रुद्रनाथ यात्रा – 1

अरुण कुकसाल
रुद्रनाथ यात्रा, 1-3 सितम्बर, 2017 ‘कि, रौंतों क बल्द लमड़िन, बल, अपणि खुशिल’
ये मेरी भेंट भगवान रुद्रनाथ मंदिर में चढ़ा दीजियेगा। आपकी बातों में सफर का पता ही नहीं चला। जबाब में मैने तुरंत कहा ‘आपको देख कर तो ‘शोले’ फिल्म की बसंती याद आ गयी, बोलते आप रहे हम तो ‘हूं-हां’ ही कर रहे थे।’ पर बात शुरू तो आप लोगों ने की थी, इसलिए बातें तो आपकी ही हुयी ना। मैं तो बातों को बस आगे बढ़ा रहा था। अच्छा भैजी लोगों, वापसी की सवारी ढूंढता हूं अब, श्रीनगर, श्रीनगर, श्रीनगर…….’ ये महाशय पाण्डे जी हैं। श्रीनगर से बतौर टैक्सी चालक कर्णप्रयाग इनके साथ पहुंचे। हम रास्ते भर समझाते रहे कि भाई, तुम सिर्फ गाड़ी चलाओ, उत्तराखण्ड में बांध, खनन, शराब, शिक्षा पर आपकी बातें फिर कभी इत्मीनान से सुन लेगें। पर पाण्डे जी ‘आफिस-आफिस सीरियल’ वाले पाण्डे जी ही हैं, कहां मानने वाले। उनकी जीप में सवारी, छत मेें सामान और स्पीड बिना ब्रेक दबाये फुल है। इसके बाद भी उनकी बातें गाड़ी से भी आगे-आगे चल रही हैं। बिना हमारी टोका-टाकी के केवल उन्हीं की बातें आप तक संक्षेप में पहुंचाता हूं।
श्रीनगर से डुंगरीपंथ के आगे बढ़ते ही पाण्डे जी बोले ‘वो देखो, मेरा धारी गांव। डैम बनाने वालों ने कहा था स्वीजरलैंड जैसा बनायेगा हम तुम्हारे गांव को। चारों ओर मेरिन ड्राइव होगा इसके। कुछ नहीं हुआ भै साब, उल्टा बाप-दादाओं की जमीन-जैजाद के साथ गांव का भाईचारा भी चला गया। जब श्रीनगर डैम बनने की बात शुरू हो रही थी तो हम बेफिक्र थे कि धारी गांव तक इसका असर नहीं होगा। बाद में जब धारी मंदिर को उठाने की बाद हुयी तो खूब विरोध हुआ। देश-प्रदेश के बडे-बडे नेताओं को हमने सौगंध खाते देखा कि धारी मंदिर का कुछ नहीं होगा। बाद में ये सब कैसे मान गए, सबको मालूम है। कुछ बोलना अपना मुहं खराब करना है, भै साब। वो तो 2013 की बाढ़ आयी तब हम चैते और हमें अपने गांव में आने वाले खतरे का अहसास हुआ। लड़-झगड़ कर हमारे गांव का निचला हिस्सा डूब क्षेत्र में शामिल हो पाया। मजे की बात यह रही कि ज्यादातर नदी के किनारे गरीब-गुरब्बों की और जो गांव छोड़कर बाहर शहरों में बस गए थे उनकी हिस्से की जमीन थी। वही फैदा में रहे। डैम बनाने का जो रूप भी उन्ही का ज्यादा था। जब तक डैम नहीं बना था तब तक कम्पनी खूब मेहरबान थी हम पर। 18 साल से ऊपर के लोगों को 3500 रुपया महीना बिना बात के मिलने लगा था।
डैम बना कि सब पर ढक्कन लग गया। पर लोग तो कम्पनी से पैसा लेने के आदी हो चुके थे। बस, फिर नेताओं और अधिकारियों के आगे-पीछे घूमने लगे डैम प्रभावित गांवों के लोग। पर अब होना क्या था। कम्पनी का तो काम बन गया था। उनकी बला से आंदोलन होते रहे। ‘सब गवां के होश में आये तो क्या हुआ’ वाली बात है, साहब लोगों। जो प्रेम-भाव था वो भी गया। आज सब भाई-बिरादर एक दूसरे को शक की नजर देख रहे हैं कि न जाने दूसरे को कितना मुआवजा मिला होगा। पीढ़ियों से बाहर बस गये लोग भी महीनों मय बाल-बच्चों के यहां रहने आये। ताकि उनको अधिक से अधिक मुआवजा मिल सके। वैसे भैजी, एक बात बताऊं हम पहाड़ी लोग लुरु ही हैं, अपना गांव, खलिहान, मंदिर डुबा दिया एक कम्पनी के फैदा के लिए। सुना, कुमाऊं में पंचेश्वर डैम बनाने जा रही है, सरकार। हमको ले जाओ सहाब, वहां हम बताईगें कि भाई लोगों, सरकार और कम्पनी की बात में मत फंसना। जैसी गत हमारी हुयी है श्रीनगर डैम बनने से वैसे ही तुम्हारी भी होगी। सरकार का क्या है वो तो शराब और खनन से पैसा कमा रही है। डैम से भी कमा लेगी। पर तुम्हारा और तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों का बुरा हाल होगा। पता नहीं कितने सौ साल लगे होगें भैजी एक गांव बसने में और हमने नगद पैसों के चक्कर में 3-4 साल में ही उसे डुबा दिया। ‘घत्त तेरे की’ गाड़ी ज्यादा झौंक क्यों खा रही होगी ? जरा देखता हूं, बस दो मिनट लगेगें। कुछ नहीं थोड़ा हवा कम है। रुद्रप्रयाग में भरवा लेगें।
जीप की पिछली सीट पर रुद्रप्रयाग के नजदीकी किसी प्राइमरी विद्यालय की शिक्षिका की झुंझलाहट ने सब्र तोड़ ही दिया। सुबह का स्कूल है और साढ़े सात यहीं पर हो गये हैं। उसके ऊपर स्कूल की भोजनमाता ने मोबाइल पर बताया कि कोई आये हैं स्कूल में। हाजरी रजिस्ट्रर मांग रहे हैं। अब आलमारी की चाबी तो मैड़म जी के ही पास है। मैड़म बड़बड़ायी कि किस्मत ही खराब थी कि इस गाड़ी में बैठी। अच्छी-खासी बस लगी थी श्रीनगर स्टेशन में। वो भी आगे चल गयी, आज तो नौकरी गयी समझो। पाण्डे जी फिर कुछ बोलने को हुए कि मैडम जोर से बिफरी कि ‘तुम चुपचाप गाड़ी चलाओ’। मैडम के गुस्से से बाकी सवारी भी सहम से गये। आगे 10 मिनट बाद मैड़म उतरी तभी जीप का सन्नाटा टूटा। ‘तुम तो डर ही गये थे,’ भूपेन्द्र ने कहा तो पाण्डे बोला ‘डरना पड़ता है, भैजी, टीचर लोगों के वजह से ही तो हमारी जीपें चल रहीं है। वरना कहां मिलती है रोज की सवारी। मैडम का गुस्सा भी ठीक ही हुआ। आज देर तो हो ही गयी उनको। न जाने क्या होगा आज उनका’। पाण्डे बोलते हुए मुस्कराता भी जा रहा है।
बातें फिर जीप की रफ्तार के साथ-साथ चलने लगी। पाण्डे ने अब बड़ी पते की बात कही कि ‘सरकार हम बस शराब, खनन और मास्टरों के लिए ही चुनते हैं क्या ? क्योंकि जब भी कोई नयी सरकार आती है, बस साल-छः महीने तो इन्हीं पर बात होती रहती है। ‘अब कर लो बात’ हमारी नयी सरकार की। बस यही तो हो रहा है। हां, साहब एक काम तो बड़ा बेकार किया सरकार ने। पहाड़ों में शराब का ठेका शाम को छः बजे बंद करने का। 6 बजे से पलै ठेके पर पहुंचना है करके, लोग गाड़ी तेज भगा रहे हैं। पहले काम-धाम के बाद आराम से रात 9-10 बजे सोचते थे, कि पीना है या नहीं। अब तो 7 बजे ही टुन्न हो जा रे बल। सब्र किसको है। शाम की गाड़ी की बुकिंग मारी गयी हमारी। पीछे की सीट पर बैठे सज्जन अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बोले कि भै साब गढ़वाली में एक पुरणि मसल चा ‘कि, रौंतों क बल्द लमड़िन, बल, अपणि खुशिल’। बात यह है कि हम ही लोगों ने अपनी वेवकूफी/खुशी से अपना नुकसान कराया। तब तो कहते थे कि ‘आज दो-अभी दो उत्तराखण्ड राज दो’। अच्छे खासे थे पहले। कहने को अपना राज है पर जब जनता के पास खाणें-कमाणे के लिए कुछ होगा नहीं तो क्या करना ऐसे राज का। राज क्या पहाड़ के शरीर पर खाज हो गया है। खुजाओ तो अच्छा लगता है, न खुजाओ तो बैचेनी, ठीक करने की दवा फिलहाल है नहीं किसी के पास’.
(साथी सीता राम बहुगुणा और भूपेन्द्र नगी के साथ यात्रा जारी है)
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