-बांये उनकी झोपड़ियां हैं। सड़क के किनारे एक धारे के चारों ओर महिलायें और पुरुष नहाने और कपड़े धोने में हैं। पत्थरों से बनाये चूल्हे में जलती लकड़ियों की आग से अलग-अलग चार बड़े ड्रमों में पानी गर्म किया जा रहा है। उनमें आपसी चुहल-बाजी और हंसी-मजाक भी जारी है। वहां से एक साथ कई मोबाइलों से भोजपुरी और हिन्दी फिल्मी गानों की आवाज दूर तक सुनाई दे रही है। कई बच्चे पत्थर ढ़ोने वाली गाड़ी में अपने से छोटे बच्चों को बिठा कर उनको सड़क से सैर करा रहे हैं।‘दिसम्बर की यह ठंड भी इन मजदूरों के जीने के उल्लास को कहीं से भी कम करने में सक्षम नहीं है।’ मैं कहता हूं।‘और, हमारा समाज और हमारी सरकार इनको सुविधाजनक घर और बच्चों को उचित शिक्षा देने में भी समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।’ सड़क किनारे मजदूरों की प्लास्टिक और लकड़ी से बनी टूटी-फूटी झोपडियों को देखकर हिमाली कहती है।
भापकुण्ड से आगे चलते ही एक बोर्ड पर नजर जाती है, जिस पर कोसा गांव लिखा है। धौली नदी पार का कोसा गांव इस क्षेत्र के जनप्रिय नेता कामरेड गोविन्द सिंह रावत का है। सड़कों पर जन-हित के मुद्दों के लिए नारे लगाते हुए बचपन में मैं उन्हें देखा करता था। इस क्षेत्र के विकास और पर्यावरण रक्षा के लिए उनका योगदान जग-जाहिर है।अब, सड़क चढ़ाई के साथ तीखे मोड़ों वाली है। काफी समय से सुनसान सड़क पर केवल हमारी ही गाड़ी दौड़ रही है। आगे-पीछे कोई भी तो वाहन दूर तक नज़र नहीं आ रहा है। सुनसानी में चलती गाड़ी में बैठकर आने वाली उकताहट हम पर भी आने लगी है। बिना पेड़ों के पहाड़ और भी वीरानगी महसूस करा रहे हैं। घौली नदी भी अब हमसे बहुत नीचे और गहरी हो गई है। इसलिए, उसका साथ और शोर भी अब हमारे साथ नहीं है। सड़क के ऊपरी ओर के एक वीरान गांव में ‘अटल आर्दश ग्राम’ का बोर्ड तो मुस्तैदी से है, पर उस पर गांव का नाम गायब है। ‘लगता है, हम मानवीय दुनिया से कहीं आगे आ गए हैं।’ मैं लम्बे समय की चुप्पी तोड़ते हुए कहता हूं। ‘ये उत्तराखण्ड नहीं लद्दाख जैसी जगह दिख रही है।’ हिमाली का वक्तव्य है।‘फिर तो, उत्तराखण्ड में लद्दाख को देखने का आनंद वाली जगह से हम जा रहे हैं।’ विजय ने गाड़ी चलाते हुए कहा है।
हमारी ओर के पहाड़ों मेें चिपचिपी और गीली मिट्टी है। जबकि, धौली गंगा पार के पहाड़ों से जैसे उनके बाहरी आवरण की मज्ज़ा (मिट्टी और वनस्पति) हट गई है। एकदम सीधे-सपाट पत्थरों से बनी उनकी पसलियां साफ चमक रही हैं। उनके शिखर बर्फ से लदे-फदे हैं। हमारी ओर सड़क पर कुछ दिनों पहले गिरी बर्फ की पर्त अभी भी मौजूद है। हमारे आस-पास बर्फ से लक-दक झाडियों के अंदर चिडियों की चिल्ल-पौं मची है। जैसे किसी गहरी मंत्रणा में अपने-अपने विचारों को बोल रहे हों। जगह-जगह पीले-लाल बनस्पा, नीले और बैंगनी आइरिस फूल, जंगली किशमिश के छोटे-छोटे पौंधे नज़र आ रहे हैं।मलारी आने से पहले सड़क के एक ओर काली देवी का भव्य मंदिर है। मंदिर के ठीक पीछे हिमालय की चोटियां उसको और भी भव्यता प्रदान कर रही है।………यात्रा जारी है
अरुण कुकसालयात्रा के साथी- विजय घिल्डियाल और हिमाली कुकसाल