उर्गम, नीती और माणा घाटी की ओर-03
अरुण कुकशाल
(10-17 दिसम्बर, 2021) तब, नदी पार करना अच्छा नहीं माना जाता था- पुल पार करते ही कल्पेश्वर मंदिर परिसर शुरु हो गया है। कल्प गंगा के दांयी ओर के पर्वतों की छोटी-बड़ी जलधारायों के बहने का शोर इधर भी सुनाई दे रहा है। कल्पेश्वर मंदिर परिसर के नदी की तरफ वाला हिस्सा तीखी चट्टान का है। इस संकरे रास्ते के नीचे की ओर तेजी से शोर मचाती नदी ही दिख रही है। मतलब, फिसले तो सीधे नदी की शरण में ही पनाह मिलेगी। आजकल निर्माण कार्य चालू होने के कारण ये रास्ता और भी खतरनाक हो गया है। मुख्य गेट के पास ही जलती धूनी के चारों ओर कुछ लोग बैठे हैं। समाने की कुटिया की दीवार पर ‘नागादेवसंतोषगीरी’ लिखा है। इसी कतार में दो भवनों के आगे एक विराट चट्टान की ओट में कल्पेश्वर मंदिर दिखाई दिया है।
लक्ष्मण बताते हैं कि ‘हिरण्यावती नदी जो कि सोन पर्वत से निकलती है के बायें तट पर कल्पेश्वर मंदिर स्थित है। कल्पेश्वर मंदिर के पास ही हिरण्यावती, ललिता और प्यूंलागंगा की त्रिवेणी है। कल्पेश्वर में तीनों नदियों के संगम के बाद ये सब कल्प गंगा हो जाती है।’कल्पेश्वर मंदिर के प्रारंभ होते ही चट्टान पर प्राचीन लिपि में कुछ विवरण खुदा हैं। इसके निचले हिस्से में दो कतारों में त्रिशूल गाड़े गए हैं। पुजारी दरबान सिंह नेगी जानकारी देते हैं कि ‘कल्पेश्वर में 12 त्रिशूल 12 ज्योतिलिंगों के प्रतीक चिन्ह् है। इसलिए, यहां 12 ज्योति लिंगों के दर्शन एक साथ किये जा सकते हैं। सामने की चट्टान पर पाली भाषा की लिपि में इसका विवरण लिखा है। ’मंदिर के गर्भ स्थल और बाहरी आवरण की चट्टान पर लम्बी और मोटी धारियां हैं। जो कि, इस चट्टान के शीर्ष से नीचे जमीन तक लहराती हुई हैं। पुजारी बताते हैं कि ‘ये भगवान शिव की जटाओं के प्रतीक हैं।
अतः कल्पेश्वर मंदिर में शिव को जटा के रूप में पूजा जाता है। कल्पेश्वर को पांचवा धाम माना गया है। इस चट्टान के ऊपरी छोर पर कल्पवृक्ष है, जिसकी जड़ों से निकलने वाले जल को ही यहां चढ़ाया जाता है। कल्पेश्वर मंदिर 12 मास खुला रहता है। लेकिन, फरवरी से नवम्बर ज्यादा तीर्थयात्री आते हैं।’मंदिर दर्शन के बाद पुजारी नेगी जी के घर पर चाय पीते हुए आपसी बातचीत में एक रोचक किस्सा पता चला है। कल्पेश्वर मंदिर के पुजारी क्षेत्रीय नेगी जाति के लोग हैं। पूर्व में ब्राह्मण जाति के भट्ट लोग पुजारी होते थे। किस्सा यह है कि बहुत पहले भट्ट पुजारी की इकलौती संतान उसकी बेटी थी। उसने अपनी लड़की की शादी नेगी जाति के लड़के से कर दी। शादी के बाद वह दामाद ससुराल में रहने लगा। और, पुजारी बन कर कल्पेश्वर मंदिर में पूजा कार्य भी करने लगा। इस पर अन्य ग्रामीणों ने विरोध किया। परन्तु, स्थानीय प्रशासन ने उसी के हक़ में फैसला दिया। अपने श्वसुर के देहांत के बाद वह मुख्य पुजारी बना। तब से कल्पेश्वर मंदिर के पुजारी को नेगी जाति का कहा जाने लगा।
लक्ष्मण कल्पेश्वर के निकटवर्ती तीर्थस्थलों की जानकारी देते हुए बताते हैं कि ‘कल्पेश्वर से रुद्रनाथ 40 किमी. (कल्पेश्वर से पनार बुग्याल 33 किमी. और पनार से रुद्रनाथ 7 किमी.) का प्रसिद्ध और प्राचीन ट्रैक है। जिसे पूरा करने में सामान्यतया 3 दिन लगते हैं। कल्पेश्वर से फ्यूलानारायण मंदिर 5 किमी. की तीखी पैदल चढ़ाई के बाद है। इस ट्रैक पर 3 किमी. की दूरी पर सुन्दर वन में इन्द्र गुफा है। जहां दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने के लिए इन्द्र ने तपस्या की थी। फ्यूलानारायण मंदिर की पूजा भर्की और भेंठा के लोग बारी-बारी से करते हैं। रोचक तथ्य यह है कि यहां एक साथ दो पुजारी (एक महिला और दूसरा पुरुष) होता है। महिला पुजारी को फ्यूलाण और पुरुष पुजारी को फ्यूल्या का संबोधन दिया जाता है।
स्थानीय मान्यता है कि फ्यूलानारायण के रूप में विष्णु का श्रृगांर केवल महिला ही कर सकती हैं। इस स्थल पर महिला पुजारी फ्यूलानारायण, मां नन्दा, वन देवी, स्वनूल देवी और जाख देवता का श्रृंगार करती हैं।’कल्पेश्वर मंदिर परिसर में 75 साल के संत संतोष गिरी से मुलाकात होती है। नरेन्द्र नेगी बताते हैं कि ‘संतोष गिरी मूलतः बनारस के रहने वाले हैं। परन्तु, विगत 45 साल से यहीं रहते हैं। उनके शिष्य अनंत गिरि 50 साल के हैं और वे भी 20 साल से उनके साथ हैं। संतोष गिरि अपने गुरु श्री हनुमान गिरि के साथ सन् 1975 में यहां आये और यहीं के हो गए। हनुमान गिरि महाराज ने संतोपंथ और सुंदरवन में निरंतर 25 वर्ष तक एक हाथ को हमेशा ऊपर की ओर खड़ा करके तपस्या की थी। 100 वर्ष की आयु में सन् 2000 में उन्होने संतोपंथ क्षेत्र में समाधि ली थी। संतोष गिरि दिव्य व्यक्तित्व हैं और जनसेवा के कार्य में अपने को समर्पित किए हुए हैं। वे धर्मशाला और यात्रियों को निशुल्क अपनी सेवायें और मदद करते हैं।’कल्पेश्वर मंदिर सेे वापसी में उर्गम घाटी का प्रमुख गांव बड़गिंड्डा पहुंचे हैं। इस गांव की महत्वा इसी से पता चल जाती है कि सन् 1914 में यहां प्राइमरी स्कूल की शुरुआत हो गई थी।
लगभग 50 परिवारों वाले बड़गिंड्डा गांव की बसासत सड़क के दोनों ओर है। गांव के ऊपरी हिस्से से प्राचीन घण्टाकर्ण मंदिर की फरफराती ध्वजा मनमोहक लग रही है। क्षेत्रपाल के रूप में घण्टाकर्ण उर्गम घाटी के इष्ट देव हैं। दूर-दूर तक चारों ओर लम्बे-चौड़े खेत नज़र आ रहे हैं। आजकल खेतों में फसल नहीं है। एक खाली खेत में क्रिकेट मैच की तैयारी चल रही है। खेत की सफाई और उस पर चूने से बाउण्ड्री लाइन बनायी जा रही है। दो दिन बात उर्गम की 5 ग्राम पंचायतों का आपसी किक्रेट मैच होना है।गांव में सड़क के किनारे खाने-पीने, राशन और जनरल स्टोर की अच्छी-खासी दुकानें हैं। एक होम स्टे के बाहर दो व्यक्ति सूर्य नमस्कार की मुद्रा में है। लक्ष्मण जानकारी देते हैं कि ‘उर्गम घाटी में वर्तमान में 12 से 15 होमस्टे संचालित हो रहे हैं। यहां तीर्थयात्रियों के साथ पर्यटक भी यहां आने लगे हैं। कोरोना काल में ‘वर्क फ्राम होम’ प्रचलन में आने से होम स्टे का कारोबार चल पड़ा है। नेटवर्क की समस्या रहती है, पर काम चल जाता है। अगर नेटवर्क को सुधारा जाय तो यह और भी बड़ सकता है।
बड़गिडडा गांव में स्थित ध्यान बद्री मंदिर (समुद्रतल से ऊंचाई 2134 मीटर) में हम है। मंदिर के पुजारी डिमरी जी बताते कि ‘इस परिसर में पूर्व की ओर ध्यान बद्री (नारायण का मंदिर) और पश्चिम की ओर शिव मंदिर है। कत्यूरी शैली में बने इन मंदिरों का निर्माण 7वीं से 8वीं शताब्दी माना जाता है। शंकराचार्य को ध्यान मुद्रा में बद्रीनाथ के यहां दर्शन हुए थे। यहां पर बद्रीनाथ पद्मासन की मुद्रा में कुबेर और उधव के साथ हैं। प्राचीनकाल में बद्रीनाथ जाने का मार्ग उर्गम घाटी से था। क्योंकि, इस रास्ते तीर्थयात्रियों को अलकनंदा नदी को पार नहीं करना होता था। (तब नदी पार करना अच्छा नहीं माना जाता था।) उस काल में यहां से बद्रीनाथ मंदिर के लिए दूध रोज नियमित भेजा जाता था। उस दौरान बद्रीनाथ के पुजारी रावल का शीतकालीन प्रवास यहीं होता था। उसके निवास को रावल कोट कहा जाता था।’……….यात्रा जारी है
अरुण कुकसालयात्रा के साथी- विजय घिल्डियाल और हिमाली कुकसाल