गांव में रहकर क्या करना?
डॉ. अरुण कुकसाल
श्रीनगर-पौड़ी सड़क मार्ग पर डोभ-श्रीकोट से जामणाखाल की ओर 6 किमी़ की लिंक रोड का आखिरी छोर कठूड़ गांव (ब्लाक-खिर्सू) है। धन-धान्य से सम्पन्न इस गांव की आबादी 225 के करीब है। पानी की उपलब्धता ने कठूड़ गांव की खेती को समृद्ध बनाया है। आज भी खेती-किसानी करके ग्रामीण अधिकांश खेतों को बंजर बनाने से रोके हुए हैं। कठूड़ गांव के सामने की चोटी को रजगढ़ी कहा जाता है। जहां सैंकड़ों साल पुराने राज-निवास के अवशेष आज भी मौजूद हैं।
ज्ञातव्य है कि, जून-जुलाई, 2018 में कठूड़ गांव के भैरवनाथ मंदिर में निर्माण कार्य के दौरान मुगलकालीन सिक्के मिले थे, जिस कारण यह गांव चर्चा में आया था। ऐतिहासिक महत्व के इन सिक्कों का वर्तमान बाजार मूल्य लाखों में है। तब सरकार द्वारा यह कहा गया था कि इन सिक्कों के मूल्य का कुछ अंश कठूड ग्राम सभा को विकास कार्यों के लिए दिया जायेगा। परन्तु, यह गौर-तलब है कि, आज 3 साल बाद भी ग्रामीणों के कई बार शासन-प्रशासन से निवेदन करने के बाद भी कठूड़ ग्राम सभा को इस संदर्भ में कुछ भी धनराशि नहीं मिली है।
कठूड़ से लगभग 1 किमी. की दूरी पर इसका तोक ग्राम सरायखेत है। सरायखेत में रहने वाले कुल 3 परिवारों के कुटम्ब के मुखिया भगत सिंह रावत हैं। जीवन के शानदार 80 साल गुजार चुके भगत सिंह हम सबके लिए आदर्श और प्रेरणा के पुंज हैं। ग्रामीण उद्यमिता के बल पर उनके तीनों परिवार खुशहाल और स्वस्थ्य जीवन का आनंद ले रहे हैं।
खेती, पशुपालन और हस्तशिल्प भगत सिंह के सुखी, समृद्ध, स्वस्थ्य और संतुष्ट जीवन के आधार रहे हैं। उनकी कर्मठता और सकारात्मक जीवनीय सोच ने सरायखेत गांव को ग्रामीण उपजों, उत्पादों और उपकरणों में आत्मनिर्भर बनाया है। तभी तो, उन्हें जीवन से कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। हर काम को तन्मयता और ईमानदारी से करना और उसी में जीवन का आनंद लेना, यह उनके सफल जीवन का मंत्र है।
भगत सिंह के दादाजी सन् 1935 में अपने पैतृक गांव बरसूड़ी ( डोभ-श्रीकोट ) छोड़कर सरायखेत में 42 नाली जमीन खरीदकर बस गए थे। उसके बाद पिता भोपाल सिंह एवं माता सतेश्वरी देवी ने खेती-बाड़ी को और विस्तार दिया। यद्यपि, उनके पिता बस की ड्रायवरी भी करते थे।
भगत सिंह को स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाया। अतः बचपन से ही वे पुश्तैनी कामों से ही जुड़े रहे। सन् 1961 में दोस्तों के साथ नौकरी करने के बहाने मैदानी शहरों की चकांचौंध को देखने वे दिल्ली आये। होटल की नौकरी मिली, जो मन-माफिक नहीं लगी। एक दिन उसे छोड़ कर दिल्ली में ही सेना में भर्ती की लाइन में खड़े होकर तीसरी गढ़वाल रेजीमेंट में भर्ती हो गए। एक सैनिक के रूप में 7 साल की नौकरी की। घर आने का मन हुआ तो किसी तरह सेना की नौकरी छोड़ी और सन् 1968 में घर आकर खेती-किसानी में फिर से रम गए।
खेती और पशुपालन के साथ कृषि औजारों को बनाने में उन्होने महारथ हासिल की। ग्रामीण जीवन की हर गतिविधि और आर्थिकी में एक दक्ष एवं जागरूक किसान और कारीगर के रूप में उन्होने अपनी पहचान बनाई। उनके खेतों में कृषि उपज यथा- धान, गेहूं, मंडुवा, झगोंरा और दालों में प्रत्येक का उत्पादन उनके सक्रिय रहते कभी क्विटंल से कम हुआ हो, ये उन्हें याद नहीं। फलों में नांरगी, नाशपाती, सेब, संतरा, माल्टा, नींबू उनके बगीचे में भरपूर होते रहे हैं। साथ ही घी और दूध का कारोबार उनका दूर-दूर तक रहा है।खेती-किसानी उनके लिए भरण-पोषण से अधिक परिवार की आय का प्रमुख साधन रही है।
भगत सिंह जी के बनाये कृषि औजारों की दूर-दराज के इलाकों में धाक रही है। उनके घर का अणस्यला ( कृषि औजार बनाने की जगह ) की लौ आज भी अपनी पूरी चमक-दमक से चालू है। उनका कहना है कि अभी चार दशक पहले तक परिवार की मात्र नमक, गुड और कपड़े की आवश्यकता के लिए हम बाजार पर निर्भर थे। बाकी सभी जरूरतें हम गांव की खेती, पशुपालन और कारीगरी से पूरा कर लेते थे।
खेती-किसानी के दम पर ही उन्होने अपने दो पुत्रों और पांच बेटियों की परवरिश, विवाह और उन्हें काबिल बनाया। आज भी उनके दोनों पुत्रों के परिवार गांव में रहकर ही सुखी जीवन-यापन कर रहे हैं। हां, उनके बच्चे अब पढ़-लिख रहें हैं, इसलिए नौकरी की ओर उनका रुझान होना स्वाभाविक है।
उत्तर-प्रदेश के जमाने में अच्छी खेती के लिए उन्हें सरकार से प्रोत्साहन और ईनाम मिलता रहता था। तब अधिकारी और वैज्ञानिक उनकी खेती-किसानी देखने, उसमें सुझाव देने के लिए आते थे। वे हंसते हुए कहते हैं ‘‘उत्तराखंड क्या बना कि अब तो कोई इधर झांकता भी नहीं है। कभी कोई नेता वोट के लिए भी इधर नहीं आया। बात भी सही है, मात्र 10-12 वोटर के लिए इतनी खड़ी चढ़ाई क्यों और कौन चढ़ेगा?’’
भगत सिंह जी की सक्रिय उद्यमशीलता और उत्साही जीवन-चर्या का राज उनकी स्वस्थ्य सेहत से जुड़ा है। जीवन में कोई भी बीमारी उन्हें कभी छू भी नहीं पाई। 12 साल पहले पानी की पाइप लाइन पर काम करते हुए एक बड़ा पत्थर उनके दायें हाथ की हथली पर जोर से गिरा जिससे तीन उंगलियां बुरी तरह जख्मी हो गई। नतीजन, इलाज के दौरान उन्हें काटना पड़ा। पर उनकी हिम्मत और काम करने का उत्साह ही था कि इस घटना के तीन महीने बाद वे अपने सभी कामों को पूरी ताकत और निपुणता के साथ करने लगे। आज, तीनों उंगलियों के कटने का कोई असर उन पर नहीं है।
भगत सिंह जी आज भी नित्य सुबह पांच बजे उठकर अकेले ही जंगलों के अन्दर 5 से 6 किमी. तक घूम आते हैं। जंगली जानवरों को वह अपना हम-दोस्त ही मानते हैं। उनका कहना है कि इस धरती पर पशु-पक्षियों को रहने का भी उतना ही अधिकार है, जितना आदमियों को। हकीकत तो यह है कि, आदमी उनके क्षेत्र में अतिक्रमण करता है, न कि पशु-पक्षी आदमी के क्षेत्र में।
भगत सिंह जी की सामाजिक सक्रियता और निपुणता के कारण गांव के सामुहिक कार्यों में उनकी उपस्थिति हमेशा अहम मानी जाती है। उनके मन में 80 साल की उम्र में भी 18 साल के नौजवान का जोश है। इसीलिए, जीवनीय जिज्ञासा की चमक उनको हर समय उत्साहित रखती है।
भगत सिहं जी से बातचीत के दौरान, सरायखेत से तकरीबन 5 किमी. घने जंगल और बीहड़ रास्ते सेे होकर दिखने वाली तीखी और ऊंची पहाड़ी में स्थित रजगढ़ी को देखकर जब मैं कहता हूं कभी वहां (रजगढ़ी) जरूर जाना है’, तो वे तुरंत मेरा हाथ पकड़ कर कहते हैं ‘चलो, अभी चलते हैं।’ साथ के युवा साथी घबरा जाते हैं कि, कहीं ये दोनों बुजुर्ग वाकई न चल दें, रजगढ़ी की ओर।
जीवन में हिम्मत, उत्साह और रोमांच को बनाये रखते हुए उद्यमशील भगत सिंह जी से बातचीत के बाद मैं उनसे कहता हूं कि ‘‘क्रान्तिकारी भगत सिंह को तो मैंने देखा नहीं पर आपको देखकर जरूर लगा कि आपने भगत सिंह नाम की सार्थकता और जीवंतता को बनाये रखा है।’’ मैं साथियों के साथ यह सोचते हुए वापस लौटता हूं कि आज के समाज के मन-मस्तिष्क में विराजमान यह बात कि ‘गांव में रहकर क्या करना? का सटीक जबाब है भगत सिंह रावत।