November 22, 2024



चिन्ता जनता को ही करनी होगी

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रमेश पाण्डेय कृषक


उत्तराखण्ड में मशीनी छेड़छाड़ और प्राकृतिक आपदाओं की तेजी से बढ़ती श्रंखलाओं को सामने रख कर तो यह कहने में कोई दिक्खत नही हो रही है कि अगर सत्ता को जनता की चिन्ता होती तो वह आपदा की हर घटना से सबक सीखने के लिये प्रतिबद्ध रहती। यहां सत्ता का चरित्र विपरीत है। आपदाओं के मामलों में सत्ता सच को छुपाने, दोषारोपण करने और स्वबचाव करने का हर सम्भव प्रयास करती मिलती है। यह आरोप एक दो घटनाओं पर आधारित नही है। 1980-81 में करमी की आपदा, फिर जगथाना, मालपा, देवर खडेरा, मीन गधेरा, अगस्त मुनी क्षेत्र की श्रंखलाबद्ध घटनाओं, शुम्भ गढ़ और अन्य बहुत सारी खूनी घटनाओं के बाद 2013 की हजारों हजार जानें लील गई केदारनाथ की त्रासदी से जब सत्ता और सत्तासीनों ने कोई सबक नही सीखा तो अक्टूबर 2021 के दूसरे पखवाड़े में में घटी आपदा से सरकार सबक लेगी कश्यप कश्यप ही है।

इसमें दोराय नही कि विकास के जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं वह रास्ता भले ही एक निश्चित और सीमित समय के लिये बजटीय योजनाओं के विकास से हमें जोड रहा है पर भूमि की उपरी सतह को इतना अधिक प्रभावित कर रहा है कि हजारों हजार सालों तक या फिर आन्तरिक भ्रंशों के टकराने की प्रकृया तक ये जख्म बने रहेंगे।


राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में बहुत सी ऐसी योजनाओं पर काम हुआ है जिन योजनाओं की इजाजत पहाड़ों की संरचना नही ही देती है। ऐसी योजनाओं में ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल लाइन और पूरे उत्तराखण्ड मे बनाई जा रहीं आलवैदर सड़कों पर बात बहस होनी ही चाहिये। थोड़ी देर के लिये मान लेते हैं कि रेल साइन सामरिक महत्व के लिये जरूरी थी जो सैन्य आवाजाही की 12-14 घन्टों की दूरी को 2-3 घन्टों में समेट रही है, लेकिन आल वैदर सड़क के नाम से भीम काय राक्षसीय मसीनों को उत्पात मचाने की इजाजत क्यों दी गई। इसी पखवाड़े की बरसात में आलवैदर सड़कों का सच भी सामने आ ही गया। आलवैदर सड़क काटने में भूमि का जो भाग मलुवे में तब्दील हो गया वह कहां फेंका गया। क्या गारंटी है कि वह मलुवा नदियों को प्रभावित नहीं करेगा।


विकास के लिये विनाश की जो इबारत लिखी जा रही है उस इबारत का अध्ययन सत्ताएं और राजनैतिक दल क्यों नही करवा रहे हैं। वर्तमान राजनैतिक दलों की सत्ताएं यह काम कभी भी नही करेंगी। सर्व स्वीकार्य है कि पोक लैन्ड और जेसीपी मसीनें पहाड़ों की संरचना के लिये बहुत अधिक घातक हैं। यह भी सर्वमान्य है कि इन मसीनों ने श्रमिकों के हाथ काट लिये हैं। इन सर्वमान्यता के बाद भी पहाड़ों पर बच्चों के खिलौनों की तरह ये मसीनें चढ़ाई जारही हैं। हिमालय की चिन्ता करने वाले भूविज्ञानिकों ने बहुत पहले ही जेसीपी और पोकलैन्ड जैसे खतरनाक लौह राक्षसों को पहाड़ों पर ना चड़ाने की चेतावनियां दे दी थीं।

बस थोड़ा सा पीछे पलट कर देखें तो 1970 से 1980 के बीच उत्तराखण्ड में चला वन आन्दोलन पेड़ लगाने या पेड़ बचाने का आन्दोलन कतई नहीं था वह आन्दोलन तेजी से बढ़ रही बाढ़ों, भूस्खलनों, भू कटावों, आधुनिक विकास की बलि चढ़ती पारिस्थितिकी को बचाने का आन्दोलन था। 1970 से 1980 के बीच चले वनान्दोलन में चिपको तो बस छोटे से एक गांव के स्तर पर घटित छोटी से घटना मात्र थी। इस घटना के बाद बाढ़ों, भूस्खलनों, भू कटावों, आधुनिक विकास की बलि चढ़ती परिस्थितिकी को बचाने का आन्दोलन कहीं नेपथ्य में चला गया और बहुत ही बेशर्मी से हमने उस जरूरी मुद्दे को नेपथ्या में जाने दिया। पीरणाम आज भी बाढ़ों, भूस्खलनों, भू कटावों, आधुनिक विकास की बलि चढ़ती परिस्थितिकी को बचाने के लिये बड़े जन आन्दोलन की जरूरत अपनी जगह मुह बाये खड़ी है।


चर्चा को आगे बढ़ाने के लिये इस बात पर मनन करना लरूरी है योजना के निर्माण के समय योजना की उम्र क्यों छुपाई जाती है। क्या सरकार ने निर्माण से पहले लोगों को कभी बताया कि टिहरी डैम की निर्धारित उम्र कितनी है। पंचेश्वर डाम के निर्माण के लिये प्रतिबद्ध सरकारें और राजनैतिक दल पंचेश्वर डाम की असल उम्र बताने से क्यों कतरा रहे हैं। सीधी सी बात है कि जब सरकारें किसी भी योजना की असल उम्र बताना प्रारम्भ कर देंगी तो हजारों हजार सालों से अपने स्थान पर स्थापित समाज को राष्ट्र के विकास के नाम पर उसके स्थान से बेदखल करना कठिन हो जाएगा।

आज की तारीख में सवाल राजनैतिक दलों से पूछा जाना चाहिये कि भू वैज्ञानिकों की चेतावनियां उनके लिये चिन्ता का विषय क्यों नहीं है। ये सवाल ना तो सरकारी भू वैज्ञानिक पूछेंगे ना ही बड़े बड़े या छोटे बड़े पुरस्कारों से अछे गछे पर्यावरण विद ही पूछने की हिम्मत जुटा सकेंगे। आश्चर्य तो इस बात का है कि पर्यावरण संरक्षण पर एक के बाद एक रिसर्च करवा रहे शिक्षा विद भी विकास के नाम पर परोसे जा रहे महा विनाश पर सोध करवाने की हिम्मत नहीं बटोर पा रहे हैं। निश्चित जानों कि इसी माह अक्टूबर 2021 के दूसरे पखवाड़े के प्रारम्भ में बारिस ने जो उत्पात मचाया है वह उत्पात अन्तिम नहीं है। यह भी निश्चित जानों कि जिस और जैसे राजनैतिक ढांचे को हम ढो रहे हैं वह ढांचा पहाड़ के संरक्षण व सम्वर्धन के लिये कभी भी प्रतिबद्ध ना था ना ही अभी है। चिन्ता जनता को ही करनी होगी। नौजवानों को यह तो स्वीकार ही लेना चाहिये कि टूटे फूटे और लुटे पिटे पहाड़ पर आपकी जवानी में समृद्धता और बुढ़ापे में मुस्कुराहट सम्भव नहीं है।