जीवन की खुशहाल राह बनाते युवा
डॉ. अरुण कुकसाल
श्रीनगर (गढ़वाल) से जब आप चल रहे होंगे, तो खिर्सू आने से पहले ‘खिर्सू बैंड’ आपकी ओर मुखातिब होकर मन ही मन कहेगा कि ‘थोड़ा रुक जाइए, जल्दी क्या है? खिर्सू तो आप पहुंच ही गए हैं। बस, एक लतड़ाग सामने तो है, खिर्सू।’ खिर्सू बैंड वाले तिराहे से पौड़ी-19 किमी., श्रीनगर-30 किमी., खेड़ाखाल-18 किमी. और खांखरा-30 किमी. की दूरी पर हैं। खिर्सू और आर – पार के गांवों के बेहद खूबसूरत नजारे यहां पर हैं, तो सामने का श्वेत हिमालय खुद आप पर नज़र गड़ाये मुस्तैद दिखता है।
इस स्थल की वन्यता के बाद मैं बात करना चाहता हूं, उन तीन स्थानीय युवाओं की जिन्होने जीवन में अचानक आई विघ्न-बाधाओं को ‘परे हट’ कहने का साहस किया है। आज वे विगत साल के कोरोना काल के भय से उभर कर एक नये जीवन की राह पर आगे बढ़ रहे हैं। उन्हें मालूम है कि कष्टों का कोहरा अभी छंटा नहीं है। पर उनकी सामुहिक दूर-दृष्टि उनके हौंसलों को सही दिशा में गतिमान किए हुए हैं। बात बिल्कुल सामान्य और चिर-परिचित है। ग्वाड़ गांव के सुनील नेगी (38 वर्ष), प्रदीप रावत (42 वर्ष) और अनिल नेगी (38 वर्ष) हाईस्कूल पास करके 90 के दशक के अलग-अलग वर्षो में रोजगार की तलाश में मैदानी महानगरों की ओर चले गए थे। विभिन्न शहरों में रहने वाले मित्रों, रिश्तेदारों और जीवनीय सफ़र में मिले लोगों की मदद से वे होटल व्यवसाय से जुड़ते गए। दिल्ली, पटियाला अमृतसर और लुधियाना के होटलों में काम करते हुए अपने गांव से प्रवास की यह अवधि 20-22 साल हो गई थी।
मैदानी महानगरों के होटलों में काम करते हुए दो दशक पहले 1500 रुपया महीने से नौकरी की शुरुआत करने वाले ये युवा पिछले साल 15 हजार रुपया महीना कमा लेते थे। घर आना कभी-कभार ही होता था। और, मैदानी शहरों में जीवकोपार्जन कर रहे अन्य स्थानीय युवाओं की तरह एक बंधी-बंधाई जिन्दगी को जीने के अभ्यस्त हो गये थे। विगत साल मार्च माह में कोरोना आया, तो उसकी दशहत ने देश के लाखों अन्य युवाओं की तरह इनके रोजगार को भी ठ्प्प कर दिया। यह इतना अचानक हुआ कि रोजगार को बचाने से पहले जीवन को बचाने का सवाल ऐसे युवाओं के सामने आ गया। और, जीवन में संभलने और सुरक्षित रहने की सर्वोत्तम जगह घर-परिवार ही तो है। ये जीवनीय सच है कि घर के मायने घर से जाना नहीं, वरन घर की ओर लौटना होता है।
देश के विभिन्न शहरों में काम कर रहे ये युवा अप्रैल, 2020 में होटल बंद होने के कारण वापस अपने ग्वाड गांव आ गए। पहले तो दिमाग में था कि वापस जायेंगे, यहां क्या करेंगे? करने को कुछ है नहीं। पर मन के किसी कोने में गांव में ही रहने की इच्छा कुलबुलाने लगी थी। सालों बाद इतना लम्बा समय परिवार और बाल-बच्चों के साथ रहने का मिल रहा था। अनिल कहते हैं कि ‘हम तीनों रोज गांव से खिर्सू बैंड तक घूमने जाते थे। बातचीत का विषय आगे का रोजगार ही होता था। लेकिन, समझ में यह नहीं आ रहा था कि करें तो क्या करें? रुपया-पैसा अपने पल्ले ज्यादा था नहीं, इसलिए बड़े बाजार में कोई काम करना संभव नहीं था। होटल में काम करने का अनुभव था। वही मन-मस्तिष्क में भी था।
हमें उस स्थल की तलाश थी, जहां बिना दुकान का किराया दिए, होटल का काम शुरू किया जा सकता था। ‘खिर्सू बैंड’ के अपने ग्वाड़ गांव, आते-जाते लोगों, वाहनों और पर्यटकों के जुड़े होने से उसकी व्यवसायिक सार्थकता से हम वाकिफ हुए, तो विचार आया कि खिर्सू बैंड पर ही अपना चलता-फिरता होटल का काम शुरू करते हैं। हमारे मन ने दिमाग को समझाया और हम तीनों ने मिलकर ये काम शुरू कर दिया। हमें वह उद्यमीय अवसर मिल गया, जिसकी हमें तलाश थी। हमने ठान लिया कि अब, सोचने का नहीं काम करने का वक्त है।’
बस फिर क्या था, इन युवाओं द्वारा 10 मई, 2020 की सुबह से ‘खिर्सू बैंड’ पर यात्री शैड के पास ढ़ाबा निर्माण का कार्य शुरू हो गया। गांव में जहां-तहां रखे मेज, कुर्सी, स्टूल, बैंच, तिरपाल, टीन, डंडे, रस्सियां, बर्तन, स्टोव, गैस और आपसी बचत के 5 हजार रुपये से राशन लाकर ढ़ाबा चालू भी कर दिया। इस नवजात ढ़ाबे को उन्होने ‘बेरोजगारी ढ़ाबा’ नाम दिया।
तीनों की साझी मेहनत रंग लाई। पहले सप्ताह ही उन्होने अपनी कार्यशील पूंजी 15 हजार रुपये तक बढ़ा ली थी। ‘खिर्सू बैंड’ में निजी वाहनों से लेकर ट्रकों से आने-जाने वाले और स्थानीय लोग इनके ग्राहक बनने लगे। इन युवाओं ने अपने इस प्रयास को व्यवस्थित रूप देना शुरू किया। परन्तु, वो समय लॉकडाउन का था। खुलकर काम करना संभव नहीं था। इसलिए, इन्होने होशियारी करके इसमें सब्जी, राशन और नित्य जरूरतों का सामान भी रखना शुरू कर दिया। ताकि दुकान रोज खुले और बंद न हो। नजदीकी गांव-इलाके के खेतों और बगीचों के उत्पादों को मंगा कर उनको भी इन्होने बेचने प्रारम्भ कर दिया।
सुनील बताते हैं कि ‘शुरुआती दौर में हम अपने घरों से खाने-पीने की चीजें बनाकर लाते थे। यहां पर सामान लाने के लिए हाथ गाड़ी बनाई। रोज प्रातः 7 बजे हाथ गाड़ी में सामान रखा और उसे खींच कर यहां तक पहुंचाते थे। आज हम अधिकांश चीजें यहीं पर बनाते हैं। हमारी इस दुकान में मैगी, अण्डा, आमलेट, मोमो, चाउमीन, बर्गर, पिज्जा, चिकन, भोजन, चाय, सब्जी और स्थानीय उत्पादों की ब्रिकी होती है। भारतीय, चाइनीज और कॉटींनेटल सभी प्रकार के भोजन हम बना लेते हैं। सुबह 7 बजे से 10 बजे रात्रि तक हर समय खुली इस दुकान में आने-जाने वाले का तांता बना रहता है। देर रात और सुबह – सुबह चलने वाले ट्रक चालक जगह-जगह से मोबाइल से फोन कर लेते हैं। गांव-गांव से पहले ही आर्डर के लिए फोन आ जाते हैं। संभव है, तो हम बाइक से होम डिलेवरी भी करते हैं। खिर्सू में रुके पर्यटक अक्सर भोजन – स्पेशल डिश खाने यहां आते हैं अथवा यहीं से मंगाते हैं। आस-पास के ग्रामीण अपनी जरूरत की चीजें हम से लेते हैं। साथ ही, उनका कोई सामान आया हो तो हम उन तक सुरक्षित पहुंचाते हैं।’
प्रदीप बताते हैं कि ‘पहले हमने अपने इस उद्यम का नाम ‘बेरोजगारी ढ़ाबा’ रखा। अब, इसका नाम ‘अपनी रसोई’ कर दिया है। तीनों मिलकर 25 – 30 हजार तक कमा लेते हैं। आने वाले समय में इसको बढ़ाने की बहुत संभावनायें हैं। घर-परिवार में रहते हुए 8 – 10 हजार कमाना पहले से बहुत बेहतर है।’ ‘सरकार ने कुछ मदद की’ यह पूछने पर इन युवाओं का कहना है कि ‘नेता आते हैं और यहां पर भाषण और आश्वासन देकर चले जाते हैं। कोई सरकारी अधिकारी मदद करने करने तो छोड़ो चाय पीने तक नहीं आया, ताकि उसी से कुछ हमारी मदद होती। यहां पानी की समस्या है। पानी दूर गधेरे से ढो कर लाना पड़ता है। सामने नल लगाने की बात की थी, पर विभाग का कहना है कि आबादी होती तो हम नल लगा लेते, यहां किस आधार पर लगायें। फिर भी, हमें उम्मीद है कि हमारे प्रयासों को सरकार समझेगी और हमारी आधारभूत जरूरतों को सुविधाजनक बनाने में मदद करेगी।’ कोरोना काल के कारण अपने गांव वापस आये अनिल, सुनील और प्रदीप के ये उद्यमीय प्रयास काबिले-तारीफ हैं। भले ही, सरकार के विज्ञापनी वायदों में ऐसे प्रयासों को सरकारी मदद और मार्गदर्शन की दरकार अभी भी है।