केदारनाथ धाम: परम्परा से खिलवाड़ का नया रिवाज, आखिर क्यों ?
दिनेश शास्त्री
करोड़ों करोड़ हिंदुओं की आस्था के केंद्र और 11वें ज्योतिर्लिंग भगवाब केदारनाथ के धाम में व्यवस्था तार – तार होती दिख रही हैं। यहां कायदे क्या आम और खास के लिए अलग अलग हैं? सवाल खुद ब खुद उठ रहा है। सरकार यानी देवस्थानम बोर्ड उससे पहले अंग्रेजों के जमाने मे बनाई गई बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर कमेटी का नियम यहां शायद आम लोगों पर ही लागू होता है। खास के लिए व्यवस्था भी खास होती है और नियम तो उनके लिए होते ही नहीं। बहरहाल व्यवस्था जो सरकार के स्तर पर बनी है, वह खण्डित हो रही है।
आपको बता दें केदारनाथ धाम में मंदिर के भीतर फोटोग्राफी वर्जित है। इसके लिए बाकायदा प्रवेश द्वार पर ही यह सूचना अंकित की गई है। मैंने अपने जीवनकाल में सिर्फ और सिर्फ दो मौके देखे हैं जब केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह के फोटो सार्वजनिक हुए हैं। पहला मौका तब था जब 2013 की आपदा के बाद मंदिर के गर्भगृह की सफाई के दौरान हरक सिंह रावत का फोटो सार्वजनिक हुआ था और दूसरा मौका 29 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का जलाभिषेक करते फ़ोटो सार्वजनिक हुआ है। आपदा के बाद सफाई के फोटो को भुलाया जा सकता है, क्योंकि तब कोई व्यवस्था नहीं थी।
हरक सिंह रावत एक तरह से आपदा राहत के प्रभारी थे। मंदिर के गर्भ गृह में उस समय रेत और दूसरे कूड़े का अंबार लगा था, हालांकि तब भी फ़ोटो खींचने की जरूरत नहीं थी, लेकिन माना कि तब वहां पूजा व्यवस्था स्थगित थी, सब कुछ थमा सा था, इसलिए गर्भ गृह के उस फ़ोटो का कोई विशेष महत्व नहीं था लेकिन बीती 29 अक्टूबर के फोटो से बहुत सारे सवाल खड़े होते हैं। सोशल मीडिया पर कमलनाथ और उनके साथ खड़े लोगों का यह फोटो तेजी से वायरल हो रहा है, लेकिन न तो देवस्थानम बोर्ड ने इसका संज्ञान लिया और न सनातन धर्म के ध्वजवाहक तीर्थ पुरोहितों ने।
बड़ा सवाल यह है कि केदारनाथ मंदिर के प्रवेश द्वार पर यह सूचना क्यों अंकित है कि अंदर फ़ोटो खींचना वर्जित है। सोशल मीडिया रिपोर्टों पर भरोसा करें तो कमलनाथ द्वारा जलाभिषेक के समय देवस्थानम बोर्ड के अधिकारी भी उनके साथ मौजूद थे। आखिर उन्होंने क्यों मंदिर की व्यवस्था को खुद ही तार -तार होने दिया। उन्होंने फोटोग्राफी पर क्यों नहीं एतराज किया?
सवाल यह भी उठेगा कि क्या बड़े लोगों के लिए देवस्थानम बोर्ड के अलग नियम हैं? आम आदमी अगर इस तरह की कोशिश करे तो उसके दुस्साहस का क्या ‘इनाम’ मिल जाएगा, आप खुद अंदाज लगा सकते हैं। देवस्थानम बोर्ड ही नहीं सरकार के मंत्रियों से भी इस संबंध में कैफियत पूछी जानी चाहिए कि आखिर यह सब हुआ कैसे? कैसे वर्षों पुरानी परंपरा और नियम को ताक पर रख दिया गया।
सवाल यह भी पूछा जाएगा कि क्या अब देवस्थानम बोर्ड बनने के बाद नियमों में बदलाव कर दिया गया है? अगर बदलाव किया गया है तो प्रवेश द्वार पर लगा सूचना पट हटाया क्यों नहीं गया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मंदिर के प्रवेश द्वार के पास सूचना पट यथावत लटका हुआ था। ऐसे में सवाल तो पूछा ही जाएगा। विडम्बना यह है कि सरकार की पसंद भी गजब की है। देवस्थानम बोर्ड में अधिकारी का चयन का आधार क्या है, यह कोई नहीं जानता। जंगलात के मामले में विशेषज्ञता रखने वालों के हाथ मंदिर का प्रबंधन होगा तो यह सब कुछ देखने को मिलेगा। जंगल के कुछ नियम यहां भी दिख जाए तो हैरान होने की जरूरत नहीं है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत को लौटाया बैरंग
दूसरी घटना भी एक सप्ताह के भीतर इसी धाम में सामने आई जब प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को मंदिर में जाने ही नहीं दिया बल्कि धक्का मुक्की कर बैरंग लौटा दिया गया। धार्मिक पैमाने पर मामले को देखें तो किसी भी सनातनी का यह अधिकार है कि वह अपने आराध्य के दर्शन कर सके, दूसरे संविधान भी धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, फिर सवाल यह उठ खड़ा होता है कि किसी ‘धर्मानुरागी’ का विरोध करने वाले लोग संविधान और कानून से ऊपर हो सकते हैं। व्यक्तिगत रूप से त्रिवेंद्र सिंह रावत से मुझे न कोई अनुराग है और न द्वेष। उनके कार्य जनता के सामने हैं और मेरी व्यक्तिगत धारणा यह है कि जो व्यक्ति स्टिंग ऑपरेशन में फंसा हो, वह मेरी पसंद का नेता नहीं हो सकता, चाहे वह किसी भी दल का हो। मेरा सवाल यह है कि आप किसी सनातन धर्मावलम्बी को भगवान के दर्शन से कैसे रोक सकते हैं?
सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या यह सनातन की सेवा है? इस तरह से तिरस्कृत और बहिष्कृत व्यक्ति अगर कल सनातन को छोड़ कर किसी और धर्म का अनुयायी बन जाए तो कौन उत्तरदायी माना जाएगा? वैसे भी सनातन धर्म आज मुगलकाल के बाद सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। धर्मान्तरण की खबरें आप पढ़ते ही होंगे। आप मान सकते हैं कि त्रिवेंद्र के अपमान के बाद क्या उनके कुनबे, नाते रिश्तेदार, समर्थक क्या कल केदारनाथ यात्रा पर आएंगे? जिस केदारनाथ के भरोसे लाखों लोगों की आजीविका चलती है, केदारघाटी का समूचा अर्थतंत्र चलता है। सीधा सा गणित है, आपने कितने लोगों को बाबा केदारनाथ से विमुख कर दिया। अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में है तो तय मानिए लाख नहीं तो हजार लोग तो उससे जुड़े ही होंगे। इतने लोग क्या कल यात्रा पर आएंगे?
नुकसान किसका है?
इस घटनाक्रम के बाद पूछना चाहिए कि इससे नुकसान केवल मंदिर प्रबंधन का नहीं, यात्रा से जुड़े तमाम लोगों का है और तीर्थ पुरोहितों का भी है। आखिर त्रिवेंद्र का भी तो कोई तीर्थ पुरोहित होगा? उसकी दक्षिणा तो मारी गई न, जिसके लिए आप ठिठुरती सर्दी में साधना करते आ रहे हैं। साफ और खरी बात तो यह है कि एक भी जजमान अगर कम होता है तो पीढ़ियों को उसका नुकसान भुगतना पड़ता है।
अब बात करें देवस्थानम बोर्ड की। निसन्देह त्रिवेंद्र सिंह सरकार का देवस्थानम बोर्ड बनाने निर्णय कतई स्वागतयोग्य नहीं था। देवस्थानम बोर्ड बनाने की न जाने क्या जल्दबाजी थी कि तमाम सम्बद्ध पक्ष से राय मशविरा किये बिना एक्ट थोप दिया गया। तीर्थ पुरोहितों में तब से गुस्सा है। इससे यह संदेश तो गया ही है कि कोई भी व्यवस्था लादना केवल हिन्दू धार्मिक संस्थानों पर ही सम्भव है। किसी अन्य धार्मिक संस्थान को अगर त्रिवेंद्र इस तरह के एक्ट के तहत लाते तो तब उन्हें मर्द का बच्चा कहा जा सकता था। एक कलम से चार धाम सहित 50 मंदिरों का प्रबंध सरकार के नियंत्रण में लाने के पीछे नीयत में खोट ही कहा जाएगा।
संवादहीनता इस कदर रही कि त्रिवेंद्र ने लोगों की असहमतियों को भी अनदेखा किया। यह एक तरह से अहंकार का प्रकटीकरण ही माना जा सकता है। लोग जब उनके सामने आपत्तियां लाये तो उनको भी अनदेखा कर दिया गया। यह आपके पतन की शुरुआत थी लेकिन आज जिस तरह चौराहे पर आप अपमानित हुए हैं, उसके लिए किसी और को दोष क्या देना। फसल आपने बोई थी सो आप ही काट भी रहे हैं। फिर भी भगवान आशुतोष के दर पर इस तरह की घटना को मेरे जैसा व्यक्ति स्वीकार नहीं कर पा रहा है और खुद को असहज पा रहा है। मुझे न जाने क्यों बार बार महसूस हो रहा है कि त्रिवेन्द्र के साथ हुई घटना अंततः सनातन धर्म को चोट पहुंचाएगी। नुकसान धर्म का ही नहीं कर्म का भी हुआ है। यह भी तो हो सकता था कि दर्शन करने के बाद आप त्रिवेंद्र को बंधक बना कर अपने बीच रख लेते। बैरंग लौटाने की बात किसी भी दृष्टि से हजम नहीं हो रही है।